पश्चिम बंगाल में नकली वामपंथियों ने अब अपनी हेकड़ी का परिणाम भुगत लिया है। अब उनसे ज्यादा हेकड़ीबाज ममता बनर्जी और उऩकी तृणमूल कांग्रेस सत्ता में आ गयी है। नकली वामपंथी कह रहे हैं कि चुनाव परिणाम उनके लिए अप्रत्याशित हैं और वे इनका विश्लेषण करेंगे। लेकिन वास्तव में इनमें अप्रत्याशित कुछ भी नहीं है। इन चुनाव परिणामों को पहले से ही देख लेने के लिए बस थोड़ी हेकड़ी कम करनी थी।
जब 2006 चुनाव में नकली वामपंथी भारी बहुमत से जीते थे तभी यह स्पष्ट हो गया था कि अगले चुनावों में उन्हें मुंह की खानी पड़ेगी। उन्हें पिछले चुनावों में उन वर्गों का समर्थन हासिल हुआ था जो उदारीकरण की नीतियों के उत्साही समर्थक हैं। देश के पूंजीपतियों ने उन्हें हाथों-हाथ लिया था। इनके मुकाबले मजदूर किसानों ने इनसे दूरी बनाई थी। वैसे यदि तभी कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस मिलकर चुनाव लड़ते, जैसे उन्होंने इस बार किया, तो नकली वामपंथियों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता।
पिछले चुनाव की जीत के बाद नकली वामपंथियों ने सारी बाधाएं तोड़ दीं। वे धड़ल्ले से देशी-विदेशी पूंजीपतियों की सेवा में प्रस्तुत हो गए। उन्होंने मान लिया था कि वे मजदूरों-किसानों के साथ कुछ भी कर सकते हैं। उनकी इस सोच का परिणाम था नंदीग्राम और सिंगूर।
नकली वामपंथियों की इन मजदूर-किसान विरोधी नीतियों और हेकड़ी का फायदा उठाया लंपट गुण्डों की फौज की नेता ममता बनर्जी ने। कांग्रेस पार्टी में वह ताकत नहीं थी कि वह माकपा के सुगठित गुण्डा गिरोह का सामना करती। उसका सामना तो और भी ज्यादा लंपटई और गुण्डागर्दी से किया जा सकता था। ममता बनर्जी और उनकी तृणमूल कांग्रेस ने यही किया। उनके और माकपा कार्यकर्ताओं के बीच आये दिन टकराव होने लगा। नकली वामपंथियों से हैरान परेशान और उनके सताए हुए मजदूर-किसान किसी क्रांतिकारी विकल्प की अनुपस्थिति में इस लम्पट गुण्डा गिरोह की ओर चले गए। चुनावों के नतीजों का यही मतलब है।
अप्रत्याशित बात यह नहीं है कि इन चुनावों में नकली वामपंथी हार गए। अप्रत्य़ाशित तो यह है कि वे लगातार पूंजीपतियों की सेवा करते हुए मजदूर किसानों के नाम पर चुनाव जीतते जा रहे थे।
इन नकली वामपंथियों ने जमाने पहले,करीब आधी सदी पहले ही क्रांति से तौबा कर ली थी। उन्होंने मजदूरों-किसानों के असली हितों को छोड़कर पूंजीपति वर्ग की सेवा करना स्वीकार कर लिया था। अब केवल भाजपा जैसे सांप्रदायिक ही इन्हें मार्क्सवादी मान सकते हैं।
क्रांति और मजदूरों के राज की बात को छोड़कर उन्होंने पूंजीवादी व्यवस्था में सुधार का रास्ता पकड़ा। भारत के पूंजीपति वर्ग ने इन्हें इसके लिए मौका भी दिया। 1977 से चली आ रही इनकी सरकार को केंद्र ने कभी बर्खास्त नहीं किया हालांकि इस बीच कितनी ही प्रादेशिक सरकारें विपक्ष की होने के चलते केंद्र द्वारा बर्खास्त की गईं।
पश्चिम बंगाल में सत्ता में आने पर इन्होंने अपने सुधारवादी चरित्र के अनुरूप कुछ कार्य किए। बटाईदारों की बेदखली को रोकने का बर्गादार सुधार इनका प्रमुख सुधार था। इससे कुछ समय के लिए गांवों में इनका आधार पुख्ता हुआ। लेकिन सत्ता में आने के कुछ समय बाद ही इन्होंने मजदूरों के लड़ाकू संघर्ष न केवल बंद कर दिए, बल्कि सीधे-सीधे प्रबंधकों की दलाली पर उतर आए।
गांवों में अपने आधार को पक्का करने के लिए इन्होंने पंचायती राज लागू किया जिसका मतलब था अपने लोगों को सत्ता के निचले पायदान पर सेट कर देना। शहरों में भी इन्होंने एजेन्टों का एक पूरा तंत्र खड़ा किया। सत्ता तंत्र में इस तरह हर जगह एजेंट सेट कर देने से इनका सत्ता में लंबे समय तक टिकना संभव हो गया। इस तंत्र की चुनौती दे पाना अपेक्षाकृत मुश्किल था।
लेकिन इस तंत्र से केवल थोड़े से लोगों को फायदा होना था। बाकी लोगों को तो इससे परेशानी ही होनी थी। और जब देश में पूंजीपति वर्ग ने उदारीकरण की राह पकड़ी और नकली वामपंथी भी उसी राह पर चल पड़े तो पानी सर से गुजरने लगा। लोग इस तंत्र से मुक्ति पाने को छटपटाने ल
गे और उन्होंने किसी क्रांतिकारी विकल्प के अभाव में लंपटों को ही चुन लिया। यह कहने की बात नहीं कि पश्चिम बंगाल के मजदूर वर्ग और छोटे-गरीब किसानों की तृणमूल कांग्रेस के लंपटों के तहत और भी बुरी गत होनी है। यही नहीं नकली वामपंथियों के इस हश्र से शह पाकर केंद्र की संप्रग सरकार अपनी कुछ हसरतों को और तेजी से आगे बढ़ाएगी। मजदूर वर्ग विरोधी कानून इसमें प्रमुख हैं। इनमें से कुछ तो पहले ही संसद में लंबित हैं।
गे और उन्होंने किसी क्रांतिकारी विकल्प के अभाव में लंपटों को ही चुन लिया। यह कहने की बात नहीं कि पश्चिम बंगाल के मजदूर वर्ग और छोटे-गरीब किसानों की तृणमूल कांग्रेस के लंपटों के तहत और भी बुरी गत होनी है। यही नहीं नकली वामपंथियों के इस हश्र से शह पाकर केंद्र की संप्रग सरकार अपनी कुछ हसरतों को और तेजी से आगे बढ़ाएगी। मजदूर वर्ग विरोधी कानून इसमें प्रमुख हैं। इनमें से कुछ तो पहले ही संसद में लंबित हैं।
लेकिन क्रांतिकारी ताकतों को इससे निराश या पस्तहिम्मत होने की जरूरत नहीं। बात इसकी ठीक उल्टी है। नकली वामपंथियों की इस पराजय का एक अच्छा परिणाम यह होगा कि इससे वास्तविक क्रांतिकारी ताकतों को आगे बढ़ने का मौका मिलेगा। क्रांतिकारी शक्तियों को अविलंब इस दिशा में आगे बढ़ना चाहिए।
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