Saturday, October 1, 2011

इतिहास पुकार रहा है !

        2011 का साल वैश्विक पैमाने पर विद्रोहों और विरोध प्रदर्शनों का साल रहा है। इसमें सबसे पहले ट्यूनीशिया में विद्रोह फूटा। उसके बाद मिश्र में। और फिर तो समूचा अरब जगत जन विद्रोहों की लपेट में आ गया। भांति-भांति की सफलताओं-असफलताओं से गुजरते हुए ये विद्रोह अभी थमे नहीं है।
       फरवरी में अमेरिका विंसकोसिन प्रान्त में मजदूरों का एक बड़े पैमाने का विरोध प्रदर्शन उठ खड़ा हुआ और राजधानी मैडिसन में विधान सभा भवन पर प्रदर्शनकारियों ने करीब तीन सप्ताह तक कब्जा जमाये रखा। यह कब्जा खत्म हो जाने के बाद भी विरोध प्रदर्शन जारी है और अब तक 2 रिपब्लिकन सीनेटर वापस बुलाए जा चुके हैं।

      मई में स्पेन ओर ग्रीस में M15 नाम का आंदोलन फूट पड़ा जब युवाओं और मजदूरों ने राजधानी सहित कई शहरों में चौक पर डेरा डाल दिया। इसे उन्होंने यूरोपीय क्रांति की शुरुआत माना। मई-जून में इन दोनों देशों के साथ समस्त यूरोप  में विरोध प्रदर्शन आयोजित हुए जिसमें ब्रिटेन और फ्रांस प्रमुख हैं।
जून से ही चिली में छात्रों का विरोध प्रदर्शन शुरु हो गया जिसने जुलाई-अगस्त में व्यापक रूप ले लिया। लाखों छात्र शिक्षा के निजीकरण और बाजारीकरण के खिलाफ सड़कों पर उतर आये और उनके साथ उनके माता-पिता भी।
       इसके बाद नंबर आया इस्राइल का जब जुलाई में तहरीर चौक की तर्ज पर वहां तम्बू गाड़ने का अभियान शुरु हुआ। ज्यादा से ज्यादा लोगों को समेटता हुआ यह 3 सितंबर को चरम पर पहुंचा  जब 77 लाख की आबादी वाले इस्राइल में करीब पांच लाख लोग निजिकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों के खिलाफ सड़क पर उतर आये। यूरोप के ‘असली जनतंत्र’ की तर्ज पर वे ‘सामाजिक न्याय’ की मांग कर रहे थे। दोनों का ही निशाना आज का उदारीकृत पूंजीवाद है।
     इनके अलावा दक्षिण कोरिया,चीन से जेकर दक्षिण अफ्रीका और पूर्वी यूरोप तक लोग सड़कों पर हैं। यही नही, भारत में भी लाखों लोग अन्ना हजारे एण्ड कम्पनी के भ्रष्टाचार खत्म करने के आहवान पर सड़का पर उतर आये।
     उपरोक्त सब इस बात के संकेत हैं कि दुनिया एक नये उथल-पुथल के मुहाने पर खड़ी है। आने वाले दिन अतीव संभावनाओं और चुनौतियों के दिन होंगे। मजदूर क्रांतिकारियों  को इसके लिए सचेत तैयारी की जरूरत है।
         इन विद्रोहों और विरोध प्रदर्शनों के तात्कालिक और दीर्घकालिक कारण हैं। तात्कालिक कारण तो वर्तमान आर्थिक संकट है जिसकी शुरुआत जुलाई 2007 में हुई थी और जो थोड़ा हल्का पड़ने के बाद अब फिर तेजी से गहरा रहा है। इसने पहले से ही तबाहहाल मजदूर वर्ग ओर मेहनतकश जनता की कमर तोड़ दी। इसके चलते कई करोड़ लोग बेरोजगार हो गये तथा बीसियों करोड़ और लोग भुखमरी की रेखा के नीचे चले गये। इस पर कोढ़ का खाज यह कि पूंजीपति वर्ग अब और ज्यादा आक्रामक होते हए संकट का सारा बोझ मजदूर वर्ग और गरीब जनता पर डालना चाहता है। यही चीज सभी देशों पर ऊंट की पीठ पर आखिरी तिनका साबित हो रही है। लोगों के सब्र का बांध टूट रहा है और लोग सड़कों पर उतर रहे हैं।
