Friday, February 4, 2011

विद्रोह की फूटती चिंगारियां

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1789 में जब महान फ्रांसीसी क्रांति शुरू हुयी तो उसके ठीक पहले पेरिस की भूखी जनता सरकार  से ब्रेड की मांग कर रही थी। इसी मांग के जवाब में रानी मैरी  एन्टेनिओ  ने कहा था कि यदि लोगों के पास ब्रेड नहीं है तो वे केक क्यों नहीं खाते। रानी मैरी को अपनी इस मूर्खता और हेकड़ी की कीमत गिलोटीन पर सिर कटवाने से चुकानी पड़ी। पेरिस की भूखी जनता अपनी भूख से आगे बढ़कर समूची सामंतवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने तक चली गई। फ्रांस और सारी दुनिया में एक नये युग की शरुआत हो गई।

1917 में साम्राज्यवादियों द्वारा दुनिया को लूटने के लिए मचाई गई मार काट (प्रथम विश्व युद्ध) के बीच रूस की जनता भी भूख से बिलबिला रही थी। राजधानी पेत्रोग्राद में लोगों के लबों पर एक ही नारा था- ब्रेड और शांति। इसके साथ गांवों में किसान चीख रहे थे- शांति और जमीन। फ्रांस की मैरी और उसके पति लुई सोलहवें की तरह रूस की जारीना और उसका पति भी उतनी ही मूर्खता और हेकड़ी से ग्रस्त थे। इन्हें भी अपनी मूर्खता और हेकड़ी की कीमत अपनी जान से चुकानी पड़ी। इस बीच रूस के मजदूर और किसान ब्रेड, शांति और जमीन के नारे से आगे बढ़कर रूस से पूंजीपतियों का नाश कर नया समाज-समाजवाद कायम करने की ओर बढ़ गये। अब दुनिया और आगे के चरण में एक सर्वथा नये युग में प्रवेश कर गई दुनिया में पहली बार ऐसा हुआ कि शोषकों के बदले मेहनत-मशक्कत करने वाले लोग शासक बन गये और उन्होंने एक सर्वथा नया समाज-शोषण विहीन समाज बनाने की बीड़ा उठा लिया।
आज एक बार फिर दुनिया की जनता भूख से बिलबिला रही है। 1789 या 1917 से इस बार फर्क यह है कि आज दुनिया का कोई कोना नहीं है जहां मजदूर वर्ग और गरीब मेहनतकश जनता भूख से पीड़ित होकर ब्रेड या रोटी की मांग न कर रही हो।
और इस मांग ने अपना असर दिखाना भी शुरू कर दिया है। ट्यूनीशिया का राष्ट्रपति अबिदीन बेन अली, जो 23 साल से सत्ता में काबिज था वह देश छोड़कर भाग गया है। मिश्र में लाखों की संख्या में जनता सड़कों पर है। राष्ट्रपति होस्नी मुबारक का बेटा देश छोड़कर भाग गया है और मुबारक स्वयं इसकी तैयारी कर रहा है।
मूर्ख मैरी या जारीना के विपरीत साम्राज्यवादियों को इस बात की चेतना है कि वे किस चीज का सामना कर रहे हैं। अमेरिका के रक्षा विभाग ने सैनिकों को इस बात के लिए प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया है कि आर्थिक संकटों से पैदा हुए दंगों से कैसे निपटा जाय। यूरोपीय प्रचार माध्यमों में खबर है कि ट्युनीशिया की घटना के बाद फ्रांस और अमेरिका में इस बात की सहमति बनी है कि अमेरिका और यूरोपीय संघ एक मिली-जुली सशस्त्र सुरक्षा बल बनाएं जो वैश्विक पैमाने पर संभावित विद्रोहों से निपट सके जिनकी संभावना खाद्य संकट के कारण प्रबल हो गई है। विश्व बैंक के अध्यक्ष रॉबर्ट जोलिक ने कहा है कि समूचा विश्व अराजकता से बस एक खराब फसल दूर है यानी यदि अगली फसल भी खराब होती है तो समूचा विश्व विद्रोहों की लपेट  में आ जायेगा। स्पष्ट है कि साम्राज्यवादी मैरी या जारीना की तरह मूर्ख नहीं हैं। लेकिन वे उतने ही हेकड़ीबाज हैं बल्कि कुछ ज्यादा ही।
