Thursday, March 1, 2012

बेहया प्रधानमंत्री की कुटिल चाल

           कुंदकुलम परमाणु संयन्त्र के विरोध के मामले में गैर सरकारी संगठनों को लक्ष्य बनाकर भारत सरकार खुद अपने ही गाल पर बेहयाई से थप्पड़ मार रही है।
            यदि ये गैर सरकारी संगठन (एन जी ओ) वास्तव में विदेशी पैसे से विदेशी एजेन्ट के तौर पर आन्दोलन चला रहे हैं, जैसा कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का कहना है, तो इनसे लाखों गुना बड़ा गुनाह तो स्वयं प्रधानमंत्री कर चुके हैं। यह  एक स्थापित सत्य है कि भारत सरकार ने अमेरिकी साम्राज्यवादियों के लिए हद से आगे जाते हुए 2008 में उनसे परमाणु समझौता किया। इसके लिए उन्होंने अपनी सरकार तक को दांव पर लगा दिया। सारे देश ने इसका विरोध किया था। वास्तव में विदेशी एजेन्ट कौन है?
           सारी दुनिया में यह बात जानी जाती है कि मनमोहन सिंह, पी. चिदम्बरम और मोंन्टेक सिंह अहलूवालिया की त्रिमूर्ति विदेशी पूंजी के एजेन्ट के तौर पर भारत सरकार में विराजमान हैं। वे बेहद घृणित तरीके से विदेशी पूंजी के लिए देश में नीतियां बनाते हैं। अभी हाल ही में खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश का मामला इसका एक उदाहरण हैं।
          विदेश नीति में यही लोग अमेरिकी साम्राज्यवादियों की नजरों को निहारते हुए अपने हाथ उठाते हैं। ये ही लीबिया, इरान और सीरिया के मामले में साम्राज्यवादियों के पीछे-पीछे चलना चाहते हैं।
           ऐसे ही लोग अब परमाणु संयन्त्र के जन विरोध पर विदेशी पैसे से संचालित होने का आरोप लगा रहे हैं। हो सकता है कि इस विरोध में विदेशी पैसे से संचालित कुछ गैर सरकारी संगठन शामिल हों। पर क्या जो  किसान अपनी जमीन पर या अपने आस-पास परमाणु संयन्त्र लगाये जाने का विरोध कर रहे हैं, वे भी विदेशी पैसे से संचालित हैं? और यदि विदेशी पैसे से संचालित  एन जी ओ इस विरोध में शामिल हैं तो सवाल यह है कि पिछले दो -तीन दशकों में इस तरह के गैर सरकारी एन जी ओ को किसने बढ़ावा दिया है? क्या यह सच नहीं है कि देश में वास्तविक क्रांतिकारी संघर्षों और संगठनों को दरकिनार करने के लिए सरकार ने एक योजना के तहत इस तरह के एन जी ओ के पूरे तंत्र को खड़ा किया और पाला-पोसा? तब सरकार को विदेशी पैसे और उससे पैदा होने वाले एजेन्टों की याद क्यों नहीं आई?
      इस प्रकरण में सबसे भयावह बात यह है कि भविष्य में सरकार किसी भी जन प्रतिरोध को विदेशी पैसे से संचालित होने का आरोप लगाकर कुचल सकती है, भले ही उसमें गैर सरकारी संगठन शामिल हों या न हों। देश में लगातार बढ़ते पैमाने पर खड़े हो रहे जन संघर्षों को कुचलने का यह नया नुस्खा है। विदेशी पूंजी के बेशर्म पैरोकरों की इस चाल का तुरन्त ही दृढ़ता से विरोध करना जरूरी हैं। इसी के साथ इन्हीं के द्वारा पालित-पोषित गैरसरकारी संगठनों का भी।

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