     इन विद्रोहों और विरोध प्रदर्शनों के पीछे के दीर्घकालिक कारणों की चर्चा करें तो ये पिछले तीन दशक से चली आ रही निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों के खिलाफ तीव्र आक्रोश का परिणाम है। इसीलिए कुछ लोगों ने इन्हें नव उदारवाद के खिलाफ वैश्विक विद्रोह कहा है।
पिछले तीन दशकों में पूंजीपति वर्ग ने उसके पाले के तथाकथित कल्याणकारी राज को समाप्त कर अपनी खुली और बेलगाम लूट का निजाम कायम किया था। वैश्विक पैमाने पर पूंजीवद को एकीकृत करते हुए पूंजी को छूट दी गई थी कि वह हर तरीके से मजदूर वर्ग और छोटी सम्पत्ति वालों को लूटे। इसके चलते वैश्विक पैमाने पर ही मजदूर वर्ग और छोटी सम्पत्ति वाली मेहनतकश जनता की हालत खस्ता हुयी जो वर्तमान आर्थिक संकट में असहनीय स्तर तक जा पहुंची। पिछले तीन दशकों में इनके खिलाफ संघर्षरत मजदूर लगातार पीछे हटते रहे। लेकिन अब पीछे हटने की सीमा समाप्त हो गयी है। अब वह स्थिति आ पंहुची है कि केवल हमला ही एकमात्र रास्ता है।
      निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की तीन दशक की नीतियों और उन्हीं के कारण आये वर्तमान गंभीर आर्थिक संकट के कारण फूट रहा वर्तमान विद्रोह इसीलिए अपना निशाना इन नीतियों को बना रहा है। चिली,इस्राइल,यूरोप सभी जगह उदारीकृत पूंजीवाद पर लगाम लगाने की बात हो रही है। अरब विद्रोहों की पृष्ठभूमि में भी यही था (अरब विद्रोहों की शुरुआत मुहम्मद बौजीजी नामक एक बेरोजगार नौजवान के आत्मदाह से हुयी थी) और यहां तक कि अन्ना हजारे जैसे धूर्त लोगों और उपभोक्तावादी उच्च मध्यम वर्ग को छोड़ दे तो भारत में जो लोग भ्रष्टाचार समाप्त करने के लिए सड़कों पर उतरे थे वह भी मूलतः अचेत तौर पर इन्हीं नीतियों के खिलाफ आक्रोशित थे। ( 2-जी स्पेक्ट्रम  घोटाला भारत के उदारीकृत पूंजीवाद का नमूना है। )
       दुनिया भर के पूंजीवाद की वर्तमान स्थिति में आज यह स्वाभाविक है। आज का सड़ा-गला पतित पूंजीवाद हजारों तरीके से मजदूर-मेहनतकश जनता की जिन्दगी को नरक बना रहा है। यह घृणित-बर्बर पूंजीवाद भौतिक और आत्मिक तौर पर आज केवल मानवता के लिए अकथनीय कष्ट का कारण बना हुआ है। लेकिन तब भी जब इसके खिलाफ विद्रोह शुरु होगा तो वह पहले इसके सबसे बुरे पहलुओं के खिलाफ केन्द्रित होगा। इसीलिए वर्तमान विद्रोहों  और विरोध प्रदर्शनों में मुख्य मांगे उदारीकरण की नीतियों को पलटने तथा साम्राज्यवादियों द्वारा युद्ध के खातमें की हैं। ये मांगे अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण ‘कल्याणकारी’ पूंजीवाद की मांगे हैं।
