ट्यूनीशिया और मिश्र के बाद लीबिया की जनता इस समय अपने देश की तानाशाही हुकूमत से खूनी संघर्ष में उलझी हुई है। यहां संघर्ष बहरीन, जार्डन, अल्जीरिया इत्यादि से कहीं आगे पहुंच गया है। इस समय लीबिया में लगभग गृह युद्ध की स्थिति है।
ट्यूनिशया और मिश्र की तरह
इस समय लीबिया में भी संघर्ष का प्राथमिक लक्ष्य कर्नल गद्दाफी की तानाशाही है। इस समय संघर्ष गद्दाफी, उसके परिवार और लगुओं-भगुओं के खिलाफ लक्षित है। जैसा कि हमेशा होता है, संघर्ष के आगे बढ़ने पर वर्षों से गद्दाफी के साथ सत्ता सुख भोग रहे लोग उसका साथ छोड़ कर भाग रहे हैं। मंत्री से लेकर राजनयिक तक धड़ाधड़ इस्तीफा दे रहे हैं।
इस समय लीबिया में भी संघर्ष का प्राथमिक लक्ष्य कर्नल गद्दाफी की तानाशाही है। इस समय संघर्ष गद्दाफी, उसके परिवार और लगुओं-भगुओं के खिलाफ लक्षित है। जैसा कि हमेशा होता है, संघर्ष के आगे बढ़ने पर वर्षों से गद्दाफी के साथ सत्ता सुख भोग रहे लोग उसका साथ छोड़ कर भाग रहे हैं। मंत्री से लेकर राजनयिक तक धड़ाधड़ इस्तीफा दे रहे हैं।
गद्दाफी 1969 में तख्तापलट कर सत्ता में आया था। तब अपने समीकरणों के तहत अमेरिकी सी आई ए ने उसकी मद्द की थी। लेकिन उसके बाद से करीब दो दशक तक गद्दाफी के संबंध अमेरिकी साम्राज्यवादियों से खराब रहे। उसने सोवियत साम्राज्यवाद से संबंध बनाया और अरब राष्ट्रवाद का बाना ओढ़ा। उसने मिश्र और सीरिया इत्यादि से एकीकरण कर अरब राष्ट्र गठित करने की बात भी की। उसने राष्ट्रीयकरण इत्यादि के जरिये अपने अरब राष्ट्रवाद को समाजवाद का नाम दिया, ठीक उसी तरह जैसे नेहरू और इंदिरा गांधी ने समाजवाद का नाम जपा।
लेकिन सोवियत खेमे के विघटन के बाद गद्दाफी के पांव के नीचे की जमीन खिसक गई। इसके बाद उसने अमेरिकी साम्राज्यवादियों से संबंध बनाने शुरू किये और 1990 के दशक के अंत तक गद्दाफी आतंकवादियों के समर्थक की श्रेणी से निकलकर मित्रों की श्रेणी में शामिल हो गया था। उसके बाद के करीब एक दशक गद्दाफी और ब्रिटिश व अमेरिकी साम्राज्यवादियों के मधुर संबंधों के दशक रहा है।
पश्चिमी साम्राज्यवादियों से संबंध मधुर बनाने के साथ-साथ गद्दाफी ने अपने यहां उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियां भी बड़े पैमाने पर लागू कीं। यह उस मधुर संबंध का स्वाभाविक परिणाम और शर्त थी। लेकिन इससे मजदूर और मेहनतकश जनता की जिंदगी गर्त में जानी थी और वह गई। तेल से पैदा आय भी इसे नहीं रोक सकी। उल्टे इससे अमीरी और गरीबी के बीच खायी और बढ़ गई।
सभी तानाशाहों की तरह गद्दाफी का परिवार भी इस पूरे दौर में लूट-खसोट कर बेइंतहा दौलत का मालिक बन गया लेकिन साथ ही उसने जनता की बेइंतहा नफरत भी बटोर ली। आक्रोश संचित होता रहा और अरब देशों में विद्रोह की शुरूआत होने पर लीबिया में भी विस्फोट हो गया।
गद्दाफी और उसके साथ के लोग अंतिम हद तक सत्ता से चिपके हुए हैं। इसके लिए वे बड़े पैमाने पर खून-खराबे से भी संकोच नहीं कर पा रहे है। गद्दाफी सरकार द्वारा इस खून-खराबे के बाद भी अमेरिकी व अन्य साम्राज्यवादी किसी तरह मामले को संभालने की जुगत लगा रहे हैं। वे किसी ‘नियमबद्ध संक्रमण’ की फिराक में है जिसका मतलब है गद्दाफी और उसके परिवार को छोड़कर सब कुछ वैसा ही बना रहे।
ट्यूनिशया और मिश्र की तरह लीबिया में भी मजदूर वर्ग बड़ी मात्रा में विद्रोह में शामिल है। वास्तव में वहां की तरह यहां भी वह विद्रोह की मुख्य ताकत है। लेकिन यहां मजदूर वर्ग को यह ध्यान रखना होगा कि महज गद्दाफी की सत्ता से रूखसती से कुछ नहीं बदलने वाला। यही नहीं, जनतंत्र की स्थापना से भी मूलभूत तौर पर कुछ नहीं बदलने वाला।
अरब दुनिया के बाकी देशों के मजदूरों के साथ लीबिया के मजदूरों के सामने भी एक ही वास्तविक विकल्प है- जनतंत्र के पार जाना, मजदूर राज की स्थापना करना। वहां मजदूरों का नारा होना चाहिए- संयुक्त अरब समाजवादी गणतंत्र। सर्वहारा की तानाशाही के तहत वास्तविक समाजवाद होगा। यह पूजीपति वर्ग और उसके राज्य के विध्वंस पर स्थापित होगा।
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