पिछले कुछ समय से सेना और भारत सरकार के बीच भांति-भांति के मुद्दों पर टकराव की खबरें पूंजीवादी प्रचार तंत्र में सुर्खियां बनती रही हैं पहले थल सेना अध्यक्ष जनरल वी के सिंह की जन्म तिथि का मामला आया, फिर सेना के साजो सामान का मामला और अब सेना की दो टुकडि़यों के राजधनी की ओर कूच का मामला। अखबरों से लेकर समाचार चैनलों में ये पर्याप्त गपशप का विषय बनते रहे हैं।
इस संबंध में दो बातें गौरतलब हैं। पहली तो यह कि सेनाधिकारी इस बीच पहले के मुकाबले ज्यादा मुखर रहे हैं। वे कई बार सीधे-सीधे सरकार को चुनौती देते हैं। इस तरह वे देश की पूंजीवादी राजनीति में सेना के राजनीतिक नेतृत्व के अधीन पहले के उसूल को किसी हद तक तोड़ते हैं।
दूसरी बात यह कि पूंजीवादी प्रचार माध्यमों द्वारा इसे भांति-भांति तरीकों से प्रश्रय दिया जा रहा है। एक ओर राजनीतिक नेतृत्व और सरकार पर लगातार हमला किया जाता है तो दूसरी ओर सेना के प्रति न केवल नरम रुख अपनाया जाता है बल्कि देश रक्षक के नाम पर उसके पक्ष में माहौल बनाया जाता है। एक ओर भ्रष्ट-पतित नेता तथा सरकार तो दूसरी और देश के लिए जान की कुर्बानी देने वाले अनुशासित, ईमानदार सेना के अफसर। आम आदमी के लिए चुनाव स्पष्ट है।
भारतीय राजनीति का यह मोड़ खतरनाक है। यह प्रकारान्तर से उस माहौल का निर्माण है जिसमें किसी संकट के समय सेना सत्ता अपने हाथ में ले ले। यह याद रखना होगा कि मध्य भारत में आदिवासी प्रतिरोध के खिलाफ बड़े बल प्रयोग के लिए सेना अधिकारियों की ओर से बयान आते रहे हैं। उससे निपटने के लिए सेनाधिकारी खुलआम सेना लगाने की बात करते हैं। कुल मिलाकर पूंजीवादी हलकों द्वारा उस माहौल का निर्माण किया जा रहा है जिसमें देश में संकट की घड़ी में सेना चुनी हुयी सरकार को किनारे लगाकर सत्ता हाथ में ले ले। पूंजीपति वर्ग के एक हलके के लिए यह हमेशा ही अपने शासन का ज्यादा अच्छा विकल्प रहा है। जरूरत पड़ने पर समूचा पूंजीपति वर्ग इसे अपना सकता है।
लेकिन भारत के मजदूर वर्ग के लिए और अन्य मेहनतकश जनता के लिए यह अत्यंत खतरनाक है। इसका वास्तविक मतलब क्या है इसे अपने पड़ोसी पाकिस्तान और बांग्लादेश के हालात से समझा जा सकता है।
मजदूर वर्ग के इस तरह के हालात निर्माण के प्रयास का दृढ़ता से विरोध करना चाहिए। उस देशभक्ति और सैन्य पूजा से बाकी मेहनतकश जनों, खासकर किसानों को मुक्त करने की पुरजोर कोशिश करना चाहिए। सड़े-गले पूंजीवादी लोकतंत्र का विकल्प सैनिक तानाशाही नहीं बल्कि मजदूरों का राज ही हो सकता है।
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