मेरे संसदीय क्षेत्र के रेशम गांव का मंगरू मांझी बिना सड़क, पानी, बिजली, चिकित्सा और शिक्षा के जीवन जीता रहेगा। सभी वित्त मंत्रियों ने उसे छोड़ दिया है, जिसमें प्रणव बाबू और मैं भी शामिल हूं।
पूर्व वित्त मंत्री और भाजपा के नेता यशवन्त सिन्हा का यह कथन प्रणव मुखर्जी और उनके पहले के वित्त मंत्रियों के बजट पर सबसे सही टिप्पणी है। बस इसमें इतनी ही चालाकी है कि यशवन्त सिन्हा ने यह टिप्पणी स्वयं अपना बजट पेश करते हुए नहीं की थी।
यदि उन्हें भविष्य में फिर कभी मौका मिला तो वे पुराने जैसा ही व्यवहार करेंगे। वे पुनः मंगरू मांझी को रेशम गांव में बिना बिजली, पानी और सड़क के छोड़ देंगे।
यदि उन्हें भविष्य में फिर कभी मौका मिला तो वे पुराने जैसा ही व्यवहार करेंगे। वे पुनः मंगरू मांझी को रेशम गांव में बिना बिजली, पानी और सड़क के छोड़ देंगे।
सभी वित्त मंत्रियों की तरह प्रणव मुखर्जी ने भी वर्ष 2011-12 का केन्द्रीय बजट पेश करते समय इसे आम आदमी का बताने की कोशिश की। यह तब जब उन्होंने नरेगा के तहत बजट को घटा दिया, महंगाई घटाने के लिये किसी ठोस उपाय की घोषणा नहीं की, खेती को उसके हाल पर छोड़ दिया। उनकी ओर से यह आम आदमी के लिये बजट था हालांकि पिछले साल भर में प्रोत्साहन के नाम पर करीब डेढ़ लाख करोड़ रुपये पूंजीपतियों पर लुटा दिये (पिछले तीन साल में 5 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा)। यह आम आदमी का बजट था लेकिन इसकी खुशी में सट्टेबाजों के सेनसेक्स ने अगले दिन पिछले 18 महीनों में सबसे ज्यादा एक दिनी छलांग लगाकर 600 अंकों से ज्यादा की बढ़ती हासिल कर ली। सेनसेक्स ने अपने तरीके दिखाया कि यशवन्त सिन्हा, पी. चिदम्बरम की तरह प्रणव मुखर्जी के लिये भी आम आदमी का मतलब मंगरू मांझी नहीं मुकेश और अनिल अंबानी हैं। मंगरू को पता भी नहीं कि उसके नाम पर दिल्ली में बजट पेश हो गया, जिस पर मुकेश और अनिल अंबानी ताली बजा रहे हैं।
मुकेश-अनिल इत्यादि के लिये पेश किये गये इस बजट में प्रणव मुखर्जी ने वित्तीय उदारीकरण और खुदरा बाजार तथा अन्य क्षेत्र में विदेशी निवेश की छूट को आगे बढ़ाने का पूरा उद्योग किया है। खुद उनके अनुसार उन्होंने अपने बजट में उन्हें रेखांकित नहीं किया तो केवल इसलिये कि कांग्रेस को संसद में इन्हें पास कराने में बाधा न हो। उन्होंने अगले दिन पूंजीपतियों की संस्थाओं फिक्की, एसोचैम और सी आई आई को संबोधित करते हुए कहा कि देश और प्रदेशों में राजनीतिक पार्टियों पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल इन विधेयकों को पास कराने में करें । उन्होंने पूरी बेहयाई के साथ पूंजीपतियों और पूंजीवादी राजनीतिक पार्टियों के वास्तविक संबंधों का खुलासा किया।
हमेशा की तरह प्रणव मुखर्जी ने भी बजट के आंकडों में बाजीगरी दिखाई और सरकार के बजट घाटे को कम करके पेश किया। पूंजीपतियों को लाखों-करोड़ों रुपये की सब्सिडी को आंखों से ओझल करने के साथ ही उन्होंने यह बताने की जहमत नहीं दिखाई कि इस बजट घाटे के कम दिखने में एक प्रमुख कारण 3जी स्पेक्ट्रम नीलामी से हुई भारी आय और दूसरा 15 प्रतिशत महंगाई है, जिसने सकल घरेलू उत्पाद में फर्जी 15 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी कर बजट घाटे के प्रतिशत को कम कर दिया। जो महंगाई मजदूर वर्ग ओर मेहनतकश जनता के लिये काल बनी हुई है वही प्रणव मुखर्जी एण्ड कम्पनी के लिये बजट घाटा कम दिखाने का साधन बन गई।
जी-20 के वित्त मंत्रियों के सम्मेलन से लौटकर प्रणव मुखर्जी ने बताया था कि वैश्विक अर्थव्यवस्था की हालत चिंताजनक बनी हुई है। जी-20 में ढेरों मुद्दों पर सहमति नहीं बन पा रही है। दक्षिणी यूरोप के देशो में आर्थिक हालात विस्फोटक हैं।
अरब देशों में विद्रोह के पीछे बुरे आर्थिक हालातों-बेरोजगारी, महंगाई, भूखमरी इत्यादि- तथा आर्थिक संकट की मौजूदगी किसी से छिपी नहीं है। यूरोप में आर्थिक हालात छुरी की धार पर हैं। वैश्विक अर्थव्यवस्था कभी भी गहरे डुबकी लगा सकती है। ऐसी अवस्था में मुनाफे की हवस का मारा पूंजीपति वर्ग अपने वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी से ऐसा बजट पा रहा है जो उसकी पीपासा को वैसे ही शान्त करेगा जैसे सब प्राइम उभार के दौर में अमेरिका में हुआ था। भारत का पूंजीपति वर्ग मुनाफे के लालच में खुद को उधर धकेल रहा है जहां बड़े पैमाने के उथल-पुथल उसका स्वागत करेंगे। लेकिन अकूत मुनाफा लूटने वाल पगलाया हुआ भारत का पूंजीपति वर्ग इसके अलावा और क्या करेगा? बेन अली, होस्नी मुबारक और कर्नल गद्दाफी ने अपने विध्वंस का सामान खुद ही नहीं जुटाया था? फिर मुकेश अंबानी और प्रणव मुखर्जी की ही उनसे भिन्न गति क्यों होंगी?
भारत का मजदूर वर्ग पूंजीपतियों की सरकार से इससे भिन्न बजट की उम्मीद नहीं करता। उसके लिये स्पष्ट है कि इस बजट का मतलब है मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनता से कर वसूली कर उसे पूंजीपतियों पर लुटाना या फिर उस कर से मजदूर वर्ग पर लाठी-डण्डा और गोली चलाने के लिये पुलिस और सेना को पालना-पोसना। इससे भिन्न सरकारी बजट का अर्थ न तो रहा है और न होगा। तथाकथित जन कल्याण पर खर्च या जनता को राहत तो महज मजदूरों और गरीब जनता को धोखा देने के लिये है। सारी दौलत मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनता पैदा करती है। यदि उनके द्वारा कमाई गई दौलत को लूट कर उसका नगण्य सा हिस्सा फिर उन पर सरकार द्वारा खर्च किया जाता है तो केवल मक्कार पूंजीपति ही इसकी तारीफ कर सकता है।
मजदूर वर्ग पूंजीपतियों की सरकार के बजट से कुछ उम्मीद करने के बदले इस सरकार को ही अपना निशाना बनाएगा ।
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