Friday, November 25, 2011

संकट में जाती अर्थव्यवस्था

           बहुत दिनों तक इंकार करने के बाद अंतत: अब भारत सरकार इस  बात को मानने के लिए मजबूर हो गई है कि वर्तमान गहराते विश्व आर्थिक संकट से भारत की अर्थव्यवस्था को गंभीर खतरा है। उसे यह स्वीकारोक्ति सट्टेबाजों की हरकतों के कारण करनी पड़ी अन्यथा तो सच झुठलाने में लगी हुयी थी।
         यूरोप में सरकार के कर्जों के संकट और ज्यादा गंभीर होने साथ अंतर्राष्टरीय सट्टेबाज भारत के शेयर बाजार से पूंजी निकाल रहे हैं। इसके चलते भारत का शेयर बाजार नीचे जा रहा है। इसी के साथ विदेशी मुद्रा के देश से पलायन और अंतर्राष्टरीय बाजार में डालर के मजबूत होने से रुपया डालर के मुकाबले रिकार्ड निचले स्तर पर चला गया है।

            भारतीय शेयर बाजार और रुपये की दुर्दशा के चलते मनमोहन सिंह जैसे कठपुतले को भी अंततः कहना पड़ा कि आने वाले समय में देश की अर्थव्यवस्था के सामने गंभीर चुनौतियां हैं।
          और चुनौतियां वास्तव में हैं। भारत का करीब 300 अरब डालर का विदेशी मुद्रा भंडार विदेशी पूंजी के तेज गति से पलायन पर कुछ ही दिनों में छू-मंतर हो जायेगा। तब भारत सरकार की हालत क्या होगी ? तब अंतर्राष्टरीय स्तर पर गंभीर संकट के इस समय में कौन उसे उबारने के लिए सामने आयेगा ?
             दूसरे विकसित देशों में गिरती वृद्वि दर के कारण भारत का भी औद्योगिक उत्पादन लड़खड़ा रहा है। ऐसे में पूरी अर्थव्यवस्था के मंदी में चले जाने का वास्तविक खतरा मौजूद है। लेकिन भारत का पूंजीपति वर्ग और भारत सरकार अफीम के नसेड़ी की तरह उसी दिशा में और तेज गति से दौड़ी चली जा रही है जिधर से संकट आ रहा है।
            अभी कैबिनेट ने भारत के खुदरा बाजार में विदेशी पूंजी निवेश को अनुमति देने का फैसला किया है। इसके तहत एक ब्रांड वाली खुदरा विक्रेता कंपनियों को 100 प्रतिशत और बहु ब्रांड वाली कंपनियों को 51 प्रतिशत तक विदेशी पूंजी निवेश की छूट मिलेगी। इसके लिए न्यूनतम 10 करोड़ डालर पूंजी निवेश और 10 लाख की आबादी वाले शहर की सीमा रखी गयी है। इस सीमा में फिलहाल देश के 53 शहर आते हैं।
            लेकिन खुदरा बाजार में तो यह महज शुरुआत है। वक्त के साथ यह अनुमति निबंध हो जायेगी। अब छोटे-छोटे दुकानदारों के सामने एक नये कोण से संकट शुरु होगा। इसी के साथ छोटे उत्पादकों के सामने भी जो जो बड़ी-बड़ी बहुराष्टरीय कंपनियों के रहमोकरम पर रहने मजबूर होंगे।
            पर इस सब से पूंजीपति वर्ग को फायदा होना है। वह वैश्वीकरण में अपने फायदे ही फायदे देख रहा है। यही यथार्थ भी है। ऐसे में उनकी सरकार सामाज्यवादियों के दुलारों मनमोहन सिंह,चिदम्बरम और मोन्टेक सिंह अहलूवालिया की सरकार यह क्यों न करे ? क्या उससे यह उम्मीद की जाय कि वह मजदूरों और छोटी सम्पत्ति वालों के हित में कुछ करेगी ?
         केवल पूंजीवाद में आगाध विश्वास रखने वाला ही ऐसा सोच सकता है।

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