7 मई को गौतमबुद्ध नगर के भट्टा पारसाल गांव में सरकार ने एक बार फिर वही किया जो किसानों की जमीनों के मामले में कई सालों से करती आ रही है। अंग्रेजों के जमाने में भूमि अधिग्रहण कानून (1894) के तहत सरकार सार्वजनिक हितों के नाम पर किसानों से जबर्दस्ती जमीन छीन कर पूंजीपतियों (उद्योगपतियों और बिल्डरों) को सौंप रही है और किसानों द्वारा विरोध किये जाने पर उन्हें गोलियों का निशाना बनाती है। भट्टा पारसाल में भी दो किसानों की मौत हो चुकी है और कई लोग गायब बताये जा रहे हैं। पुलिस ने कई गांवों में मार-पीट का आतंकी माहौल कायम कर रखा है।
भट्टा पारसाल में किसानों का कहना था कि दिल्ली से आगरा को जोड़ने वाले जिस एक्सप्रेस-वे के लिए सरकार द्वारा उनकी जमीन ली जा रही है उसके दोनों ओर बिल्डर अपना निर्माण कार्य कर जमीन को पचासों-सैकडों गुना दामों में बेचेंगे। सरकार किसानों से बहुत थोड़ी कीमत पर जमीन जबर्दस्ती लेकर बिल्डरों को सौंप रही है जो उस पर सैकडों गुना मुनाफा कमायेंगे। किसानों का कहना था कि इस मुनाफे का एक छोटा हिस्सा उन्हें भी दिया जाना चाहिए। उन्हें जमीन के अधिग्रहण के समय ज्यादा मुआवजा मिलना चाहिए तथा साथ ही बाद में जमीन की कीमत बढ़ने पर उन्हें भी उसमें से हिस्सा मिलने का प्रावधान होना चाहिए। लेकिन सरकार इसके लिए तैयार नहीं है। पूंजीपतियों के मुनाफे में कटौती के बदले वह किसानों को गोलियों से भूनना पसंद करती है।
यहां यह गौरतलब है कि ग्रेटर नौएडा (गौतमबुद्ध नगर) के किसान अपनी जमीन अधिग्रहित न किये जाने की बात नहीं कर रहे हैं। वे जमीन देने से इंकार नहीं कर रहे हैं। वे केवल अपनी जमीन का ज्यादा मुआवजा चाहते हैं। इस मामले में वे उन जगहों के किसानों से भिन्न हैं जहां किसान अपनी जमीन देना ही नहीं चाहते। दिल्ली और आस-पास के किसानों की मांग ज्यादा मुआवजे की ही है।
जमीन अधिग्रहण को लेकर सभी किसानों का एक रुख नहीं हो सकता। जहां बड़े किसान ज्यादा मुआवजा हासिल कर उससे किसी व्यवसाय में हाथ डालने की सोचते हैं वहीं छोटे और गरीब किसानों के सामने मसला स्वयं के जिन्दा रहने का होता है। उनकी छोटी सी जमीन का थोड़ा सा मुआवजा जीने लायक साधन मुहैया नहीं करा सकता। उन लोगों की हालत तो और भी बुरी होती है जो महज अपनी झोंपड़ी की जमीन के मालिक होते हैं। जमीन अधिग्रहण की प्रक्रिया में उन्हें तो बस उजड़कर कहीं जाना होता है।
इस वर्गीय विभाजन के अलावा संबंधित जगह पर पूंजीवादी विकास भी किसानों के भविष्य को तय करता है। जहां पूंजीवादी इलाके के किसान जमीन अधिग्रहण के बाद पूंजीवादी समाज के अलग-अलग हिस्सों में समायोजित होने की सोच सकते हैं वहीं आदिवासी इलाकों के किसान इसके लिए एकदम ही तैयार नहीं होते। पूंजीवादी समाज में उनके समाहित होने की प्रक्रिया बेहद कष्टप्रद होती है।
सरकार द्वारा जमीन अधिग्रहण और किसानों द्वारा ज्यादा मुआवजे की मांग को मजदूर वर्ग के दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए। बिल्डरों को जमीन सौंपे जाने के बाद जमीनों के दाम जब सैकडों गुना बढ़ जाते हैं तो यह बढ़त आसमान से नहीं टपकती। सारा का सारा मुनाफा मजदूर वर्ग ही पैदा करता है। ऐसे में यदि बिल्डर एक लगाकर दस या सौ कमा रहे हैं तो यह भी मजदूर वर्ग के शोषण से ही आ रहा है। बिल्डर असल में जमीन का अति बढ़ा हुआ किराया वसूल रहे हैं। जमीन का किराया भी मजदूर वर्ग ही पैदा करता है। वह भी मजदूरों के शोषण से आता है।