ट्यूनीशिया, मिश्र, जार्डन, ओमान, लीबिया, अल्जीरिया इत्यादि समूचे अरब जगत में जो विद्रोह की आंधी आयी हुयी है उसके बारे में कहा जा रहा है कि मंहगाई (खासकर खाद्य पदार्थों में), बेरोजगारी और भ्रष्टाचार उसके मूल में है। पूंजीवादी प्रचार माध्यमों में कहा जा रहा है कि यह सब जनतंत्र न होने के कारण है। औपचारिक या अनौपचारिक तानाशाहियों के खत्म होने और जनतंत्र कायम हो जाने से सब ठीक हो जाएगा।
पहले महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के मुद्दों को लें। यह सुनते ही ट्यूनीशिया और मिश्र के विद्रोह के मूल में ये मुद्दे हैं, किसी भी भारतीय का मुंह खुला का खुला रह जायेगा। आखिर देश का हर मजदूर-मेहनतकश इनका सामना कर रहा है। पिछले दो-तीन सालों से मंहगाई आसमान चढ़ी हुयी है और सरकार के दांवों के विपरीत वहीं टिकी हुयी है। खाने पीने की चीजों के दाम दो-तीन गुना बढ़ गये हैं। गरीब की थाली में रोटी लगातार कम होती जा रही है। बेरोजगारी का आलम तो यह है कि ग्रेजुएट और उससे ऊपर की शिक्षा वाले युवक भी अकुशल मजदूरी करने को तैयार हैं। बेरोजगारी का फायदा उठाकर पूंजीपतियों ने सरकार द्वारा तय न्यूनतम मजदूरी को भी दरकिनार कर उसकी आधी या तिहाई मजदूरी देनी शुरू कर दी है। और भ्रष्टाचार, घोटालों के इस मौसम में इसकी क्या बात की जाय? अब बात लाख या करोड़ की नहीं बल्कि लाखों करोड़ की होती है! ऐसे में भारत में भी विद्रोह क्यों न शुरू हो? सरकारी आंकड़ों के हिसाब से ही रोज पेट न भर पाने वाले चालीस प्रतिशत लोग विद्रोह के लिए सड़कों पर क्यों न उतरें? काफी वक्त पहले ही बीत गया है!
लेकिन यह स्थिति केवल भारत में नहीं है। खाद्य संकट को लें। जब दो साल पहले 2008 में खाद्य पदार्थों के दाम चढ़े थे तो दुनिया के तीस से ज्यादा देशों में खाद्य पदार्थों को लेकर दंगे हुये थे। और अब एक बार फिर खाद्य पदार्थों के दाम तेजी से बढ़ रहे हैं। दिसंबर 2010 में पहलें ही 2008 की उच्चतम सीमा पार की जा चुकी है। विश्व खाद्य संगठन के चिंतक पहले ही अपनी गंभीर चिंता जताने लगे हैं।
कहा जा रहा है कि खाद्य पदार्थों के दाम पाकिस्तान और आस्टेªलिया में बाढ़ तथा रूस में गर्मी की वजह से फसल बरबादी के कारण बढ़ रहे हैं। लेकिन ये सब तो महज ऊपरी कारण है। पिछली बार की तरह इस बार भी असली वजह सट्टेबाजी है। बल्कि इस बार यह और ज्यादा है। साम्राज्यवादी देशों में मंदी अभी जारी है और नीची ब्याज दरों से गले तक लबरेज सट्टेबाज पूंजी मालों के बाजार में सट्टेबाजी पर उतरी हुयी है। खासकर खाद्य पदार्थों में बेतहाशा सट्टेबाजी हो रही है। खराब फसल की आशंका ने इस सट्टेबाजी को और अधिक बढ़ा दिया है।
इस तरह यह हो रहा है कि एक ओर अरबों की संख्या में विश्व भर में गरीब लोग भूखे पेट सोने को मजबूर हो रहे हैं और दूसरी ओर सट्टेबाज खरबों का वारा-न्यारा कर रहे हैं। कारगिल, मोन्सेन्टो से लेकर सट्टेबाज विŸाीय अधिपतियों तक सब मालामाल हो रहे हैं। ये प्राकृतिक नहीं बल्कि सामाजिक आपदा पैदा कर रहे हैं।
जैसा कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपनी रिपोर्ट में कहा था 2007 से शुरू हुये आर्थिक संकट का सबसे भीषण असर तीसरी दुनिया के कमजोर देशों पर पड़ा था। सट्टेबाज पूंजी के कहर के सबसे गंभीर परिणाम वहीं देखने को मिले। वहां करोड़ो और लोग भुखमरी की रेखा के नीचे चले गये।
