यह हमारे देश के भ्रष्ट राजनीतिक और सांस्कृतिक माहौल का ही परिणाम है कि पैसा कमाने के लिए बनाई गई एक बंबइया फिल्म ‘आरक्षण’ को लेकर इतना बवाल खड़ा हो गया है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से लेकर दलित अस्मिता तक के सारे सवाल इस बंबइया फिल्म के सिलसिले में बहस में लाए जा रहे हैं।
एक समय था जब इन्हीं प्रकाश झा ने बिहार के गांवों के यथार्थ पर, और उसमें भी सवर्णों और और दलितों के संबंध पर एक अपेक्षाकृत यथार्थपरक और संवेदनशील फिल्म ‘दामुल’ बनाई थी। वह फिल्म भारत के नए सिनेमा या कला सिनेमा के दौर में बनी थी तथा ‘आक्रोश’ और ‘मृगया’ की श्रेणी और परम्परा में थी। हालांकि उसमें भी, कुल मिलाकर कोई क्रांतिकारी द्रष्टीकोण नहीं झलकता था पर तब भी स्वयं प्रकाश झा को भी अपनी उस फिल्म की याद नहीं होगी। जो अन्य भांति-भांति के लोग ‘आरक्षण’ फिल्म को लेकर इतना उद्देलित हैं, उन्हें भी उसकी याद नहीं होगी । प्रकाश झा उसके बाद बंबइया मनोंरंजक सिनेमा की तरफ उसी तरह मुड़ गए (मृत्युदंड, गंगाजल, अपहरण, और अब आरक्षण) जैसे वे पूंजीवादी राजनीति की तरफ मुड़ गए (लोक जनशक्ती पार्टी के चुनाव चिन्ह पर लोकसभा का चुनाव लड़ना)। यह एक ऐसे अपेक्षाकृत संवेदनशील फिल्मकार का भ्रष्ट व्यवसायीकरण था।
स्वयं आरक्षण के मुद्दे को ही यदि यथार्थपरक और संवेदनशील तरीके से उठाना होता तो प्रकाश झा एक बंबइया मनोंरंजक व्यवसायिक फिल्म नहीं बनाते। तब वे ‘दामुल’ सरीखी कोई फिल्म बनाते। लेकिन तब हमारे भ्रष्ट राजनीतिक और सांस्कृतिक माहौल में उस पर इस तरह की छिछली बहस नहीं होती ।
आरक्षण भारत की घृणित जाति व्यवस्था के समाधान का वह सुधारवादी नुस्खा है जिसे क्रांति से भयभीत भारत के पूंजीपति वर्ग ने अपनाया। इस पूंजीपति वर्ग में बहुमत सवर्णों का था लेकिन जिसमें उभरता दलित पूंजीपति वर्ग भी शामिल हो रहा था। इस सुधारवादी नुस्खे ने जाति व्यवस्था को ढीला करने में मदद पहुंचाई। दलितों और कुछ पिछड़ों में से कुछ के मध्यम वर्ग औरर कुछ के¨ पूंजीपति वर्ग में पहुंचाया। समाज में सवर्णों का वर्चस्व कमजोर हुआ।
ठीक इसी कारण सवर्णों ने आरक्षण का विरोध किया और आज भी वे भांति-भांति के तरीकों से उसका विरोध करते हैं। तर्क चाहे जो हों असल में उनका हित उन्हें इन तर्कों की ओर ले जाता है। अन्यथा तो वे इन तर्कों कों व्यवहार में स्वयं ही झुठला देते हैं।
आरक्षण जाति व्यवस्था के खात्मे का एक सुधारवादी कदम या जिसे भारत के पूंजीपति वर्ग ने अपनाया था, उस पूंजीपति वर्ग ने जो क्रांति से भयभीत था। और सारे ही सुधारवादी क़दमों की तरह इसकी भी पूंजीवादी समाज में दोहरी भूमिका है। एक ओर यह दलित व पिछड़ी जातियों को कुछ राहत प्रदान करता है, जाति व्यवस्था को ढीला करने और उसके खत्म होने ने की दिशा में बढ़ने में मदद करता है। दूसरी ओर वह पूंजीवादी व्यवस्था के आधार का विस्तार करता है, पूंजीपतियों के शासन को ¨ मजबूत बनाता है। स्पष्ट ही है कि आरक्षण का विरोध केवल सवर्ण मानसिकता के प्रतिक्रियावादी लोग ही कर सकते हैं। अन्यथा तो इस घृणित जाति व्यवस्था के खात्में का इच्छुक कोई भी व्यक्ति, चाहे वह सवर्ण ही क्यों हो, इसका समर्थन करेगा। लेकिन उतना ही स्पष्ट यह भी है कि पूंजीपति वर्ग के इस सुधारवादी कदम के वास्तविक चरित्र के उद्घाटित न करने से केवल भारत के पतित पूंजीपति वर्ग का ही फायदा होगा, उस पूंजीपति वर्ग कोक¨ जिसमें सवर्ण और दलित दोनों हैं।
लेकिन ‘आरक्षण’ फिल्म के संदर्भ में आरक्षण के बारे में ये बातें बेमानी हैं क्यों कि एक बंबइया मनोंरंजक व्यवसायिक फिल्म के सिलसिले में इस गंभीर चर्चा की कोई गुंजाइश नहीं है। लेकिन शायद यह भी है कि इस समय ‘आरक्षण’ फिल्म के सिलसिले में सक्रिय भांति-भांति के लोग जाति व्यवस्था और आरक्षण के सवाल पर कोई गंभीर बात करना भी नहीं चाहते। वह उनके वास्तविक हितों के खिलाफ जाती है। दलित बुद्धीजीवियों और पार्टियों के सवर्ण हिंदु फासीवादियों की तरह व्यवहार करना उनके फायदे में है तो प्रकाश जैसे राजनीतिक, व्यावसायिक फिल्मकार का इस तरह के विवाद को हवा देना। अन्यथा तो एक मनोंरंजक व्यावसायिक फिल्म सिनेमा हलों में आती और हिट होकर या पिट कर चली जाती।
पूंजीपति वर्ग के विभिन्न हिस्सों का यह हमेशा प्रयास रहता है कि वे मजदूर वर्ग को अपने मतलब के मुद्दों पर और उसमें भी अपने हितोंके दायरे में उलझाए रखें। ‘आरक्षण’ फिल्म के सिलसिले में भी यही हो रहा है। वर्ग सचेत मजदूरों को पूंजीपति वर्ग के विभिन्न हिस्सों द्वारा फैलाए गए इस जाल के छिन्न-भिन्न कर देना चाहिए और समाज में अपना मुद्दा, अपने तरीके से पेश करना चाहिए। जाति के सवाल पर भी मजदूर वर्ग का मुद्दा है-जाति व्यवस्था का क्रांतिकारी समाधान क्या है उसका भारत की क्रांति से क्या संबंध है?
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