लीबिया पर साम्राज्यवादियों ने हमला कर दिया है। ज्यादा जुगुप्सित बात यह है कि यह उनहोंने उन्हें लीबिया में कर्नल मुम्मार गद्दाफी के खिलाफ हुए जन विद्रोह की रक्षा के नाम पर किया है। इसके लिए उनहोंने ने अरब देशों के समर्थन का भी बहाना बनाया है जिसमें ज्यादातर खाड़ी की शेखशाहियां हैं जो साम्राज्यवादियों के बल पर ही टिकी हुई हैं।
लीबिया पर साम्राज्यवादियों के इस हमले के कारण उनकी उम्मीदों के अनुरूप ही विभ्रमों का अंबार खड़ा होना स्वभाविक है। साम्राज्यवादी यह चाहते हैं कि अरब विद्रोह के बारे में, जिसका एक प्रमुख निशाना साम्राज्यवादी ही थे, उहापोह की स्थिति पैदा हो जाए। यदि साम्राज्यवादियों किसी जन विद्रोह के समर्थन की बात करते हुए उस देश पर हमला कर दें तो उहापोह पैदा हो ही जाएगा। यहां यह गौरतलब है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के चरित्र वाली फ्रांस की कम्युनिस्ट पार्टी पहले ही गद्दाफी को हटाने के लिए वहां सैनिक हस्तक्षेप करने की मांग कर रही थी। इसके ठीक विपरीत हमला हो जाने के बाद हरपाल बरार के नेतृत्व वाली ग्रेट ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी-लेनिनवाद) गद्दाफी की सरकार के रक्षा का नारा लगा रही है। एक विचित्र सा विकल्प पेश किया जा रहा है-गद्दाफी को हटाने के लिए लीबिया पर साम्राज्यवादी हमले का समर्थन या फिर लीबिया में साम्राज्यवादी हस्तक्षेप का विरोध करने के लिए गद्दाफी सरकार का समर्थन। एक और जन विद्रोह के साथ साम्राज्यवादी हस्तक्षेप का विरोध के साथ साम्राज्यवादी बड़े नजर आ रहे हैं तो दूसरी और राष्ट्रीय संप्रभुता के साथ गद्दाफी।
इस गुत्थी को सुलझाने के लिए आइए गद्दाफी और साम्राज्यवादियों के रिश्ते से शुरु करें।
सैनिक तख्तापलट के जरिए सत्ता में आए कर्नल मुम्मार गद्दाफी ने करीब तीन दशकों तक पश्चिमी साम्राज्यवादियों का कहना नहीं माना। उसके पास उस समय सोवियतों साम्राज्यवादियों का विकल्प मौजूद था तथा उसके सामने नासिर के राष्ट्रवाद का माडल भी था। इसे पूरा करने के लिए लीबिया में तेल का भंडार भी था।
तेल शताब्दी से साम्राज्यवादियों की जरूरत रहा है। वे तेल के हर स्रोत पर अपना कब्जा या प्रभाव चाहते रहे हैं। इसी के साथ ही अमेरिकी साम्राज्यवादियों और सोवियतों साम्राज्यवादियों के बीच प्रतिद्वंदिता भी 1970 और 80 के दशक में चरम पर थी। ऐसे में लीबिया को इस प्रतिद्वंदिता के भंवर में आना ही था। गद्दाफी ने इसका फायदा उठाया और अमेरिकी साम्राज्यवादियों से एक दूरी बनाई। उसने तेल के स्रोत का राष्ट्रीयकरण करके उससे प्राप्त आय से अपना तथाकथित समाजवाद कायम किया जो पूंजीवाद और कम्युनिज्म से भिन्न उसका तथाकथित तीसरा रास्ता था। यह 1970 के दशक के स¨वियत माडल की विकृत अनुकृति भर था।
गद्दाफी का यह व्यवहार अमेरिकी साम्राज्यवादियों को पंसद नहीं था। वे तेल के स्रोत के इस तरह अपने हाथ से निकल जाने से बेहद नाखुश थे। सोवियत साम्राज्यवादियों के आक्रामक दौर में तो वे इसे किसी तरह सह रहे थे लेकिन जब 1980 के दशक में मोबार्योव मोर्बायोव के नेतृत्व में स¨वियत साम्राज्यवादियों ने तेजी से पीछे हटना शुरु किया त¨ अमेरिकी साम्राज्यवादी निद्र्वन्द हो गए। उनहोंने उन्होंने गद्दाफी पर दबाव बढ़ाना शुरु कर दिया। 1986 में तो अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने त्रिपोली पर बम भी गिराए। इराक, इरान, उत्तरी कोरिया के साथ लीबिया भी शैतान राष्ट्रों की धुरी में था जो आतंकवाद का समर्थन करता था और जिसमें सत्ता परिवर्तन जरूरी था।