       और यहीं पर इन विद्रोहों और विरोध-प्रदर्शनों की सीमाएं तथा साम्राज्यवादियों-पूंजीपतियों की चालें एक जगह मिलने लगती हैं। दित्तीय विश्व युद्ध के पहले और उसके बाद गठित तथाकथित कल्याणकारी राज्य ने पूंजीपति वर्ग की 1960 के दशक तक सेवा की। लेकिन इस दशक का अन्त होते-होते यह स्पष्ट होने लगा कि पूंजीपति वर्ग का मुनाफा गिर रहा है और संकट को जन्म दे रहा है। तब पूंजीपति वर्ग ने अपने मुनाफे को बढ़ाने की खातिर ‘कल्याणकारी राज्य’ पर हमला बोला और मजदूर वर्ग को निचोड़कर अपना मुनाफा बढ़ाया। 1970 के दशक तक का ‘कल्याणकारी राज्य’ भी पूंजीपति का था और पिछले तीन दशक का उदारीकृत पूंजीवाद भी पूंजीपति वर्ग का ही है। इसीलिए यदि इस उदारीकृत पूंजीवाद पर मजदूर वर्ग द्वारा वैश्विक हमला होता है तब पूंजीपति वर्ग एकबार फिर पीछे हटकर ‘कल्याणकारी राज्य’ तक आ सकता है। वस्तुतः 2008 के उत्तरार्ध में वर्तमान आर्थिक संकट के गंभीर हो जाने पर साम्राज्यवादी पूंजीपति वर्ग के भीतर से ही बातें उठने लगी थीं कि पिछले तीन दशक से चली आ रही नीतियां अब नहीं चलेंगी। फ्रांस के दक्षिणपंथी सरकोजी ‘एंग्लो-सैक्शन’ माडल के पुराने पड़ जाने की बात करने लगे थे तो इंगलैंड के ‘नये लेबर’ गार्डन ब्राउन वाशिंगटन कॅसेंसस के दिन पूरे हो जाने की। अमेरिका के दो नोबेल पुरस्कार विजेता जोसेफ स्टिगलिस और पाल क्रुगमैन तो अर्से से इसकी बात करते रहे हैं।
      इस तरह अपनी पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ गंभीर खतरा पैदा हो जाने की अवस्था में पूंजीपति वर्ग पीछे हटेगा और किसी हद तक ‘कल्याणकारी राज्य’ फिर कायम करते हुए विद्रोहों को थामने का प्रयास करेगा। द्वितीय विश्व युद्व के बाद का यूरेापीय माडल या आजकल का हयूगो चावेज का माडल उसके सामने है। वह इनकी कोई किस्म आजमा सकता है।
     वास्तव में चतुर-चालाक पूंजीपति वर्ग ने इसकी तैयारी भी कर ली है।  बीसवीं सदी में अपने सामने मौजूद क्रांतिकारी चुनौतियों का सामना करते हुए पूंजीपति वर्ग ने बहुत कुछ सीखा। और इस सीख का इस्तेमाल करते हुए उसने पिछले तीन दशक के उदारीकरण के दौर में अपने लिए एक सुरक्षा कवच भी तैयार किया है। वह सुरक्षा कवच इस समय उसके काम आ रहा है।
