राबर्ट वाडरा सरकार के दामाद हैं। यह इसलिए कि वे सोनिया गान्धी के दामाद हैं और सोनिया गान्धी उस पार्टी की अध्यक्ष हैं जो केन्द्र में और कई प्रदेशों में शासन में है।
ऐसे में महान भारतीय परम्परा के अनुसार उनका यह हक बनता है कि सरकार उनकी खातिरदारी करे। इस खातिरदारी में किस्तों में अदा किये जाने वाले दहेज में, यदि केन्द्र व प्रदेश सरकारें उन्हें कुछ सालों में कुछ सौ या कुछ हजार करोड़ रुपये की सम्पत्ति अर्पित कर देती है या करवा देती है तो इसमें कुछ भी अजीबो गरीब नहीं है। इसे तो होना ही चाहिए। यह भारत की महान सांस्कृतिक विरासत के अनुरूप है और वर्तमान पूंजीवादी निजाम के हिसाब से भी दुरुस्त है।
यह इस कदर दुरुस्त है कि मुख्य विपक्षी पार्टी इस पर कोई हंगामा खड़ा करने को तैयार नहीं है। इतना सुनहरा मौका वह बिलकुल हाथ में नहीं लेना चाहती। उसने घोटालों के कारण ही पिछला सत्र नहीं चलने दिया। पर इस समय वह चुप है। आखिर उसके पास भी एक नहीं हजारों वाडरा हैं। यही नहीं, भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी खुद भी एक वाडरा हैं।
लेकिन रिश्तदारी के इन दामादों के अलावा असली दामाद तो दूसरे ही हैं। राबर्ट वाडरा को जिस डी एल एफ ने कुछ सौ करोड़ रुपये की सम्पत्ति इकट्ठी करने में मदद की, उसने बदले में इसके दाम दस गुना कमाये। 2 जी स्पेक्ट्रम से लेकर कोयला खदान आवंटन तक चारो ओर यही माजरा है। पूंजीवादी नेताओं और उनके रिश्तदारों-मित्रों से सैकड़ों गुना आगे हैं ये पूंजीपति। ये ही सरकार के असली दामाद हैं। इन पर सरकार ने पिछले पांच सालों में इक्कीस लाख करोड़ रुपये कानूनी तौर पर लुटाये हैं।
अरविन्द केजरीवाल एण्ड कंपनी इन भांति-भांति के दामादों पर अंगुली नहीं उठाती। वह केवल एक किस्म को निशाना बना रही है। ऐसा करके वह यह भ्रम पुख्ता करना चाहती है कि इस पतित पूंजीवादी व्यवस्था को सुधारा जा सकता है। ठीक इसी कारण इस तरह के लोग व्यवस्था के एकदम घटिया चाटुकार-पैरोकार साबित होते हैं। इसीलिए भांति-भांति के दामादों के साथ इनका भी भंडाफोड़ उतना ही जरूरी है।
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