लेकिन स्वयं साम्राज्यवादी देशों में भी हालात बद से बदतर होते चले गये हैं। भूख से बिलबिलाते लोगों की वहां भी तादात लगातार बढ़ती जा रही है। वहां भी भूखे लोगों को खिलाने के लिए फूड काउंटर खोले जा रहे हैं। बराक ओबामा और निकोला सरकोजी केवल ट्युनीशिया और मिश्र को लेकर परेशान नहीं हैं।
बेरोजगारी के मामले में भी समूची दुनिया के पैमाने पर हालात भयावह हैं। पूंजीपति वर्ग 2010 की शुरुआत से ही कह रहा है कि अर्थव्यवस्थाएं मंदी से उबर रही हैं, कि तेज वृद्धि वापस लौट रही है। वे इसके लिए आंकड़े भी प्रस्तुत कर रहे हैं। लेकिन जब बेरोजगारी की बात आती है तो यह सब हवा हो जाता है। तब पता चलता है कि संकट जरा भी कम नहीं हुआ है।
अमेरिका सहित सभी साम्राज्यवादी देशों के आंकड़े दिखाते हैं कि तथाकथित तेजी के बावजूद रोजगार के मामले में कोई सुधार नहीं हो रहा है। औपचारिक बेरोजगारी की दर विभिन्न देशों में दस से बीस प्रतिशत तक बनी हुयी है। वास्तविक बेरोजगारी तो इसकी दो गुनी है। यहां यह गौरतलब है कि यह सारी बेरोजगारी 2007 से जारी आर्थिक संकट से नहीं पैदा हुयी है। इसका एक हिस्सा लंबे समय से बना हुआ है जिसे पूंजीवादी अर्थशास्त्री संरचनागत बेरोजगारी कहते हैं।
बाकी दुनिया में स्थिति इससे भी भयावह है। मिश्र के बारे में कहा जा रहा है कि वहां नौजवानों में 10 में से 9 बेरोजगार हैं। भारत जैसे देशों में तो इसका कोई आकड़ा ही नहीं है।
एक ओर अर्थव्यवस्था में तेजी की बातें और दूसरी ओर जस की तस बेरोजगारी इसका केवल एक ही मतलब है। पूंजीपतियों की दौलत बेतहाशा बढ़ रही है। सभी वित्तीय या औद्योगिक कंपनियों के मुनाफे इसी को प्रदर्शित करते हैं। एक ओर लोगों की हालत खराब हो रही है, दूसरी ओर पूंजीपति वर्ग की दौलत बढ़ रही है। अमेरिका के वित्तीय  संस्थान, जो सारी दुनिया पर राज करते हैं, इसे खास तौर पर दिखाते हैं।
और भ्रष्टाचार! पूंजीवाद का यह कोढ़ आधिकाधिक बढ़ता जा रहा है। अभी अमेरिका में भारतीय छात्रों को झांसा देने वाले विश्वविद्यालय को क्या कहा जाय? वहां के सब प्राइम संकट के मूल में क्या था? एनरॉन, वर्ल्डकाम इत्यादि अमेरिकी कंपनियों के ही नाम हैं जिनसे भारत के सत्यम ने इतना कुछ सीखा था। दुनिया भर के कालाबाजारियों और कर चोरों के पैसे कहां जमा हैं? दुनिया के सबसे बड़े नशीली दवाओं के कारोबार कहां होते हैं? इराक से ज्यादा सरकारी खर्चों का गबन कहां हुआ होगा? निश्चित तौर पर भारत के पूंजीपति गले तक भ्रष्टाचार में डूबे हुये हैं। लेकिन वे इस मामले में भी साम्राज्यवादियों के छोटे भाई ही हैं। वे बड़े भाइयों का मुकाबला नहीं कर सकते। दीवालिया होने के समय एनरॉन सत्यम से सैकड़ों गुना बड़ी कंपनी थी।
यदि रोटी, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार ही ट्यूनीशिया और मिश्र के विद्रोह के मूल में हैं तो आज दुनिया का हर देश विद्रोह के मुहाने पर खड़ा है। हर देश में विद्रोह होना ही चाहिए।
पर सच्चाई यह है कि पूंजीपति वर्ग सचेत तौर पर विद्रोहों को इस रूप में पेश कर रहा है। वह और भी ज्यादा सचेत तरीके से यह बताने का प्रयास कर रहा है कि जिन देशों में विद्रोह हो रहे हैं वहां वास्तविक जनतंत्र नहीं है। वास्तविक जनतंत्र के अभाव में ही इस तरह की समस्याएं हैं। यदि अनौपचारिक तानाशाहियों को हटाकर वास्तविक जनतंत्र कायम कर दिया जाय तो सब ठीक हो जायेगा। अमेरिकी साम्राज्यवादियों से लेकर जो बेन अली और होस्नी मोबारक को पाले हुए थे, भारत के छुटभैये पूंजीपति तक सब यह प्रचारित करने में लगे हुए हैं।