लेकिन पश्चिमी साम्राज्यवादियों के सामने समपर्ण के बावजूद गद्दाफी खाड़ी के शेखों की तरह रीढ़ विहीन नहीं हुआ था। वह बीच-बीच में साम्राज्यवादियों को कुछ कटु लगने वाली बातें कह देता था। उदारीकरण की नीतियों को लागू करने के बावजूद लीबिया में साम्राज्यवादियों, खासकर अमेरिकी साम्राज्यवादियों की लगातार आकांक्षा थी कि वे गद्दाफी के बदले कोइ ज्यादा वफादार शासक वहां स्थापित करें। अरब के जन विद्रोह की आंधी जब लीबिया में भी चली तो साम्राज्यवादियों ने इसका फायदा उठाने की सोची।
सकते।
लेंगे।
यहां यह महत्वपूर्ण है कि लीबिया पर हमले से पहले अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने ट्यूनीशिया और मिश्र दोनों देशों की सरकारों से बात कर ली थी। ये दोनों देश लीबिया के पश्चिम और पूरब में पड़ते हैं और लीबिया पर हमले में इनकी भूमिका बनती है। इन दोनों ही देशों की सरकारें जन विद्रोहों से बदली हैं लेकिन वे पूर्णतया साम्राज्यवाद परस्त हैं। उन्हें भय बस विद्रही जनता का है जो अभी भी सड़कों पर है। इसीलिए वे खुलेआम लीबिया पर हमले में साम्राज्यवादियों का साथ नहीं देंगी पर छिपे-छिपे वे जन विद्रोह को भी पूर्णतया कुचलने का प्रयास करेंगे। यदि वे लीबिया और बहरीन, यमन इत्यादि में कामयाब हो जाते हैं तो अंतिम निशाना वे फिर मिश्र और ट्यूनिशिया को बनाएंगे जहां से अरब जन विद्रोह की शुरुआत हुई थी।
लीबिया पर साम्राज्यवादियों के हमले का एक अन्य पहलू साम्राज्यवादियों के आपसी अंतर्विरोधों और उनकी घरेलू राजनीति है। लीबिया पर हमले में फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों ने सबसे पहले पहलकदमी ली है। फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों ने ही सबसे पहले विपक्ष की परिषद को मान्यता दी हालांकि, इस परिषद ने अपने को लीबिया की सरकार भी नहीं घोषित किया था। फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों की इस पहलकदमी की वजह लीबिया में अमेरिकी साम्राज्यवादियों से पहले बाजी मार ले जाना है। इसके जरिए उन्हें उम्मीद है कि गद्दाफी के बाद बनने वाली सरकार में उनका ज्यादा दखल होगा। अपनी जनता में बेहद अलोकप्रिय सरकोजी यह चाहता है कि लगे हाथों वह अपनी स्थिति मजबूत कर ले जिससे अगले चुनावों में वह जीत सके। शायद इराक व अफगानिस्तान में पिछड़ जाने का मलाल भी फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों को सता रहा है। ब्रिटेन में प्रधानमंत्री डेविड कैमरून की भी स्थिति अच्छी नहीं है। और वह भी इस बहती गंगा में हाथ धोना चाहता है। इटली को तेल आपूर्ति का बड़ा हिस्सा लीबिया से होता है। प्रधानमंत्री बर्सुलोनी तो अपनी घृणित व्यक्तिगत जिन्दगी के कारण सूली पर टंगा हुआ है। उसके लिए भला इससे बेहतर क्या होगा कि इटलीवासियों का ध्यान लीबिया पर चला जाए जो कभी इटली का उपनिवेश था।
