असम में भारतीय शासक वर्ग की साम्प्रदायिक चालों का असर अब सुदूर पश्चिम में मुंबई तक पहुंच गया है। 11 अगस्त को मुम्बई में मुस्लिम प्रदर्शनकारियों पर पुलिस की गोलाबारी से कम से कम 2 लोग मारे गये हैं। ये प्रदर्शनकारी असम में मुस्लिम आबादी के खिलाफ हो रही बड़े पैमाने की हिंसा के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे थे।
यह भारतीय शासक वर्ग की करतूत है कि असम की राष्ट्रीयता की समस्या ने इस तरह का साम्प्रदायिक रूप ग्रहण कर लिया है। इसमें आज संघ परिवार जैसे हिन्दू साम्प्रदायिक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
असम में 1980 के दशक से ही असमी राष्ट्रयता को लेकर समय-समय पर व्यापक आंदोलन उठते रहे हैं। 1980 के दशक की शुरुआत में इसका नेतृत्व आफ असम स्टूडेन्ट यूनियन ने किया था। तब 1982 में इंदिरा गांधी की सरकार ने असम में सेना द्वारा भयंकर कत्लेआम मचाकर इसका दमन किया था। बाद में जब आसु के द्वारा असम गण परिषद का गठन किया गया तो धीरे-धीरे यह भारतीय राज्य व्यवस्था में समाहित हो गई। अब अगप एक सामान्य विपक्षी पार्टी है। आसू और अगप के इस हश्र के बाद असमी राष्ट्रीयता की मांग से उल्फा का जन्म हुआ। इसका भी भारत सरकार ने भयंकर दमन किया। यह अभी भी जारी है। इस समय सरकार उल्फा में फूट डालकर इसके एक हिस्से को अपने साथ लाने में कामयाब हो गई।
असमी राष्ट्रीयता की मांग के दमन के साथ इससे निपटने के लिए सरकार ने एक और घृणित रास्ता अपनाया। समस्त पूर्वोत्तर भारत की तरह असम में भी भारी मात्रा में आदिवासी सूमह मौजूद हैं। इसमें कुछ बड़े समूह विकसित होकर अपनी एक स्वतंत्र राष्ट्रीय पहचान तक पहुंच रहे हैं। ऐसा ही एक समूह बोडो भी है।
स्वाभाविक ही है कि इन आदिवासी समूहों की अपनी पहचान की आकांक्षायें हों। इसका समाधान किसी राष्ट्रीयता के भीतर पर्याप्त स्वायत्तता के साथ या यहां तक की अलग प्रदेश या राष्ट्रीयता की मान्यता के साथ ही हो सकता है। लेकिन जब भारतीय शासक वर्ग असमी राष्ट्रीयता तक को मान्यता देने को तैयार न हो तब यह इन अन्य सूमहों की आकांक्षाओं को तवज्जो क्यों देगा? हां, वह इनका इस्तेमाल अपनी कुटिल चालों के लिए कर सकता है।
असम में भी असमी राष्ट्रीयता के लोगों की मांग के खिलाफ भारत सरकार ने बोडो जनजातीय समूह का इस्तेमाल किया। कहा तो यहां तक जाता है कि बोडो लिबरेशन फ्रंट को सैनिक प्रशिक्षण देने का काम भारत की केन्द्रीय गुप्तचर संस्था रा ने किया था।
राष्ट्रीयता की समस्या में सरकार की कुटिल चालों से उसमें विकृति आनी स्वाभाविक थी। इसलिए असमी राष्ट्रीयता की मांग में गैर असमी लोगों के खिलाफ हिंसा और अब बोडो इलाके में गैर बोडो लोगों के खिलाफ हिंसा तथा दोनों समूहों के बीच तनाव जैसी घटनायें होती रही हैं। इसमें संघ परिवार जैसे हिन्दू साम्प्रदायिक संगठन बांग्लादेश से मुस्लिम घुसपैठ का मुद्दा उठाकर इसे और ज्यादा साम्प्रदायिक रूप देते रहे हैं।
सच्चाई यह है कि बोडो इलाके सहित समूचे असम में बांग्लादेश से मुस्लिम आबादी का आगमन करीब 100 सालों से होता रहा है। इसमें 1947 और 1971 जैसे संकटकाल में ज्यादा प्रवजन हुआ है। ये सारे लोग गरीब लोग हैं जो बहुत बुरी स्थितियों में ही अपना घर-बार छेाड़कर परायी जगह पर जाने को मजबूर हुए हैं। इन्हें ‘मुस्लिम घुसपैठिये’ कहना एकदम घृणित साम्प्रदायिक करतूत है। महत्वपूर्ण है कि केन्द्र व प्रदेश की कांग्रेस सरकार इसमें संघ परिवार के पीछे-पीछे चल रही है।
असम और बोडोलैण्ड तथा असम की अन्य पहचानों का समाधान पूरे देश में राष्ट्रीयता की समस्या के सही समाधान में है। लेकिन यह वर्तमन पूंजीवादी व्यवस्था में नहीं हो सकता। इसका समाधान मजदूर राज के तहत वास्तव में संघीय ढांचे में ही हो सकता है। एक ऐसे ढांचे में जिसमें राष्ट्रीयताओं को को अलग होने सहित आत्मनिर्णय का अधिकार हासिल होगा तथा राष्ट्रीयताओं के भीतर उप राष्ट्रीयताओं और अन्य पहचानों को महत्तम स्तर की स्वायत्तता का।
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