लेकिन इन धूर्तों से कोई यह पूछे कि इनके हिसाब से तो भारत में जनतंत्र है। बल्कि वे भारत के जनतंत्र की तारीफ भी करते हैं। तब फिर यहां महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार क्यों है।? स्वयं साम्राज्यवादी देशों में भुखमरी, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार क्यों है? क्यों आइसलैण्ड से लेकर आयरलैण्ड, स्पेन, पूर्तगाल, इटली, यूनान, फ्रांस इत्यादि की जनता को सड़कों पर उतरना पड़ता है?
असल में ये पूंजीवादी शासक सोचते हैं कि जनतंत्र होने पर जनता सड़कों पर उतरकर अपने गुस्से का इजहार कर लेगी और फिर मामला शांत हो जायगा। भुखमरी, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार बना रहेगा परन्तु विद्रोह नहीं होगा। विरोध प्रदर्शन की कोई संभावना नहीं होने के कारण ही स्थिति विस्फोटक हो जाती है और मामला हाथ से निकल जाता है। इसीलिए जनतंत्र होना चाहिए।
लेकिन पूंजीपति वर्ग स्वयं अपने जनतंत्र में विश्वास नहीं करता। वह तो केवल आक्रोशित जनता को शांत करने के लिए जनतंत्र का नुस्खा पेश करता है। यदि जनता इससे भी शांत नहीं होगी तो उसकी पुलिस और सेना हाजिर है। पूंजीपति वर्ग को वास्तविक भारोसा जनतंत्र के लालीपॉप पर नहीं बल्कि सेना की संगीनों पर है। आज यदि मुबारक ने सेना सड़कों पर उतार रखी है तो कल को बराक ओबामा और निकोला सरकोजी भी यही करेंगे। और यहीं पर वर्तमान विद्रोहों और भविष्य में होने वाले विद्रोहों की वास्तविक परिणति का सवाल उठ खड़ा होता है? आखिर ये विद्रोह कहां तक जायेंगे  और उन्हें कहां तक जाना चाहिए? क्या उन्हें बेन अली और मुबारक को सत्ताचुयुत करने के बाद शांत हो जाना चाहिए? क्या उन्हें जनतंत्र स्थापित करने तक सीमित रहना चाहिए? इन विद्रोहों का नेतृत्व किनके हाथ में है और किनके हाथ में होना चाहिए?
पूंजीपति वर्ग ने प्रचारित किया कि ट्यूनीशिया और मिश्र में विद्रोह की शुरुआत नवयुवकों ने नये प्रचार माध्यमों-फेसबुक, ट्विटर और मोबाइल के जरिये की। ये ही सड़कों पर उतरे और उन्होंने विद्रोह का नेतृत्व किया। यदि यह सच है तो इन विद्रोहों की सीमा भी स्पष्ट है। तब ये विद्रोह तानाशाहों को हटाने और जनतंत्र स्थापित करने तक सिमट कर रह जायेंगे। ट्युनीशिया में तो यह हो गया भी लगता है। पूंजीपति वर्ग और मध्यम वर्ग के नौजवान इससे ज्यादा आगे नहीं जा सकते। वे अपनी वर्गीय सोच से बंधे हुए हैं। वे तानाशाही वाले पूंजीवाद के मुकाबले जनतांत्रिक पूंजीवाद से संतुष्ट हो जायेंगे। तब अलबरदेई जैसा साम्राज्यवादियों का पिट्ठू जो इराक पर हमले के लिए अमेरिकियों का औजार बना, मिश्र की सत्ता में काबिज हो जायगा। होस्नी मोबारक के बदले अल बरदेई आ जायेगा। अमेरिकी साम्राज्यवादी तो अभी से इसकी तैयारी भी करने लगे हैं।
जैसा कि पहले कहा गया है, भारत में जनतंत्र है। और यहां मंहगाई, बेरोजगारी, भुखमरी, भ्रष्टाचार सभी मिश्र से ज्यादा हैं। सभी मामलों में भारत मिश्र के मुकाबले फिसड्डी है। तब फिर वहां जनतंत्र आ जाने से क्या हो जाएगा?