     यह गौरतलब है कि वर्तमान विद्रोहों और विरोध प्रदर्शनेां में गैर सरकारी संगठन यानी एन.जी.ओ. बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। मिश्र में जनवरी में जिस ‘अप्रैल 6 यूथ मूवमेंट’ ने सबसे पहले मुबारक के खिलाफ 25 जनवरी के विरोध प्रदर्शन का आहवान किया वह एक एन.जी.ओ. था। यह अप्रैल 2008 में मजदूरों के एक फैक्टरी आंदोलन के समर्थन में अस्तित्व में आया था। अप्रैल 2008 में इसके कुछ शोहरत हासिल कर लेने के बाद साम्राज्यवादियों ने इसे गोद ले लिया। इसके कर्ताधर्ता प्रशिक्षण के लिए सर्बिया भेजे गये जहां उन्होंने उन लोगों से प्रशिक्षण लिया जिन्होंने मिलोसेविक के खिलाफ विरोध प्रदर्शन आयोजित किया था। ये लोग अपनी बारी में स्वयं अमेरिकी साम्राज्यवादियों द्वारा प्रशिक्षित किये गये थे (नेशनल इन्डोवमेंट फॉर डेमोक्रेसी इत्यादि के द्वारा)। इसके बाद ‘अप्रैल 6 यूथ मूवमेंट' के लोगों को अमेरिका में प्रशिक्षण दिया गया। इस तरह जनवरी 2011 तक ये लोग अच्छी तरह से प्रशिक्षित लोग थे। इनके लिए और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के लिए दिक्कत की बात बस इतनी हुई कि इनके द्वारा शुरु किया गया आंदोलन मजदूरों के व्यापक प्रवेश के कारण जल्दी ही इनके हाथ से निकल गया।
      अभी इस्राइल में जो इतने बड़े पैमाने का विरोध प्रदर्शन हुआ उसमें भी आयोजक एन.जी.ओ. थे। और इनके तार भी अमेरिका से जुड़े हुए हैं। बस ये सामाजिक सुधारवादी किस्म के एन.जी.ओ. हैं-वामपंथ की ओर झुकाव वाले।
      वर्तमान विद्रोहों और विरोध प्रदर्शनों में इन गैर सरकारी संगठनों की यह भूमिका न तो अनायास है और न ही सांयोगिक। इसके ठीक उलट व पूंजीपति वर्ग द्वारा ठीक इसी चीज के लिए प्रशिक्षित किये गये हैं जिससे वे संकट के समय (वर्तमान संकट सरीखे संकट के समय) पूंजीपति वर्ग के लिए सुरक्षा पंक्ति का काम कर सकें। कुछ साल पहले जिस विश्व सामाजिक मंच का इतना शोर था वह वस्तुतः गैर सरकारी संगठनों का ही जमावड़ा था और उसे यूरोप के सुधारवादी साम्राज्यवादियों ने ब्राजील के लूला और उनकी वर्कर्स पार्टी के सहयोग से खड़ा किया था। विश्व सामाजिक मंच भी राजनीतिक पार्टियों से अलग,गैर राजनीतिक तरीके से,नाचते गाते हुए एक भिन्न दुनिया (वर्तमान उदारीकृत पूंजीवाद से भिन्न) के निर्माण की बात करता था।
     गैर सरकारी संगठन  उदारीकरण के दौर में पूंजीपति वर्ग द्वारा खड़ी की गयी संस्थाए हैं। आज ये समाज के पोर-पोर में पैठे हुए हैं। दुनिया भर में करीब 40 हजार गैर सरकारी संगठन हैं जो एक से ज्यादा देशों में काम करते हैं। भारत में कुल करीब 33 लाख गैर सरकारी संगठन हैं।
     उदरीकरण के दौर में इन्होंने ‘कल्याणकारी राज्य’ के पीछे हटने से खाली हुयी जगह को भरने का दिखावा किया था और कुछ राहत के कार्य संचालित किये थे। इनमें से कुछ ने सरकार की नीतियों को प्रभावित करने को अपना पेशा बनाया था। इन्हें सरकारी भाषा में एडवोकेसी ग्रुप कहा गया। आज ये ही आगे बढ़कर भांति-भांति के विरोध प्रदर्शन आयोजित कर रहे हैं। चूंकि ये गैर सरकारी संगठन पूंजीपति वर्ग और सरकारों द्वारा पोषित हैं इसीलिए इनके द्वारा आयोजित आंदोलनों की सीमाएं स्वतः ही तय हो जाती हैं।