अब किसानों द्वारा ज्यादा मुआवजे का बस इतना सा मतलब है कि मजदूरों के शोषण से हासिल किये गये मुनाफे को जो बिल्डर हथिया रहे हैं उसमें से एक छोटा से हिस्सा उन्हें भी मिले। यह इसलिए कि वे जमीन के मालिक हैं और उनकी जमीन किसी खास जगह पर है। जमीन पर उनका अधिकार इस बढ़े हुए किराये या उसके पूंजीकृत दाम (जमीन की कीमत) की मांग की ओर ले जाता है। पूंजीवादी समाज के नियमों के हिसाब से उनकी मांग वाजिब है क्योंकि यदि किसी निश्चिति जगह पर होने की वजह से जमीन की कीमत बढ़ जा रही है तो उसका सारा लाभ जमीन के मूल मालिक यानी किसान के बदले केवल बिल्डर क्यों उठायें ? लेकिन सरकार अपने अधिकारों को उपयोग कर सारा लाभ बिल्डरों और अन्य शहरी पूंजीपतियों को सौंप रही है। यहां शहरी पूंजीपतियों और गांव के बड़े किसानों का अंतर्विरोध अभिव्यक्त होता है।
लेकिन जमीन के बढ़े हुए किराये और इस कारण उसकी बढ़ी हुई कीमत का कोई लाभ गांव में मजदूरों और गरीब किसानों को नहीं मिल सकता। वह इसलिए कि उनके पास या तो जमीन होती ही नहीं या नाम मात्र की होती है। इसी तरह छोटे किसानों को बहुत थोड़ा लाभ होता है जो उसकी जीविका के परम्परागत साधन से वंचित होने और अपने परिवेश से उजड़ने के मुकाबले कुछ नहीं होता। इस तरह गांव के मजदूर, गरीब किसान और यहां तक कि छोटे किसान भी ज्यादा मुआवजे के आंदोलन के समर्थक नहीं हो सकते । यदि पूंजीवादी लेने-देन के तहत ही मामले को हल किया जाना है तब भी इन लोगों को जमीन की जमीन की कीमत के अलावा भिन्न तरीकों से और भिन्न आधारों पर मुआवजा मिलना चाहिए।
आज भारत सहित दुनिया के ज्यादातर पिछड़े पूंजीवादी देशों में यही हो रहा है कि पूंजीपति और सरकारें किसानों को उनकी जमीनों से बेदखल कर रही हैं। वे बेदखली कर पूंजी का संचय कर रही हैं। वैसे पूंजीवाद ने अपनी पैदाइश से ही यही किया है। विकसित पूंजीवादी देशों में यह प्रक्रिया पहले ही पूरी हो चुकी है। पिछड़े पूंजीवादी देशों में यह इस समय धड़ल्ले से जारी है।
किसानों की इस बेदखली के खिलाफ संघर्ष में मजदूर वर्ग को किसानों का साथ देना चाहिए लेकिन साथ ही उन्हें यह बताना चाहिए कि पूंजीवादी समाज की यही गति है। पूंजीवाद में यही होगा। पूंजीवाद उन्हें उजाड़ कर ही रहेगा। इसलिए उजड़ते किसानों का असली संघर्ष पूंजीवाद के खिलाफ होना चाहिए। पूंजीवाद का यह खात्मा मजदूर वर्ग का एतिहासिक मिशन है। इस तरह उजड़ते किसानों को मजूदर वर्ग के इस मिशन में साथ आना चाहिए। स्वाभाविक है कि बड़े किसान इसमें शामिल नहीं होंगे। वे तो शहरी पूंजीपतियों से अंतर्विरोध के बावजूद उनके साथ ही जायेंगे।
किसानों की इस बेदखली के खिलाफ संघर्ष में मजदूर वर्ग को किसानों का साथ देना चाहिए लेकिन साथ ही उन्हें यह बताना चाहिए कि पूंजीवादी समाज की यही गति है। पूंजीवाद में यही होगा। पूंजीवाद उन्हें उजाड़ कर ही रहेगा। इसलिए उजड़ते किसानों का असली संघर्ष पूंजीवाद के खिलाफ होना चाहिए। पूंजीवाद का यह खात्मा मजदूर वर्ग का एतिहासिक मिशन है। इस तरह उजड़ते किसानों को मजूदर वर्ग के इस मिशन में साथ आना चाहिए। स्वाभाविक है कि बड़े किसान इसमें शामिल नहीं होंगे। वे तो शहरी पूंजीपतियों से अंतर्विरोध के बावजूद उनके साथ ही जायेंगे।
इस तरह जमीन अधिग्रहण के खिलाफ संघर्ष भी वर्गीय विभाजन के आधार पर ही चलता है। मजदूर वर्ग उसी के हिसाब से अपना रुख निर्धारित करता है। वह पूंजीवादी राजनीतिज्ञों के ‘किसान-किसान’ के फर्जी नारे और घड़ियाली आंसुओं के मुकाबले ऐलान करता है कि यह भी पूंजीवादी राज्य और समाज का मामला है और इसका भी समाधान पूंजीवाद के खात्मे में ही है।
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