यह विडंबना ही कही जायेगी कि जब अरब दुनिया में जनता अपने शासकों के खिलाफ विद्रोह कर रही है तब हमारे देश में जनता का एक हिस्सा शासकों की चालों में आकर अपनी ऊर्जा बरबाद कर रहा है। इतनी ऊर्जा से हमारे द्रश में भी शासकों के खिलाफ एक विद्रोह शुरू किया जा सकता है।
उत्तर प्रदेश और हरियाणा में जाट समुदाय पिछले 2 हफ्तों से केन्द्रीय सरकार की नौकरियों में पिछड़े वर्ग के तहत 5 प्रतिशत आरक्षण की मांग को लेकर एक बड़ा आंदोलन छेड़े हुए हैं। उसने कई रेल मार्ग जाम कर रखे हैं। अब जबकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश से कुछ रेल मार्ग खाली कर दिये गये हैं। (सरकारें आजकल आंदोलनों के खिलाफ इसी तरह न्यायालयों का इस्तेमाल कर रही हैं) तब आंदोलनकारियों ने यह घोषणा की है कि यदि उनकी मांग नहीं मानी गई तो वे 28 मार्च से दिल्ली को घेर लेंगे और दिल्ली में हर चीज की आपूर्ती ठप कर देंगे।
जाट समुदाय कोई उस तरह का आर्थिक और सामाजिक -राजनीतिक तौर पर पिछड़ा समुदाय नहीं है। जाट पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में सबसे प्रभुत्वशाली और सम्पन्न जाति है। पंजाब और राजस्थान में भी यही स्थिति है। जाट भले ही वर्णाश्रम व्यवस्था में कभी शुद्रों में आते हों पर आज वे उस तरह दलित-शोषित व पिछड़े नहीं हैं। आज केवल सरकारी नौकरियों का लालच ही उन्हें पिछड़ों में गिनती करवाने की ओर धकेल रहा है।
आज पूंजीपति वर्ग की नीतियों के चलते बेरोजगारी भयंकर रूप में बढ़ रही है। जो थोड़ी बहुत नौकरियां निजी क्षेत्र में पैदा हो रही हैं वहां तनख्वाह बहुत कम और काम की स्थितियां बहुत खराब हैं। इसके मुकाबले सरकारी नौकरियां जिनकी संख्या लगातार घट रही है, बहुत अच्छी नजर आती हैं। इसीलिए बाबू अध्यापक ही नहीं पुलिस के सिपाही और तथाकथित चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों की नौकरी के लिए भी मारकाट मची होती है और लोग खेत बेचकर या कर्ज लेकर घूस देने को तैयार हैं जिससे नौकरी मिल सके। ऐसे में यदि थोड़ा बहुत मदद आरक्षण के कोटे से भी मिल जाय तो निश्चित तौर पर सुभीता हो जायेगा। जाट समुदाय अपने लिए यही कोशिश कर रहा है। वह बेरोजगारी के खिलाफ लड़ने के बदले चन्द सरकारी नौकरियों के लिए लड़ रहा है।
ऐसा करके जाट समुदाय के बेरोजगार नवयूवक वस्तुतः भारत के पूंजीपति वर्ग के हाथो में खेल रहे हैं। भारत का पूंजीपति वर्ग चाहता है कि देश के नौजवान बेरोजगारी के खिलाफ एकजुट होकर लड़ने के बदले आपस में बंटें और बिखर जायं। आरक्षण के लिए जाटों या गूजरों का वर्तमान आंदोलन शासकों की इसी चाल का शिकार हो रहा है। शासक बहुत चालाकी के साथ इस तरह के आंदोलनों को शह दे रहे हैं। यदि यही आंदोलन बेरोजगारी के खिलाफ होता तो सरकार बहुत पहलें लाठी-गोली का इस्तेमाल कर चुकी होती। यदि यह आंदोलन मजदूरों का होता तो सरकार दो चार दिन तो क्या दो-चार घंटों में ही मार-पीट कर मजदूरों को रेल की पटरियों हटा देती। लेकिन चुंकि यह आंदोलन बेरोजगार नवयूवकों को बांट रहा है, उन्हें बेरोजगारी के खिलाफ लड़ाई से बरगलाकर कुछ सरकारी नौकरियों में आरक्षण तक सीमित कर रहा है इसलीए सरकार इस तरह पेश आ रही है।
आज जाट कोई उत्पीडि़त जाति नहीं है। उन्हें केन्द्रीय सरकार की नौकरियों में आरक्षण से जातिगत उत्पीड़न में कोई कमी नहीं आने वाली। पिछड़े वर्ग के तहत आरक्षण की जाट समुदाय की मांग केवल सरकारी नौकरियों के लिए लालच से पैदा होती है जो उन्हें बेरोजगारी की भयंकर समस्या से भटकाने की ओर ले जाती है। यहां यह रेखांकित करना जरूरी है कि जाट प्रमुखतः एक खेतीहर जाति है और भारतीय पूंजीवाद के वर्तमान दौर में मध्यम किसानों तक की हालत बेहद खराब होती जा रही है। इसकी आंच धनी किसान भी महसूस कर रहे हैं।
खेती के लगातार घाटे के सौदा बनते जाने के साथ बेरोजगारी चरम पर पहूंच रही है। रही-सही कसर उपभोक्तावाद पूरा कर दे रहा है जो बेरोजगारों के सामने लक दक करती चीजों का सपना परोस कर रहा है।
जाट समुदाय के बेरोजगार नौजवानों और उनके मां-बाप को आज यह समझना जरूरी है कि उनकी सतस्याओं का समाधान चन्द सरकारी नौकरियों में नहीं है। उनकी समस्याओं का असली समाधान सभी जातियों के बेरोजगारों के साथ मिलकर इस पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ लड़ने में है जो इस कदर बेरोजगारी और घटिया रोजगार पैदा कर रही है।
काश जाट समुदाय बाकी लोगों को अपने साथ आने का आह्वान करते हुए 28 मार्च को सबको रोजगार या कम से कम बेरोजगारी भत्ते की मांग को उठाते हुए दिल्ली घेरता। तब नजारा कुछ और होता। तब शयद पूरी दिल्ली तहरीर चैक बन जाती।
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