12 सितंबर को सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले के बाद भाजपा के सबसे कट्टर सांप्रदायिक नेताओं में से एक नरेंद्र मोदी को अगला प्रधानमंत्री बनाने की कवायदें तेज हो गई हैं।
12 तारीख को सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला दिया कि 2002 के गुजरात दंगों में गुलबर्ग सोसाइटी मामले में, जिसमें पूर्व सांसद एहसान ज़ाफरी समेत पचासों लोगों को हिंदु दंगाइयों ने मार डाला था, नरेंद्र मोदी के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया जाए या नहीं इसका फैसला निचली अदालत करे।
इस फैसले को भाजपा ने तुरंत नरेंद्र मोदी की बेगुनाही के सबूत के तौर पर प्रचारित करना शुरु कर दिया और पूंजीवादी प्रचारतंत्र के एक हिससे ने नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवारी की बातें करनी शुरु कर दीं।
पूंजीपति वर्ग और पूंजीवादी प्रचारतंत्र के लिए पूंजीवादी विकास का गुजरात मॉडल एक अर्से से काफी लुभावना रहा है। आखिर टाटा को पश्चिम बंगाल के पलायन के बाद गुजरात में ही शरण मिली थी, और वह भी मुफ्त। नरेंद्र मोदी और उनकी भाजपा सरकार ने वहां उदारीकरण की नीतियों को धड़ल्ले से लागू किया है। इसका मजदूर वर्ग के लिए क्या मतलब है इसे वहां के औद्योगिक केंद्रों में देखा जा सकता है।
पूंजीवादी विकास के इस लुभावने मॉडल की ओर आकर्षित भारतीय और विदेशी पूंजीपति वर्ग के लिए बस एक ही परेशानी की बात है-2002 का नरसंहार जिसे मोदी और उनकी सरकार की मिली भगत से अंजाम दिया गया था। पूंजीपति वर्ग का एक हिस्सा इस तरह के नरसंहार से हिचकता है तो दूसरा हिस्सा इस भयंकर कत्लेआम की छवि वाली सरकार के साथ खुल कर आने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। इसीलिए यदि किसी तरह यह सब धूमिल हो सके, यदि नरेंद्र मोदी थोड़े नरम हो जाएं या वे बेगुनाह साबित हो जाएं तो कितना अच्छा हो। तब पूंजीपति वर्ग को मोदी को खुलेआम गले लगाने में दिक्कत नहीं होगी।
12 सितंबर को सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने इसी दिशा में इनका रास्ता आसान किया है। इसे यदि मोदी की बेगुनाही के तौर पर प्रचारित किया जाए तो आधा रास्ता साफ हो जाता है। बाकी का आधा रास्ता साफ करने के लिए मोदी तीन दिन का उपवास रख रहे हैं- सामाजिक सद्भावना हेतू। गुजरात नरसंहार का सूत्रधार अब सामाजिक सद्भावना के लिए उपवास कर रहा है। नरेंद्र मोदी को गले लगाने के लिए लालायित पूंजीपति वर्ग को यह पर्याप्त बहाना प्रदान कर देता है।
लेकिन नरेंद्र मोदी को पूंजीपति वर्ग के इस समर्थन के बावजूद उनके रास्ते में सबसे बड़ी बाधा स्वयं उनकी पार्टी के लोग हैं। भाजपा में प्रधानमंत्री पद के कई दावेदार हैं और उनमें से कई भाजपा के सहयोगी दलों, राजग के अन्य धड़ों, को ज्यादा स्वीकार्य होगें। सबसे बड़े दावेदार तो कब्र में पांव लटकाए आडवाणी ही हैं जो इस समय पूरी बेशर्मी के साथ भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान के लिए एक नए रथ पर सवार हो रहे हैं।
जो भी हो, बदले हुए रूप मे हिंदु सांप्रदायिकों के एक बार फिर हावी होने का पूर्वाधार तैयरा किया जा रहा है। इसमें पूंजीपति वर्ग और उसके प्रचारतंत्र का सहयोग महत्वपूर्ण है। यही लोग अन्ना हजारे आंदोलन के भी सूत्रधार थे। कोई आश्चर्य नहीं कि भाजपा अध्यक्ष गडकरी ने यह बयान दिया था कि भाजपा उनके नेतृत्व में पीछे चलने को तैयार है।
मजदूर वर्ग को आने वाले खतरे को अभी से पहचानने की जरूरत है!
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