अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के नए मुख्यमंत्री बन रहे हैं। वे लोहियावादी मुलायम सिंह यादव के सुपुत्र हैं तथा जैसा कि चाटुकार कहते नहीं थकते, उत्तर प्रदेश के सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्री।
पूंजीवति वर्ग के प्रचार माध्यम अखिलेश यादव पर कुर्बान हुए जा रहे हैं। वे उनकी तारीफों के पुल बांध रहे हैं। वे उनमें अपनी छवि देख रहे हैं। वे उनमें अपनी उम्मीदों को फलीभूत होते देखना चाहते हैं।
पूंजीपति वर्ग और उसके प्रचार माध्यमों को उम्मीद है कि अखिलेश यादव उदारीकरण के जमाने के आधुनिक मुख्यमंत्री साबित होंगे-चंद्रबाबू नायडू और नितीश कुमार की परंपरा में। वे आधुनिक संचार माध्यमों से जुड़े़ हुए आईटी सेक्टर जमाने के मुख्यमंत्री होंगे। वे उत्तर प्रदेश में आधुनिकीकरण की यानी निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की बयार बहाएंगे। वे उत्तर प्रदेश को पिछले तीन दशकों की गंवारू राजनीति से बाहर खींच लाएंगे।
लोहियावादी समाजवादी मुलायम के बेटे अखिलेश का आधुनिकीकरण तक का यह सफर लाक्षणिक साबित हो सकता है। राममनोहर लोहिया और उनका समाजवाद उस सब का प्रतीक है जिसे महानगरीय पूंजीपति वर्ग गंवारू मानता है। लोहिया ने अंग्रेजी भाषा का विरोध किया तथा अंधता तक जाकर हिंदी को बढ़ावा देने का प्रयास किया। लोहिया ने अपने समाजवाद के नाम पर खुलेआम जातिगत राजनीति को स्थापित किया। असल में लोहिया समाजवाद उत्तर भारत की मध्यम खेतिहर जातियों को भूस्वामियों, जिन्हें बाद में कुलक भी कहा गया, का उत्थान था। मध्यम जातियों के ये भूस्वामी सांस्कृतिक तौर पर अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे थे तथा किसी हद तक गंवार भी। इससे भी आगे यह कि देहातों में अपने आधार को गोलबंद करने के लिए इनके राजनेताओं को और भी ज्यादा गंवारूपन और भदेसपन का सहारा लेना पड़ता था। लालू यादव ने इसे चरम पर पंहुचाया। यह सब शहरी मध्यम वर्ग के लिए खासकर अरुचिकर था।
अब लोहिया के चार दशक बाद स्थितियां बदल गई हैं। मध्यम जातियों के भूस्वामी यानी कुलक भी पढ़-लिख गए हैं। उनके बेटे-बेटियां देश के उच्च शिक्षा संस्थानों में अंग्रेजी पढ़ते हैं। इनमें से ढेरों देहातों में रहने के साथ शहरों के भी निवासी हो रहे हैं। उनमें “सभ्यता” और “संस्कृति” का प्रसार हो रहा है। एक वर्ग के तौर पर वे खेती के अलावा उद्योगों और व्यापार तक विस्तार कर रहे हैं।
अखिलेश यादव एक तरह से इसी संक्रमण को अभिव्यक्त कर रहे हैं। वे पुराने लोहियावादी समाजवाद को यह नया रूप दे रहे हैं क्योंकि उस “समाजवाद” का वाहक वर्ग इस तरह रूपांतरित हो गया है। यह रूपांतरण देश के शहरी पूंजीपति वर्ग और मध्यम वर्ग के मनोनुकूल है। इसीलिए वह इसे हाथोहाथ ले रहा है और इसका जश्न मना रहा है। अखिलेश यादव उसके नए प्रिंस चार्मिंग हैं।
लेकिन भारत का समूचा देहात अभी इस तरह नहीं बदला है। जैसा कि देहात मंत्री जयराम रमेश कहते हैं भारत के देहाती घरों में मोबाइल तो है लेकिन शौचालय नहीं। अखिलेश यादव अपनी जाति से बाहर सर्वण लड़की से विवाह कर सकते हैं पर अन्य लड़के-लड़कियों को ऐसा करने पर मौत की सजा भुगतनी पड़ती है।
भारत के देहात बदले हैं पर इतना नहीं। इसे चंद्रबाबू नायडू को, जो भारत के पहले हाई टेक मुख्यमंत्री थे, बुरी तरह पराजित होकर समझना पड़ा। चंद्र बाबू नायडू भी पूंजीपतियों और शहरी मध्यम वर्ग के प्रिंस चार्मिंग थे। अखिलेश यादव को भी, लोहियावादी मुलायम के सुपुत्र को भी, वक्त के साथ यह समझ में आ जाएगा। इस बीच यह निश्चित तौर पर अपने परिवार के लिए बहुत कुछ और अपने वर्ग के कुछ लोगों के लिए थोड़ा बहुत हथिया ले जाएगें। पांच साल भी इसके लिए काफी होगा। आखिर मायावती ने घोषित तौर पर एक सौ ग्यारह करोड़ रुपए की संपत्ति हथिया ही ली है।
अखिलेश की लाल टोपी और उनके समाजवाद का बस इतना सा मतलब है। इसमें मजदूरों के समाजवाद का न तो लेश मात्र है और न हो सकता है।
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