Sunday, May 13, 2012

अंबेडकर के स्वनाम धन्य रखवाले

        उदार जनतांत्रिक डा. भीमराव अंबेडकर ने अपने जीवनकाल में कभी नहीं सोचा होगा कि एक दिन ऐसा आएगा जब खुद को उनका अनुयाई कहने वाले लोग स्वयं अंबेडकर के नाम पर जनतांत्रिक मूल्यों की ऐसी-तैसी कर रहे होंगे। लेकिन आज यही हो रहा है।
      पिछले तीन-चार दिनों से अंबेडकर के स्वयंभू अनुयायी तथा सभी पूंजीवादी पार्टियों के नेता एक ऐसे कार्टून को लेकर अपने को आहत और क्षुब्ध दिखाने का प्रयास कर रहे हैं जो 1949 में प्रकाशित हुआ था। संविधान बनाने की की धीमी गति पर टिप्पणी करता हुआ यह कार्टून नेहरू और अंबेडकर पर था जिसमें अंबेडकर संविधान नामक घोंघे पर सवार होकर उसे हांक रहे हैं और पीछे से नेहरू उन्हें हांक रहे हैं। तब अंबेडकर को यह नहीं सूझा था कि शंकर वीकली में प्रकाशित शंकर के इस कार्टून को प्रतिबंधित करवाएं।
       परंतु अंबेडकर के अनुयायियों की आत्मा इससे इस कदर आहत हो गई है कि न केवल वे इस कार्टून को एनसीईआरटी की ग्यारहवीं की पुस्तक से इसे हटवाना चाहते हैं बल्कि वे इस पुस्तक को तैयार करवाने वालों को दंडित भी करवाना चाहते हैं। यह पुस्तक 2006 से ही पाठ्यक्रम में हैं परंतु इनकी आत्मा अब जाकर आहत हुई है। इनकी चीख-पुकार के सुर में सभी पूंजीवादी पार्टियों के नेताओं ने अपना सुर मिला दिया है। केंद्रीय शिक्षा मंत्री कपिल सिब्बल ने तो इस पर संसद में माफी भी मांग ली है। इस सबसे नाराज और क्षुब्ध दोनों सलाहकारों ने इस्तीफा दे दिया जो इस पुस्तक को तैयार कराने में मददगार थे।
        गौर  करने लायक बात यह है कि पिछले दिनों इस मुद्दे को आर पी आई के अठवाले ने उछाला ये सज्जन अपनी छोटी सी पार्टी के साथ आजकल भाजपा और शिवसेना के साथ संयुक्त मोर्चा बनाए हुए हैं। दलितों के मसीहा अंबेडकर की रक्षा का झंडा बुलंद करने वाले अठवाले ठीक इसी समय सवर्ण प्रभुत्व वाली भाजपा के साथ संश्रय में हैं। अंबेडकर की दिवंगत आत्मा को यह दिन भी देखना था।
       आज दलित पूंजीपति वर्ग की समूची राजनीति इसी तरह की छुद्र स्टंटबाजी तक सीमित हो गई है। वजह भी स्पष्ट है। दलित मजदूरों को लूटने में सवर्ण पूंजीपतियों के साथ हर तरह से हाथ मिलाए हुए ये लोग दलित मजदूर आबादी को इसी तरह बेवकूफ बना सकते हैं। आज ज्यादातर दलित मजदूरों को (और दलितों की लगभग 90 प्रतिशत आबादी मजदूर है) न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिल रही है। देहातों के नारकीय जीवन से पलायन कर वे शहरों की झुग्गी बस्तियों में किसी तरह जिंदा रहने का प्रयास कर रहे हैं। पूंजीपति वर्ग इन्हें और ज्यादा निचोड़ रहा है।
      परंतु अठवाले और मायावती के लिए यह मुद्दा नहीं है। यह हो भी नहीं सकता। इसीलिए वे एक ऐसे कार्टून पर फर्जी बवाल खड़ा करते हैं जो 63 साल पुराना है और जो पिछले छः साल से बच्चों की पाठ्य पुस्तक में मौजूद है।
      दलित मजदूरों समेत समूचा मजदूर वर्ग इन चालबाजियों की हकीकत को समझता है और दलित पूंजीपतियों के इन नेताओं पर लानत भेजता है।

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