Tuesday, November 22, 2011

उत्तर प्रदेश का विभाजन

मायावती की बसपा सरकार ने आनन-फानन में उतर प्रदेश को चार हिस्सों में बांटने का प्रस्ताव उतर प्रदेश विधान सभा में पास कर अपने राजनीतिक विरोधियों को पटकनी देने का प्रयास किया। पिछले साढ़े चार साल के अपने शासन में केवल लूट पाट में मशगूल इस सरकार ने इसके द्वारा चुनाव के ऐन पहले कुछ कर दिखाने का खेल खेला।
मयावती के इस दांव के सामने सपा, भाजपा और कांग्रेश पार्टी के सामने बौखलाने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। यह तो राजनीतिक मासूम को भी दीख रहा है कि यह एक चुनावी स्टंट है पर इन पार्टियों के लिए यह पेचिदा प्रश्न है कि इस स्टंट बाजी का मुकाबला कैसे करें ? केवल सपा ने खुले आम प्रदेश के बंटवारे का विरोध करने की हिम्मत की है।

उतर प्रदेश के छोटे-छोटे कई हिस्सों में विभाजन की बात लम्बे समय से उठती रही है। करीब 12 साल पहले उत्तराखंड इससे अलग कर भी दिया गया था तब भी करीब बीस करोड़ आबादी का यह प्रदेश काफी बड़ा है। दुनिया के चन्द देश ही इतनी बड़ी आबादी वाले हैं। 
छोटे-छोटे राज्यों का गठन अपने आप में बुरा नहीं है। इसके उलट यह बहुत सारे लिहाज से जरूरी है। खासकर उप राष्ट्रीय विशिष्टताओं और पहचानों के हिसाब से प्रशासन की दृष्टि से भी यह बेहतर है। उत्तर प्रदेश में हरित प्रदेश, पूर्वांचल और बुंदेलखंड की मांग तो पहले से उठती रही है।
परन्तु संघ के बदले केन्द्रीयता पर जोर देने वाले भारत के पूंजीपति वर्ग के लिए नये प्रदेशों का गठन हमेशा ही परेशानी वाला रहा है। आजादी के पहले भाषाई आधार पर प्रदेशों के गठन की बात करने वाली कांग्रेस पार्टी 1947 में सत्ता में आने के बाद इससे मुकर गई। इसके बाद 1950 के दशक में कई बड़े आंदोलनों के बाद ही वह भाषाई राज्यों के गठन के लिए तैयार हुयी वह भी कई चरणों में। रूकते-चलते हुए यह प्रक्रिया 1960 के दशक तक जारी रही।
उसके बाद भी कई प्रदेशों की मांग उठती रही। कई आंदोलनों के बाद 1999 में तीन नये राज्यों का गठन हुआ। उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ अस्तित्व में आये।
अब उत्तर प्रदेश के विभाजन की इस मांग के साथ ही भारत के पूंजीपति वर्ग और केन्द्र सरकार के लिए यह सवाल नये सिरे से खड़ा हो गया है। अलग तेलंगाना प्रदेश की मांग का आंदोलन पहले ही ऊची अवस्था में है। महाराष्ट्र में विदर्भ, मध्य प्रदेश में बुंदेलखंड इत्यादि मांग भी हैं। केन्द्र सरकार पिछले दिनों नये राज्य आयोग की बात भी करती रही है। 
लेकिन इतना तय है कि नये प्रदेशों की ये मांगे भारत में समूची पूंजीवादी राजनीति की उठा-पटक के तहत ही परवान चढ़ेगी। मजदूर- मेहनतकश जनता के हित इसमें कहीं ध्यान में नहीं होंगे। मायावती की यह चुनावी स्टंटबाजी भी इसी का हिस्सा है। 

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