पुट्टापार्थी के सत्य साईंबाबा, जो स्वयं को सिरडी के साईंबाबा का अवतार बताते थे और जिन्होंने भविष्यवाणी कर रखी थी कि वे 96 साल की उमर तक जिन्दा रहेंगे, 12 साल पहले ही अपनी पापी देह को छोड़ कर इस पापी दुनिया से विदा हो गये। वैसे तो यह एकमात्र तथ्य ही उनके भक्तों की उनमें आस्था तोड़ने के लिए पर्याप्त होना चाहिए था लेकिन जिस देश में अपने को नास्तिक बताने वाला एम.के. स्टालिन (करुणानिधि का सुख्यात सुपुत्र) भी बाबा का भक्त हो उस देश में ऐसी दस बातें भी आस्था नहीं तोड़ पाती।
सत्य साईंबाबा भारत के बाबाओं की फौज में भी चार कदम आगे बढ़े हुए थे। वे खुद का उन्नीसवीं सदी के प्रसिद्ध सूफी सन्त सिरडी के साईं बाबा का अवतार बताते थे। वे हवा से भभूत, मूर्तियां वगैरह पैदा कर अपने भक्तों को देते थे। वे भक्तों को मानसिक शांति ही न नहीं बल्कि अपने चमत्कारों से शारीरिक चिकित्सा भी प्रदान करते थे। भारत के कितने बाबा ये सब करने का दावा कर सकते हैं?
इसके बल पर बाबा ने खूब दौलत कमाई। भारत सरकार ने इन बाबाओं की संपत्ति बढ़ाने का पक्का इंतजाम कर रखा हैं। धार्मिक संस्थाओं की संपत्ति पर कर नहीं लगता और इनको दान देने वालों को करों में छूट मिलती है। इस सबका इस्तेमाल कर बाबा ने जो संपत्ति इकट्ठी की उसकी कीमत 40 हजार से लेकर डेढ़ लाख करोड़ रुपये आंकी जा रही है। संपत्ति इकट्ठी करने के मामले में सत्य साईंबाबा ने बाकी बाबाओं को मीलों पीछे छोड़ दिया। वे ऋगवैदिक कालीन याज्ञवल्क्य के योग्य शिष्य साबित हुये। याज्ञवल्क्य ने भी इस दुनिया को माया और ब्रह्म को एकमात्र सत्य बताते हुए उस जमाने में भारी भरकम संपत्ति इकट्ठा की थी। फर्क केवल इतना है कि याज्ञवल्क्य एक समय बाद वाणप्रस्थ आश्रम में चले गये और अपनी संपत्ति अपनी छोटी पत्नी कात्यायनी को सौंप गये जबकि सत्य साईं बाबा बृद्धावस्था में भी संपत्ति को अपनी मुट्ठी में रखे रहे और बिना किसी को सौंपे चले गये। अब इतनी बड़ी संपत्ति को लेकर जूतन पैजार मची हुयी है।
बाबा का इतना बड़ा साम्राज्य (196 देशों में काम करने वाली 40 हजार से डेढ़ लाख करोड़ रुपये की संपत्ति वाली 1200 से ज्यादा संस्थाएं) भारत के पूंजीपति वर्ग की भौतिक और आत्मिक स्थिति को ही दर्शाता है। भारत का पूंजीपति वर्ग आत्मिक तौर पर बेहद पतित और भ्रष्ट है। इसी कारण वह बेहद असुरक्षा बोध का शिकार है। उसे कोई भी धूर्त, फरेबी बहुत आसानी से अपने जाल में फंसा सकता है। इसीलिए भारत में बाबाओं की इतनी बड़ी फौज है। क्या तो व्यवसाई और क्या तो पूंजीवादी नेता, क्या तो अफसर और क्या तो खिलाड़ी, फिल्मी सितारे इत्यादि सब बाबाओं के चरणों में लोटते हैं। बाबा इनको आत्मिक शांति और सुरक्षा बोध प्रदान कर इनकी जेबों पर हाथ साफ करते हैं। बाबा पूंजीपतियों की आत्मिक जरूरत पूरी करते हैं तो पूंजीपति बाबाओं की भौंतिक जरूरत।
जब शासक पूंजीपति स्वयं इस स्थिति में हों तो वे मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनता को क्यों इस जहालत में नही धकेलेंगे? बल्कि यह उनके लिए इस कारण और जरूरी होता है कि इसके माध्यम से वे जनता को शासक वर्गों के खिलाफ विद्रोह से रोकते हैं। धर्मों और बाबाओं के माध्यम से वे जनता को बांटते हैं, उनको भुलावे में डालकर शोषण, अन्याय, अत्याचार को सहते रहने के लिए प्रेरित करते हैं। मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनता को इस जहालत के लिए दोषी ठहराना निहायत गलत है।
मजदूर वर्ग अपनी मजदूरी के अलावा जो अतिरिक्त पैदा करता है उसी का एक हिस्सा आत्मिक शांति का व्यवसाय करने वाले ये बाबा-साधू हड़प लेते हैं। इस तरह पूंजीपति जो बाबाओं को दान करते हैं वह उसी मुनाफे का एक हिस्सा भर है जो वे मजदूरों से हासिल करते हैं। जिस हद तक मजदूर भी इस आत्मिक शांति के लिए बाबाओं-साधुओं को पालते-पोषते हैं उस हद तक वे भी अपनी मेहनत का एक हिस्सा इन्हें सौंपते हैं। इस तरह मजदूरों की मेहनत के बल पर बाबाओं की यह जमात फलती-फूलती और ऐश करती है और मजदूरों को उपदेश देती है कि वे भौतिक सुख-सुविधाओं के पीछे न भागें। तभी उन्हें चैन मिलेगा।
मजदूरों मेहनतकशों की खराब होती जिन्दगी तथा बाबाओं की फौज और उनकी दौलत में अनुक्रमानुपाती संबंध होता है। पहला जितना ही बढ़ता है दूसरा भी उसी तेजी से बढ़ता है। इसी तरह मजदूरों और मेहनतकशों की चेतना व उनके क्रांतिकारी संघार्षों तथा बाबाओं की फौज और उनकी दौलत में ब्युत्क्रमानुपाती सबंध होता है। पहला जितना ही बढ़ता है, दूसरा उतना ही कम होता है। आज यदि बाबाओं के दिन बहुए हुए हैं तो इसलिए कि मजदूरों-मेहनतकशों की हालत बद से बदतर है, उनकी चेतना और उनके संघर्षों का स्तर बहुत नीचा है। बाबाओं के चंगुल से मजदूरों- मेहनतकशों को बाहर खीचने का एक ही तरीका है कि उनको क्रांतिकारी संघर्षों में खींचकर उनकी क्रांतिकारी चेतना उन्नत की जाय। बाबाओं-साधुओं का चैतरफा भंडाफोड़ और वैज्ञानिक विचारों का प्रचार इसका एक अहम हिस्सा है।
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