       इतना ही नहीं अपने द्वारा आयोजित आंदोलनों को निर्धारित सीमाओं का अतिक्रमण करने से रोकने के लिए  सावधानी से तैयारी करते हैं। ये सावधानी से आंदलनों के लक्ष्य,नारे तथा तौर-तरीके तय करते हैं और फिर अपने पूरे नेटवर्क के द्वारा इसी के हिसाब से आंदोलन चलाते हैं। भारत के अन्ना हजारे एण्ड कम्पनी के भष्टाचार विरोधी आंदोलन से यह बहुत अच्छी तरह स्पष्ट है।
     अपने द्वारा आयोजित विरोध प्रदर्शनों को निर्धरित सीमाओं में कैद रखने के इनके दो प्रमुख हथियार हैं: आंदोलन को गैर-राजनीतिक स्वरूप प्रदान करना तथा उसे अहिंसक रखना। आंदोलन को गैर-राजनीतिक स्वरूप प्रदान करने के लिए आम तौर पर राजनीतिक पार्टियों और नेताओं के प्रति मौजूदा घृणा को उभारा जाता है तथा कुछ यह भाव पैदा किया जाता है कि आंदोलन के राजनीतिक होने से बेड़ा गर्क हो जायगा। इसी तरह हिंसा-अहिंसा के सवाल को नैतिक सवाल के तौर पर पेश किया जाता है तथा शासक वर्ग के वर्तमान हिंसक चरित्र के प्रति वाजिब नफरत को अहिंसा की नीति के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
      इन दोनों सीमाओं में कैद हाने पर कोई भी आंदोलन स्वतः ही शासक वर्ग द्वारा निर्धारित सीमाओं में कैद हो जाता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि कि शासक वर्ग खुद इन सीमाओं को कभी नहीं मानता। मिश्र व ट्यूनीशिया के जन विद्रोहों को तात्कालिक सफलता के बाद साम्राज्यवादियों ने कुछ दिनों तक अहिंसक आंदलनों के खूब गुण गाये। (हांलाकि इन दोनों विद्रोहों में शासकों द्वारा की गयी हिंसा में हजारो लोग शहीद हुए थे)। लेकिन जब लीबिया,यमन और बहरीन का मामला आया तो साम्राज्यवादियों के अहिंसक आंदोलन की प्रशंसा के गीत बंद हो गये। बहरीन के विद्रोह को साम्राज्यवादियों के खुले समर्थन से सऊदी बहरीनी शासकों ने टैंको व तोपों से कुचल दिया। यमन में सालेह द्वारा विद्रोहियों के कत्ल को साम्राज्यवादियों ने समर्थन प्रदान किया। लीबिया में तो वे खुद ही हथियारांे के बल पर गद्दाफी का तख्ता पलट करने चल दिये। हजारों लोगों का कत्ल करके वे लीबिया पर कब्जा जमा चुके हैं।
     पूंजीपति वर्ग यह अच्छी तरह जानता है कि जब तक विरोध प्रदर्शन अराजनीतिक रहेगा और अहिंसा की सीमाओं में कैद रहेगा तब तक कोई वास्तविक बदलाव संभव नहीं है। इसीलिए अपने द्वारा पोषित गैर सरकारी संगठनों द्वारा आंदलनों को आयोजित करवाने तथा इस तरह अक्रोश को क्षरित करने में उसका  बहुत बड़ा हित है।
