Thursday, August 2, 2012

अन्ना एण्ड कंपनी का राजनीतिक विकल्प : शेखचिल्ली के हसीन सपने

             पिछले 9 दिनों में अपनी हेकड़ी को धूल-धसरित होता देखने के बाद अन्ना हजारे एण्ड कंपनी ने तया किया है कि वे अब और ऊंची छलांग लगाएंगे। अब वे एक राजनीतिक विकल्प प्रतुत कर यानी चुनाव लड़कर ‘व्यवस्था परिवर्तन’ करेंगे। अभी तक वे जनलोकपाल बिल के लिए जनाआंदोलन के जरिए ‘व्यवस्था परिवर्तन’करना चाहते थे। सरकार समेत सभी पूंजीवादी राजनीतिक दलों ने इस ‘व्यवस्था परिवर्तन’ के साथ इतना घाल-मेल किया कि अन्ना हजारे एण्ड कंपनी भी हमाम का एक और सदस्य बन गई। अब वे बाकायदा कपड़े उतार कर पूंजीवादी चुनावी राजनीति में उतरना चाहते हैं।
             लेकिन पूंजीवादी चुनावी राजनीति के इन नये मध्यमवर्गीय शेखचिल्लियों का क्या हश्र होगा ? वे कितना और कैसा ‘व्यवस्था परिवर्तन’ कर पायेंगे ?
             एक अर्से से यह बात स्थापित रही है कि मध्यम वर्ग अपनी कोई पार्टी बनानें में अपने खास वर्गीय चरित्र के कारण ही अक्षम है। मतलब यह कि मजदूर वर्ग और पूंजीपति वर्ग अपनी राजनीतिक पार्टियां बनाकर अपने वर्गीय हितों के लिए संघर्ष में उतर सकते हैं और उतरते हैं। वे लम्बे समय तक ऐसा करते रह सकते हैं। पर मध्यम वर्ग ऐसा नहीं कर सकता। यदि वह कभी अस्थाई तौर पर अपनी राजनीतिक पार्टी बनाने में कामयाब भी हो जाता है तो यह पार्टी पूंजीपति वर्ग की ही सेवा करेगी। यह मध्यम वर्ग के हितों को आगे नहीं बढ़ा सकती। बीसवीं सदी में इटली और जर्मनी की फासीवादी पार्टियों का यही हश्र हुआ था। वस्तुतः इस तरह की पार्टी और आंदोलन संकटग्रस्त पूंजीपति वर्ग के लिए बड़े काम का साबित होता है।
              अन्ना एण्ड कंपनी का पूंजीवादी चुनावी राजनीति में उतरने का परिणाम इससे अलग होगा, ऐसा सोचने का कोई औचित्य नहीं है। ऊपर से तुर्रा यह कि यह ऐसे लोग करने का प्रयास करेंगे जो खुलेआम ‘गैर-राजनीतिक’ हैं और अपने इस ‘गैर राजनीतिक’ चरित्र पर गर्व करते हैं। ‘गैर राजनीतिक’ नेताओं और समर्थकों का पूंजीवादी राजनीति में लोट-पोट करने का यह नजारा वाकई बहुत दिलचस्प होगा।
             ‘व्यवस्था परिवर्तन की बात करने वाले ये मध्यमवर्गीय शेखचिल्ली अब राजनीति और व्यवस्था में नैतिक बल पर परिवर्तन करने की बात कर रहे हैं। ‘अच्छे’ और ‘ईमानदार’ लोग चुनकर संसद में पहुंचेंगे और व्यवस्था बदल देंगे। पूंजीपतियों और मजदूरों वाली यह पूंजीवादी व्यवस्था बनी भी रहेगी और बदल भी जायेगी। मध्यमवर्गीय शेखचिल्ली ही यह करिश्मा करने का सपना पाल सकता है। पूंजीवादी व्यवस्था बने रहते हुए भी यह बदल सकती है। यह पहले हिटलर और मुसोलिनी ने कर दिखाया है।
            पिछले साल भर में अन्ना एण्ड कंपनी की ईमानदारी और बेदाग छवि पर काफी सवाल उठ चुका है। वह इस हद तक कि इसके सदस्यों ने यह घोषणा कर दी कि मसला व्यक्तिगत ईमानदारी का नहीं बल्कि एक ऐसे तंत्र निर्माण का है जिसमें भ्रष्टाचार न किया जा सके। अब वे पलटकर फिर ‘ईमानदार’ नेताओं के संसद में जाने की बात करने लगे हैं। और ठीक ऐसा कहते हुए कि वे कोई भी झूठ बोलने से बाज नहीं आते। मसलन वे कहते हैं कि पिछले सालों के लाखों करोड़ रुपये के घोटाले के पैसे पार्टियों के पास गये हैं और इस कारण वे हर मतदाता को 1 लाख रुपये दे सकती हैं। क्या वाकई वह सारा पैस पार्टियों के पास गया ? फिर पूंजीपति कहां गये ? यह यूंही नहीं हुआ था कि जर्मनी और इटली के पूंजीपति वर्ग ने फासीवादी-नाजीवादी आंदोलन को भरपूर समर्थन दिया था।
            आज भारत की पूंजीवादी राजनीति ऊपर से नीचे तक भ्रष्ट हो चुकी है। इस की कीचड़ में अपनी मध्यमवर्गीय सोच से उतरते ही अन्ना एण्ड कंपनी इसमें गले तक डूब जायेगी। यदि किन्हीं खास वजहों से ऐसा नहीं होता हाटर वाकई अन्ना एण्ड कंपनी सफल होती है तो भारत को इक्कीसवीं सदी में हिटलर और मुसोलिनी के कुछ संस्करण देखने को मिलेंगे। जो ये लोग जनलोकपाल बिल के जरिए हासिल करना चाहते थे,वह संसद के जरिए हासिल करने का प्रयास करेंगे।
            वैसे इसकी संभावना क्षीण ही है। जो वास्तव में होगा वह जे.पी. आंदोलन का दूसरा-पृहसन वाला संस्करण ही होगा। जे.पी. के बदले अन्ना हजारे, जनता पार्टी के बदले एक नयी मध्यमवर्गीय पार्टी। और नतीजा ? मरी हुयी चुहिया भी नहीं।
           यह समय बहुत बेईमान और बेरहम है। अन्ना एण्ड कंपनी को अभी काफी चांटे खाने पड़ेंगे। इसके बाद ही वे भारतीय राजनीति के दृश्य पटल से ओझल होंगे।

No comments:

Post a Comment