10 जुलाई को फतेहपुर में कालका मेल के भीषण हादसे के बाद, जिसमें सैकड़ों लोगों की जाने गईं, पूंजीवादी प्रचार माध्यम कुछ इस प्रकार की बात प्रचारित करने में लगे हुए हैं कि रेल दुर्घटनाओं में वृद्धि का कारण एक पूर्णकालिक और प्रतिबद्ध रेल मंत्री का न होना है। चूंकि ममता बनर्जी और उसके पहले लालू प्रसाद यादव की पहली प्राथमिकता अपनी पार्टी और अपना प्रदेश था इसलिए रेल विभाग उपेक्षा और लापरवाही का शिकार हुआ। इस सबका परिणाम दुर्घटनाओं में आ रहा है।
इस तरह की बातें प्रचारित करके रेलवे की वास्तविक समस्याओं और रेलवे के संबंध में सरकार की नीतियों को चालाकी से छिपा लिया जा रहा है। सच्चाई यह है कि सरकार की नीति के तहत रेलवे को नजरअंदाज कर सड़क परिवहन को बढ़ावा दे रही है। यातायात में अवरचना के विकास का सरकार का यही मतलब है। स्वर्ण चतुर्भुज योजना से लेकर एक्सप्रेस वे इत्यादि में इसीलिए लाखों करोड़ रुपए झोंके जा रहे हैं। यह यातायात का अमेरिकी मॉडल है और भारत सरकार आज हर अमेरिकी चीज की नकल कर रही है।
रेलवे पर भी जब सरकार ध्यान देती है तो केवल उसका निजीकरण करने के लिए। परिधिगत सेवाओं का निजीकरण करने के बाद अब सरकार कोर सेवाओं और कार्यों का भी निजीकरण करने की ओर बढ़ रही है। इन सबका परिणाम इनकी गुणवत्ता में कमी और बढ़ते दाम में हो रहा है।
रेलवे के विस्तार और नवीकरण की ओर सरकार का ध्यान एकदम नहीं के बराबर है। रेलों की लम्बाई अंग्रेजों के जाने के बाद नाम मात्र की ही बढ़ी है। बस इतना हुआ है कि सभी ट्रैक को ब्रॉडगेज में रुपांतरित कर दिया गया है जिससे पूंजीपतियों के समान वैगन बिना रोक-टोक के एक जगह से दूसरी जगह जा सकें। उन्हीं ट्रैक पर गाड़ियों की संख्या बढ़ाई जा रही है जिनकी रेल जर्जर है और पुल और पुलिया तो बाबा आदम के जमाने के हैं। वे कभी भी टूट सकते हैं। साथ में यह कि सरकार रेलवे में भर्ती नहीं कर रही है। 1991 में 16 लाख कर्मचारियों वाली रेलवे को अंततः पांच लाख कर्मचारियों वाली रेलवे में रुपांतरित करने का सरकार का इरादा है। ढेरों महत्वपूर्ण कार्यों के लिए कर्मचारी नहीं हैं।
ऐसे में क्या आश्चर्यजनक नहीं है कि इतनी कम दुर्घटनाएं हो रही हैं? इन दुर्घटनाओं की सीधी जिम्मेदारी पूंजीपति वर्ग और उसकी सरकार की है, मंत्री के तौर पर नहीं, अपराधिक नीति के तौर पर।
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