लेकिन जैसा कि पहले कहा गया है अराजनीतिक रुख और अहिंसा की चाहत की एक भौतिक जमीन मौजूद है। खासकर उदारीकरण के दौर में पूंजीवादी राजनीतिक पार्टियों ने अपने मुंह पर बेइंतहा कालिख पोती है। इनमें धुर दक्षिणपंथी से लेकर अपने को वामपंथी कहने वाली सारी पार्टियां शामिल हैं। इन्होंने मजदूर वर्ग के और ज्यादा शोषण के लिए पूंजीपति वर्ग की नीतियों को आगे बढ़ाया है। इन नीतियों के मामले में इनमें कोई मूलभूत मतभेद नहीं है। ऐसे में इनकी सारी राजनीति मजदूर वर्ग को बेवकूफ बनाने वाली स्टंटबाजी बन कर रह जाती है जो अपने प्रति नफरत को जन्म देती है। इसके साथ इनका व्यक्तिगत भ्रष्टाचार कोड़ में खाज का काम करता है। पूंजीवादी राजनीतिक पार्टियों का यह व्यवहार राजनीति मात्र से ही किनाराकशी का माहौल पैदा करता है जिसे पूंजीपति वर्ग सचेत तौर पर प्रोत्साहित करता है क्योंकि यह गैर राजनीतिक माहौल उसके शोषण व राजनीतिक सत्ता के बने रहने के लिए बहुत फायदेमंद है।
        इसी तरह शासक वर्गो की भांति-भांति की हिंसा स्वभवतः ही इसके प्रति वितृष्णा को पैदा करती है। अहिंसा के प्रति आकर्षण वास्तव में वर्गीय समाज में निहित हिंसा का नकार है। हिंसा के प्रति इसी नकारात्मक रुख का शासक वर्ग अपने हिंसात्मक शासन को बनाये रखने के लिए इस्तेमाल करता है। अपने सालाना उत्पादन और सरकारी खर्च का एक बड़ा हिस्सा हिंसा की पूरी मशीनरी पर खर्च करने वाले साम्राज्यवादी-पूंजीवादी शासकों द्वारा अहिंसा का उपदेश वास्तव में अत्यनत जुगुप्सा पैदा करने वाला है।
      आज संकटग्रस्त शासक पूंजीपति वर्ग इपने खिलाफ उठ खड़े हो रहे विद्रोहों को इसी तरह समायोजित और नियंत्रित करने का प्रयास कर रहा है। लेकिन इसके प्रयासों की सीमाएं है। जैसा कि मिश्र व ट्यूनीशिया के जन विद्रोह दिखाते हैं,मजदूर वर्ग को इनमें बड़े पैमाने पर प्रवेश इन सीमाओं को छिन्न-भिन्न कर देता है।
     लेकिन तब भी मजदूर वर्ग के क्रांतिकारियों के लिए यह बड़ा कार्यभार बना ही रहता है कि वे विद्रोहों को बड़ा करने,आगे बढ़ाने तथा उन्हें मजदूर राज की स्थापना तक आगे बढ़ाने के लिए न केवल मजदूरों की पार्टी का निर्माण करें बल्कि मजदूर वर्ग को पूंजीपति वर्ग द्वारा फैलाये गये इस मकड़जाल से बाहर खींच लायें। बिना मजदूर वर्ग के व्यापक संगठनों तथा उनके बीच क्रांतिकारी राजनीति के प्रचार के यह संभव नहीं है। इसमें स्वतः स्फूर्त ढंग से उठ रहे आंदोलनों या पूंजीपति वर्ग की दूसरी सुरक्षा पंक्ति द्वारा खड़े किये जा रहे आंदलनों में सक्रिय और कारगर हस्तक्षेप की भी महती भूमिका होगी।
     अब जबकि दशकों से बनी हुयी स्थितियां बदल रही हों, जब पुरानी चीजें टूट रही हों तथा नये की आहट सुनायी पड़ रही हो तो मजदूर वर्ग के क्रांतिकारियों को अपनी हर तरह की जड़ता और सीमाओं को तोड़कर आगे आना होगा। इतिहास उन्हें पुकार रहा है।

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