गहराता संकट और बढ़ता मजदूर संघर्ष
साम्राज्यवादियों
द्वारा मजदूर वर्ग की भीषण लूट के खिलाफ यूरोप में मजदूरों का संघर्ष इस मई दिवस
से फिर से मुखर हो गया। इस मई दिवस को यूरोप और अमेरिका में आर्थिक संकट से त्रस्त
मजदूरों ने बड़े पैमाने के विरोध प्रदर्शन आयोजित किए।
पिछले
साल बड़े पैमाने के मजदूर और युवा विरोध प्रदर्शन इस साल की शुरआत में कुछ हल्के
पड़ गए थे लेकिन अब उनमें फिर से जान पड़ गई है। मई दिवस पर बड़े प्रदर्शनों के
बाद यह तय किया गया कि इस 15 मई को पिछले साल के 15 मई के आंदोलन के साल भर पूरे
होने पर फिर जमावड़े का आयोजन किया जाए। खासकर स्पेन में 12 मई से ही प्रदर्शन हो
रहे हैं और पुलिस के साथ झड़पें हो रही हैं। 13 मई को यूरोप व्यापी प्रदर्शन हुए।
साम्राज्यवादी
पूंजीपति वर्ग द्वारा आर्थिक संकट का सारा बोझ मजदूरों पर डालने और उन्हें किसी भी
हद तक निचोड़ने का, मजदूर वर्ग न केवल सड़कों पर उतर कर विरोध कर रहा है बल्कि वह
चुनावों में भी इसका विरोध कर रहा है। जर्मनी में अंजेला मर्केल की पार्टी कई
महत्वपूर्ण प्रदेशों में पराजित हो गई है। फ्रांस में बड़बोले सरकोजी की चुनावों
में बोलती बंद हो गई और उन्हें होलांदे के हाथों पराजय का मुंह देखना पड़ा। सबसे
महत्वपूर्ण चुनाव परिणाम सबसे संकटग्रस्त ग्रीस में सामने आए।
ग्रीस
में 6 मई को हुए चुनाव में अब तक की दोनों प्रमुख पार्टियों न्यू डेमोक्रेसी तथा
पासोक (तथाकथित समाजवादी) के मत आधे हो गए। इनके मुकाबले किफायत कदमों का विरोध
करने वाली पार्टियों, जो स्वयं को वामपंथी कहती हैं, के मत काफी बढ़ गए। खासकर ‘रेडिकल लेफ्ट’ सीरिजा करीब 17 प्रतिशत मत पाकर दूसरे नंबर की पार्टी बन गई।
न्यू डेमोक्रेसी के मत इससे बस 1 प्रतिशत ज्यादा हैं पर ग्रीस के अजीबोगरीब नियमों
के अनुसार पहले नंबर की पार्टी होने के चलते इसे 300 की संसद में 50 बोनस सीटें
मिल गईं।
परंतु
इसके बावजूद न्यू डेमोक्रेसी और पासोक मिलकर सरकार बनाने की स्थिति में हैं। पिछले
सप्ताह भर में सरकार बनाने के लिए ग्रीस में हर संभव जोड़-तोड़ का सहारा लिया गया
है पर वहां सरकार नहीं बन सकी है।
पिछले
चुनावों के मुकाबले लगभग चार गुना मत हासिल करने वाली सीरिजा के नेता सियारा का
कहना है कि वे ऐसी किसी सरकार में शामिल नहीं हो सकते जो यूरोपीय संघ द्वारा थोपा
गया किफायत कार्यक्रम लागू करे क्योंकि उन्हें वोट इन कदमों का विरोध करने के लिए
ही मिले हैं। सियारा यूरोपीय संघ और यूरो क्षेत्र में रहना चाहते हैं पर वे किफायत
कार्यक्रम नहीं लागू करना चाहते।
ग्रीस
की कम्युनिस्ट पार्टी (भारत की भाकपा-माकपा की सहोदर) को इस चुनाव में करीब 8.5
प्रतिशत मत मिले, पिछले चुनावों से एक प्रतिशत ज्यादा। यह पार्टी न केवल किफायत
कदमों के खिलाफ है बल्कि यह ग्रीस को यूरोपीय संघ से बाहर करने और सारे ऋणों की
अदायगी न करने की बात करती है। इसी जमीन पर वह सीरिजा के साथ संश्रय करने को तैयार
नहीं है।
अंतरराष्ट्रीय
वित्तपतियों और उनकी संस्थाओं ने करीब छह महीने पहले ग्रीस की संसद को दरकिनार कर
तथाकथित टेक्नोक्रेटिक सरकार बनाई थी जिससे अपने मुनाफे के लिए मजदूरों को
बेरोक-टोक चूसा जा सके। अब चुनाव में मजदूर वर्ग ने स्पष्ट बता दिया है कि वह इस
सरकार के बारे में क्या सोचता है। परंतु वित्तपति और न्यू डेमोक्रेसी व पासोक जैसी
पार्टियां मानने को तैयार नहीं हैं। कोई गठबंधन सरकार बनाने में असफल रहने पर
एकबार फिर टेक्नोक्रेटिक सरकार की बातें हो रही हैं। वैसे ज्यादा संभावना यही है
कि जून में नए चुनाव कराए जाएं जिसमें भांति-भांति के वामपंथियों को और ज्यादा मत
मिल सकते हैं।
ग्रीस
का आर्थिक-राजनीतिक संकट उस सबकी बस संघनित अभिव्यक्ति है जो भीतर ही भीतर सारे
साम्रज्यवादी देशों में पक रहा है। इटली की सरकार ने तो कुछ अराजकतावादी तोड़-फोड़
से निपटने के लिए सेना तैनात करने की बात कही है। साम्राज्यवादी चैन से नहीं बैठ
पा रहे हैं। वे चैन से नहीं बैठ पाएंगे। ऐसे में मजदूर वर्ग को अपना संघर्ष हर
संभव तरीके से और तेज करना चाहिए।
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