अगस्त के पहले हफ्ते ने वैश्विक अर्थव्यवस्था के आर्थिक संकट से उबरने के साम्राज्यवादी पूंजीपति वर्ग की खुशफहमी को तार-तार कर दिया। इसने अर्थव्यवस्था में हो रहे सुधार को समाप्त कर उन्हें फिर से गहरे रसातल की ओर जाने का संकेत दे दिया।
अगस्त के पहले सप्ताह में दुनिया भर के शेयर बाजार इस आशंका के तहत गिरते रहे कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था ‘फिर मंदी’ की ओर जा रही है। इसके दो साल पहले अमेरिकी शासकों ने घोषणा की थी कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था मंदी से बाहर आ चुकी है। हालांकि सारे संकेत गम्भीर बने हुए थे, खासकर बेरोजगारी की दर। अमेरिकी सरकार का कर्ज लगातार बढ़ता जा रहा था जिसने दो बार सरकार के सामने संकट खड़ा कर दिया।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपनी 2011 की रिपोर्ट में पहले ही कह रखा था कि एक बुरी सम्भावना यह है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में हो रहे सुधार रुक जाये हालांकि इसे अपेक्षाकत्रत कमजोर सम्भावना माना गया था। लेकिन यह स्पष्ट है कि वास्तव में यही सम्भावना ज्यादा मजबूत सम्भावना थी।
अमेरिकी अर्थव्यवस्था की यह गम्भीर स्थिति यूरो क्षेत्र और जापान की गम्भीर स्थिति के साथ मिलकर वास्तव में मामले को शोचनीय बना देती है। अभी कुछ हफ्ते पहले ही ग्रीस की सरकार को यूरोपीय संघ, यूरोपीय बैंक और अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा ‘बेलआउट’ किया गया था जिसकी शर्तों में यह निहित था कि भविष्य में ग्रीस सरकार निजी बैंकों के मामले में ‘डिफाल्ट’ करेगी। पुर्तगाल भी बेलआउट पर चल रहा है। अग स्पेन और इटली पर भी इसी संकट के गम्भीर बादल मंडरा रहे हैं। स्थिति वाकई बहुत गम्भीर है।
यहां यह गौरतलब है कि इस संकट की शुरुआत चारसाल पहले हुई थी, जुलाई-अगस्त 2007 में। इसने गम्भीर रूप धारण किया सितम्बर-अक्टूबर 2008 में, जब समूची विश्व वित्तीय व्यवस्था के ध्वस्त होने का ही खतरा पैदा हो गया। हालांकि साम्राज्यवादी पूंजीपतियों ने 2009 के उत्तरार्ध में घोंषणा कर दी कि संकट से उबरने की शुरुआत हो गई है पर वास्तव में यह खुशफहमी और प्रचारसे ज्यादा कुछ नहीं था।
1930 के दशक की महामंदी के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था में इतने लम्बे समय तक चलने वाला संकट नहीं आया था और न ही इतना तीखा। इसलिए यह संकट 2008 से लोगों को को 1930 के दशक की महामंदी की याद दिला रही है। वस्तुतः कुछ लोग लगातार यह कह रहे हैं कि वैश्विक अर्थव्यवस्था की वर्तमान स्थिति तो संकट का ट्रेलर मात्र है। वास्तविक संकट तो अभी आगे आने वाला है।
सच्चाई यही है कि 2007 में संकट को जन्म देने वाले तात्कालिक और दूरगामी कारक जस के तस हैं। ऐसे में इस बात की कोई उम्मीद नहीं है कि संकट समाप्त हो। इसके उलट इसके बने रहले और गहराने की ही सम्भावना ज्यादा है।
चार साल से चल रहे संकट ने पहले ही यूरोप और अमेरिका में बड़े पैमाने के आन्दोलनों को जन्म दिया है। अरब जगत तो जन विद्रोहों की गिरफ्त मे ही है। ऐसे में इस संकट के लम्बा खिंचने और गहराने से जहां एक ओर मजदूर वर्ग व अन्य मेहनतकश जनता की जिन्दगी और ज्यादा कष्टमय होगी, वहीं पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था के खिलाफ आन्दोलन व विद्रोह और बड़े पैमाने पर भड़केंगे। मजदूर वर्ग के सचेत तत्वों के आगे बढ़कर इनका नेतृत्व सम्भालना होगा।
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