Monday, September 5, 2011

इस्राइल में आह्लादकारी शुरुआत

         3 सितम्बर को करीब 5 लाख लोगों ने, जिसमें मुख्यतः युवा और मजदूर थे, इस्राइल में ‘सामाजिक न्याय’ की मांग को लेकर प्रदर्शन किया। यह प्रदर्शन उन प्रदर्शनों की कड़ी में था जो जुलाई में शुरु हुए थे। तब से ही भारी मात्रा में युवा कई शहरों में सड़कों पर तम्बू लगाकर उसमें रह रहे हैं।
        यदि दक्षिणी यूरोप के प्रदर्शनों में ‘वास्तविक जनतंत्र’ नारा रहा है तो इस्राइल में यह नारा ‘सामाजिक न्याय’ है। वस्तुतः दोनों की मांगें एक ही है और दोनों का निशाना एक ही है-उदारीकरण की नीतियों का विरोध।
        इस्राइल में विरोध प्रदर्शन की शुरुआत तब हुई जब एक लड़की को मकान का बढ़ा हुआ किराया न चुकाने पर एक खराब मकान दे दिया गया। तब उसने उसमें जाने के बदले विरोध स्वरूप सड़क पर तम्बू लगा लिया। देखते ही देखते पूरे देश में सड़कों पर हजारों तम्बू लग गये। युवा लोगों की तनख्वाह का करीब आधा हिस्सा मकान के किराये में चला जाता है।

          इस्राइल के युवा जब ‘सामाजिक न्याय’ की मांग करते हैं तो उसका मतलब होता है सस्ता आवास, ज्यादा तनख्वाहें, गरीबी-अमीरी के बीच की खाई में  कमी, अमीरों पर नियंत्रण इत्यादि। यूरोप के प्रदर्शनकारियों की तरह इनका भी मानना है कि पूंजीवादी राजनीतिज्ञों ने अपने को मुट्ठीभर पूंजीपतियों के हाथों में बेच दिया है।   
         दुनिया की सभी अर्थव्यवस्थाओं की तरह इस्राइल की अर्थव्यवस्था पर भी कुछ हजार लोगों का कब्जा है।
कुल 72 लाख की आबादी में 5 लाख लोगों का सड़कों पर उतर आना निश्चय ही बहुत बड़ी बात है। खासकर ये देखते हुए कि इस्राइली शासकों ने लगातार युद्ध की मानसिकता बनाकर लोगों को अपने पीछे लामबंद करने का प्रयास किया है। 1948 में इस्राइल की स्थापना के समय से ही जारी शासकों की इस चाल को छिन्न-भिन्न कर उसके खिलाफ सड़कों पर उतर आना इस्राइल में अत्यन्त शानदार शुरुआत है। ये प्रदर्शन इस्राइली इतिहास के सबसे बड़े प्रदर्शन हैं।
          लेकिन इन प्रदर्शनों की अभी कुछ बड़ी सीमाएं हैं। प्रदर्शनकारी अभी केवल ‘सामाजिक न्याय’ की बात कर रहे हैं। राजनीतिक क्रांति अभी उनके एजेन्डे पर नहीं है। इसके बिना यह आन्दोलन न केवल उदारीकरण की नीतियों में कुछ परिवर्तन तक समिट कर रह जायेगा। बहुत होगा तो ‘कल्याणकारी राज्य’ की किसी हद तक वापसी हो जायेगी। जबकि जरूरत आज पूंजीवाद से ही आगे जाने की है।
        इसके साथ ही इस्राइल की राजनीति में सबसे बड़ा सवाल यानी फिलीस्तीन प्रदर्शनकारियों के एजेन्डे पर नहीं है। इस्राइली जनता को गुलाम बनाकर रखने के लिए फिलीस्तीन इस्राइली शासकों का सबसे बड़ा हथियार है। इस्राइली युवा और मजदूर वर्ग को यह बात आत्मसात करनी होगी कि दूसरे लोगों को गुलाम बनाने वाले लोग खुद स्वतंत्र नहीं रह सकते।
         इन प्रदर्शनों में शुरु में इस्राइली अरब लोगों की भागेदारी नहीं थी। बाद में यह बढ़ी है। इसी तरह फिलीस्तीन इलाकों में भी इसे किसी हद तक समर्थन मिलना शुरु हुआ है। अरब विद्रोहों से सीख लेने की बातें भी उत्साहवर्धक हैं।
कुल मिलाकर इस्राइल के युवा व मजदूरों ने शानदार शुरुआत की है। बस इसे ‘सामाजिक’ से राजनीतिक में बदलने और क्रांतिकारी चरित्र प्रदान करने की जरूरत है।

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