दिल्ली के रामलीला मैदान में दस दिन से चल रही अन्नालीला समाप्त हो गयी है। राम , रावण, विभीषण और बानरी सेना का भेष धारण किये हुए कुछ लोग अब वहां से रुखसत हो गये हैं। उन्हें देख कर मनोरंजन करने वाले और कुछ पुण्य कमाने वाली भीड़ भी अब वहां से चली गई है। इस अन्नालीला को आयोजित करने का बिल अब दुगने-तिगुने दाम पर ‘सिविल सोसाइटी’ वाले अपने आकाओं के सामने पेश करेंगे। अन्नालीला के अगले सीजन तक के लिए सभी अभिनेता अब आराम कर सकते हैं।
इस अन्नालीला से सबके बहुत फायदे हुए हैं। सरकार और पूंजीवादी पार्टियों-नेताओं को कोसने वाले पूंजीवादी प्रचार माध्यम 27-28 अगस्त को मेल-मिलाप की मुद्रा में थे। भारतीय जनतंत्र की तारीफ की जा रही थी। अचानक सबने पाया कि संसद में अच्छी और ऊंचे स्तर की बहस हो सकती है। आखिरकार पार्टियां और नेता इतने बुरे नहीं हैं। अन्त भला तो सब भला।
लेकिन अच्छे से अच्छे ढंग से आयोजित नाटक में भी रंग में भंग पड़ सकता है। 27 अगस्त को ऐसा ही लग रहा था जब ‘सिविल सोसाइटी’ वालों के सामने विकट स्थिति पैदा पैदा हो गई कि बिना किसी बहाने के अन्ना का अनशन कैसे तुड़वायें। अन्त में सरकार ने ही उन्हें रास्ता सुझाया कि वे संसद में नेता सदन यानी प्रणव मुखर्जी के ‘सेन्स ऑफ द हाउस’ वाले समापन बयान को ‘प्रस्ताव पारित हो गया’ का जामा पहना कर अपनी जीत घोषित कर दें। सरकार चुप ही नहीं रहेगी बल्कि प्रधानमंत्री की अन्ना को चिट्ठी के द्वारा इसे अनुमोदित भी करती नजर आयेगी। इन सबका कोई कानूनी महत्व नहीं होगा। एक कानून बनवाने के लिए यह सब ड्रामा करने वालों के लिए इस कानूनी पहलू पर चुप्पी साध लेना ही बेहतर होगा।
अन्त भला तो सब भला। देश जन लोकपाल बिल की शक्ल में एक और स्वेच्छाचारी कानून से बच गया जिसे राष्ट्रीय सेवक संघ, बाबाओं, गुरुओं और स्वयंभू ‘सिविल सोसाइटी’ वाले पूंजीपति वर्ग और उसके प्रचार तंत्र की मदद से थोपने का प्रयास कर रहे थे। हां, यह जरूर होगा कि संघ उपभोक्तावादी मध्यम वर्ग में से कुछ भर्तियां करने में कामयाब हो जायेेगा।
उदारीकृत पूंजीवाद की बेलगाम लूट-पाट के इस जमाने में भ्रष्टाचार को किसी भी तरह के कानून से समाप्त किया जा सकता है यह निहायत नादान लोग ही विश्वास कर सकते हैं। पूंजीपति तो अंतिम सांस तक इस पर विश्वास नहीं कर सकता। लेकिन जब लाखों-करोड़ों रुपये के घोटालों में सीधे उसके लोग ही फंस रहे हों और जेल में बंद हो रहे हों तो जरूरी हो जाता है कि इस तरह का विश्वास जोर-शोर से प्रचारित किया जाये। समस्त प्रचार तंत्र तो उसी का है और उसके उपभोक्ता मालों को भकोसने वाला मध्यम वर्ग तो निश्चित तौर पर इसे भकोस लेगा और मोमबत्ती लेकर इंडिया गेट पर जा खड़ा होगा।