अमेरिकी साम्राज्यवादी तो सर्वशक्तिमान और सर्वविद्यमान हैं ही। लीबिया की सीमा पर सबसे बड़ा सैनिक जमावड़ा उन्हीं का है। उन्हें ही पहले दिन हमले में सबसे ज्यादा 110 मिसाइलें दागीं। लेकिन इराक और अफगानिस्तान में बुरी तरह फंसे अमेरिकी साम्राज्यवादी जमीनी हस्तक्षेप के मामले में बहुत उहापोह में हैं उनका साम्राज्यवादी लालच उन्हें इस तरफ धकेलता है लेकिन वे दूसरी तरफ लीबिया में भी फंस जाने से घबराते हैं। रक्षा सचिव राबर्ट गेट्स ने तो बोल भी दिया था कि इराक व अफगानिस्तान के बाद किसी और देश पर कब्जा करने के बारे में सोचना किसी पागल का ही काम हो सकता है। लेकिन इस सबके बावजूद अमेरिकी साम्राज्यवादी फ्रांस या इटली को लीबिया में प्रभुत्वशाली नहीं बनने देंगे।
फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों की पहलकदमी से जर्मन साम्राज्यवादी नाखुश हैं। उनहोंने ने सुरक्षा परिषद में प्रस्ताव के पक्ष में वोट नहीं दिया। इसी तरह रूसी साम्राज्यवादी भी प्रस्ताव के पक्ष में नहीं थे। अफ्रीका में लगातार पांव पसार रहे चीनी शासकों ने भी प्रस्ताव के पक्ष में खड़ा होना उचित नहीं समझा। भारत और ब्राजील के शासक भी अपनी जनता के भय के मारे प्रस्ताव के पक्ष में मत देने का साहस नहीं कर पाए। यहां यह गौरतलब है कि रूस और चीन ने सुरक्षा परिषद में अपने वीटो का इस्तेमाल नहीं किया वे भी अरब जगत में जन विद्रोह को कुचलने के पक्षधर हैं। साथ ही वे यह चाहते हैं कि बाद में बंदरबांट में उनकी भागीदारी का रास्ता खुला रहे।
साम्राज्यवादियों ने हमले को जायज ठहराने के लिए जोर-शोर से प्रचारित किया था कि इसे अरब लीग का समर्थन प्राप्त है। लेकिन वे इस सच्चाई को गोल कर गए कि जब अरब लीग ने लीबिया में ‘‘नो फ्लाई जोन’’ का प्रस्ताव पास किया तो अरब लीग के कुल 22 में से 11 सदस्य उपस्थित थे। इसमें से भी दो ने प्रस्ताव का विरोध किया था। अरब जगत में साम्राज्यवादियों के खिलाफ बेइंतहा नफरत के मद्देनजर यह समझ में आने वाली बात है कि अरब लीग के पालतू शासक भी इतनी हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। अब हमले के बाद अरब लीग के प्रमुख का बयान आया है कि लीबिया पर हमला संयुक्त राष्ट्र संघ के सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव का उल्लंघन है।
यहां यह गौरतलब है कि 53 देशों वाले अफ्रीकी यूनियन ने पहले ही लीबिया में किसी तरह के बाहरी हस्तक्षेप का विरोध किया है। लेकिन साम्राज्यवादी इस तथ्य का हवाला नहीं देते।
इन सबसे स्पष्ट है कि लीबिया पर साम्राज्यवादियों का हमला अरब जगत में हो रहे जन विद्रोहों को कुचलने के लिए साम्राज्यवादियों और पालतू अरब शासकों (शेखों और राजाओं ) की रणनीति का हिस्सा है। इसी के साथ साम्राज्यवादी लीबिया पर कब्जा भी कर लेना चाहते हैं। इन विद्रोहों के चलते पूरे पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका की तस्वीर बदल जाने की संभावना है। साम्राज्यवादी और स्थानीय प्रतिक्रियावादी शासक इसी संभावना को कुचल देना चाहते हैं। साम्राज्यवादी और आगे बढ़कर अपने लिए और भी ज्यादा अनुकूल व्यवस्था कायम करना चाहेंगे।
ऐसे में अरब जगत में जन विद्रोहियों और उनके दुनिया भर के समर्थकों के लिए यही सही रणनीति होगी कि वे स्थानीय प्रतिक्रियावादी शासक और साम्राज्यवादियों दोनों को अपने हमले का निशाना बनाएं। विकल्प साम्राज्यवादी या गद्दाफी नहीं हैं। वास्तविक विकल्प मजदूरों-मेहनतकशों की सरकार है।
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