कब्र में पांव लटकाए हुए या चिता की ओर बढ़ते हुए लालकृष्ण आडवाणी को चैन नहीं है। बल्कि वे हद से ज्यादा बेचैन हैं। वर्षों से उनकी प्रधानमंत्री बनने की चाहत अब और ज्यादा कठिन नजर आती है और हताशा में आडवाणी एक बार फिर रथ पर सवार हो गए हैं।
1990 की आडवाणी की खूंखार रथयात्रा उनके लिए एक ऐसा खूबसूरत सपना बन गई है जिसे वे बार-बार यथार्थ में उतारना चाहते हैं। इसीलिए वे उसके बाद कई बार रथ पर सवार हो चुके हैं। पर सपने हमेशा तो सच नहीं होते।
इस बार आडवाणी की हताशा इतनी ज्यादा थी कि उन्होंने बिना अपनी पार्टी और संघ परिवार से सलाह-मशविरा किए अपनी रथ यात्रा घोषित कर दी। वे भाजपा में मचे इस समय के घमासान में सबसे आगे निकल जाना चाहते थे।
लेकिन उनके विरोधी कम नहीं हैं। वे बुढ़ऊ को इतनी आसानी से आगे नहीं निकलने देंगे। आडवाणी को बिना अपनी इच्छा पूरी हुए ही इस दुनिया से विदा होना होगा और उनकी प्यासी आत्मा लंबे समय तक भारतीय पूंजीवादी राजनीति के गलियारों में मंडराती रहेगी।
इस रथयात्रा के साथ भाजपा का वह द्वंद एक बार फिर मुखर हो गया है जो उसे हमेशा लंबे समय से उपापोह में डाले हुए है। वह एक बार फिर उग्र हिंदु सांप्रदायिकता की ओर लौट जाए या फिर पिछले दशक भर की यात्रा को जारी रखे। भाजपा में नरेंद्र मोदी के बढ़ते कद के साथ पहले का पलड़ा भारी होता नजर आ रहा है।
यहां यह गौर तलब है कि पहले कभी भाजपा में प्रतिद्वंदिता वाजपेयी और आडवाणी के बीच हुआ करती थी। अब वह आडवाणी और नरेद्र मोदी के बीच है। भारत की दक्षिणपंथी राजनीति ने इतनी प्रगति तो कर ही ली है।
भारत का पूंजीपति वर्ग बाहें फैलाए नरेंद्र मोदी को स्वीकार करने को तैयार है। नरेंद्र मोदी का अतिशय ढोंगभरा सद्भावना उपवास पूंजीपति वर्ग को नरेंद्र मोदी के नर-संहारक चरित्र से तालमेल बैठाने का पर्याप्त बहाना पेश कर देता है। पूंजीपति वर्ग को गुजरात का माडल पूरे देश में चाहिए। इसके साथ 2002 के गुजरात नरसंहार का छोटा या बड़ा संस्करण यदि पूरे देश में दोहराया जाता है तो भारत के पूंजीपति वर्ग को कोई परेशानी नहीं होगी। अपने मुनाफे व पूंजी की खातिर उसे यह स्वीकार है। यही नहीं, अपने पतन की इस अवस्था में वह इसे अंतिम विकल्प के तौर पर जरूरी भी समझता है।
भारत के मजदूर वर्ग के लिए यह स्पष्ट है कि कांग्रेस का नरम हिंदुत्व आज के भारतीय पूंजीवाद की गति का ही परिणाम है। बिना भारतीय पूंजीवाद की गति को चुनौती दिए हुए इस नरम या उग्र हिंदुत्व को चुनौती नहीं दी जा सकती ।
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