मजदूर वर्ग के कान इस शोर-शराबे से पक गये थे। अब शोर थम जाने पर गम्भीर माहौल में भ्रष्टाचार और उससे कई गुना महत्वपूर्ण अन्य मसलों पर चर्चा की जा सकती है। उपभोक्तावादी मध्यम वर्ग को तथाकथित जीत के जश्न के खुमार में छोड़कर आइये इस ओर आगे बढ़ें।
इस अन्नालीला से सबके बहुत फायदे हुए हैं। सरकार और पूंजीवादी पार्टियों-नेताओं को कोसने वाले पूंजीवादी प्रचार माध्यम 27-28 अगस्त को मेल-मिलाप की मुद्रा में थे। भारतीय जनतंत्र की तारीफ की जा रही थी। अचानक सबने पाया कि संसद में अच्छी और ऊंचे स्तर की बहस हो सकती है। आखिरकार पार्टियां और नेता इतने बुरे नहीं हैं। अन्त भला तो सब भला।
लेकिन अच्छे से अच्छे ढंग से आयोजित नाटक में भी रंग में भंग पड़ सकता है। 27 अगस्त को ऐसा ही लग रहा था जब ‘सिविल सोसाइटी’ वालों के सामने विकट स्थिति पैदा पैदा हो गई कि बिना किसी बहाने के अन्ना का अनशन कैसे तुड़वायें। अन्त में सरकार ने ही उन्हें रास्ता सुझाया कि वे संसद में नेता सदन यानी प्रणव मुखर्जी के ‘सेन्स ऑफ द हाउस’ वाले समापन बयान को ‘प्रस्ताव पारित हो गया’ का जामा पहना कर अपनी जीत घोषित कर दें। सरकार चुप ही नहीं रहेगी बल्कि प्रधानमंत्री की अन्ना को चिट्ठी के द्वारा इसे अनुमोदित भी करती नजर आयेगी। इन सबका कोई कानूनी महत्व नहीं होगा। एक कानून बनवाने के लिए यह सब ड्रामा करने वालों के लिए इस कानूनी पहलू पर चुप्पी साध लेना ही बेहतर होगा।
अन्त भला तो सब भला। देश जन लोकपाल बिल की शक्ल में एक और स्वेच्छाचारी कानून से बच गया जिसे राष्ट्रीय सेवक संघ, बाबाओं, गुरुओं और स्वयंभू ‘सिविल सोसाइटी’ वाले पूंजीपति वर्ग और उसके प्रचार तंत्र की मदद से थोपने का प्रयास कर रहे थे। हां, यह जरूर होगा कि संघ उपभोक्तावादी मध्यम वर्ग में से कुछ भर्तियां करने में कामयाब हो जायेेगा।
उदारीकृत पूंजीवाद की बेलगाम लूट-पाट के इस जमाने में भ्रष्टाचार को किसी भी तरह के कानून से समाप्त किया जा सकता है यह निहायत नादान लोग ही विश्वास कर सकते हैं। पूंजीपति तो अंतिम सांस तक इस पर विश्वास नहीं कर सकता। लेकिन जब लाखों-करोड़ों रुपये के घोटालों में सीधे उसके लोग ही फंस रहे हों और जेल में बंद हो रहे हों तो जरूरी हो जाता है कि इस तरह का विश्वास जोर-शोर से प्रचारित किया जाये। समस्त प्रचार तंत्र तो उसी का है और उसके उपभोक्ता मालों को भकोसने वाला मध्यम वर्ग तो निश्चित तौर पर इसे भकोस लेगा और मोमबत्ती लेकर इंडिया गेट पर जा खड़ा होगा।
मजदूर वर्ग के कान इस शोर-शराबे से पक गये थे। अब शोर थम जाने पर गम्भीर माहौल में भ्रष्टाचार और उससे कई गुना महत्वपूर्ण अन्य मसलों पर चर्चा की जा सकती है। उपभोक्तावादी मध्यम वर्ग को तथाकथित जीत के जश्न के खुमार में छोड़कर आइये इस ओर आगे बढ़ें।
बेहतर...
ReplyDeleteCivil Society ke netaon ne socha bhagte bhoot ki langoti Shahi.
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