असल में महंगाई, भुखमरी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार इत्यादि समूची पतित पूंजीवादी व्यवस्था की वर्तमान गति के परिणाम मात्र हैं। वे वर्तमान आर्थिक संकट के भी परिणाम नहीं हैं। वर्तमान आर्थिक संकट ने तो उन्हें बढ़ा भर दिया है। इस रूप में कहा जाय तो वर्तमान आर्थिक संकट विद्रोहों का तात्कालिक कारण, उत्प्रेरक है। और उसे होना भी चाहिए। पहले ही काफी देर हो चुकी है। लेकिन दूरगामी कारण तो वर्तमान पतित पूंजीवादी व्यवस्था स्वयं है।
और ठीक इसी चीज को पूंजीपति वर्ग आंखों से ओझल करने का हर संभव प्रयास करेगा। इसके लिए वह इस हद तक भी जा सकता है कि वह पिछले तीन दशक से जारी उदारीकरण की नीतियों में कुछ बदलाव करे। लेकिन साम्राज्यवादियों को तात्कालिक मुनाफे का लालच इसके आड़े आयेगा।
इन विद्रोहों का यदि कोई भविष्य है तो वह केवल एक है- समूची पूंजीवादी व्यवस्था को निशाना बनाना। इसके बिना ये केवल रंग-रोगन तक सीमित होकर रह जायंगे। किसी होस्नी मुबारक के बदले कोई अलबरदेई सत्तारूढ़  हो जायेगा।
लेकिन समूची पूंजीवादी व्यवस्था को निशाना केवल एक ही वर्ग बना सकता है-मजदूर वर्ग! किसी अन्य वर्ग में न तो वह ऐतिहासिक पहल कदमी हो सकती है और न वह ताकत। पूंजीवाद समर्थक मध्यमवर्गीय नव युवक तो उसके मुकाबले बस तिनके भर हैं।
अब वक्त आ गया है कि समुची दुनिया के पैमाने पर हर देश में मजदूर वर्ग यह पहलकदमी ले। वक्त आ गया है कि वह पिछले तीन-चार दशकों से जारी पीछे हटने की प्रक्रिया को बन्द करे और सीधे हमला करे। वह पूंजीपति वर्ग को इतिहास के कूड़ेदान में फेंक देने के लिए ऐतिहासिक प्रक्रिया को शुरू करे।
कहा जा सकता है कि आज मजदूर वर्ग इस हमले के लिए तैयार नहीं है। वह अपनी क्रांतिकारी पार्टियों के पीछे गोलबंद नहीं है। मजदूर वर्ग के भीतर सुधारवादियों और पूंजीवादी पार्टियों की घुस पैठ है।
लेकिन मजदूर वर्ग ने 1905 और फरवरी 1917 की रूसी क्रांति के जरिये तथा इसके भी पहले 1871 में पेरिस कम्यून के जरिये पहले ही यह दिखा रखा है कि वह अपनी पार्टियों के कमजोर होने की स्थिति में भी पहलकदमी ले सकता है। उसकी इस पहलकदमी से उसकी पार्टियों के बढ़ने और मजबूत होने की प्रक्रिया बहुत तेज हो जायेगी। मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी हिरावलों का भी आज यही काम बनता है कि वे अपने प्रयासों को दो गुना चौगुना तेज कर दें।
आज पूंजीपति वर्ग मजदूर वर्ग से बेतरह भयभीत है। वह भयभीत है क्योंकि वह जानता है कि मजदूर वर्ग की किसी पहलकदमी की स्थिति में गरीबों-मेहनतकशों के अन्य हिस्से बहुत तेजी से उसके पीछे गोलबंद हो जायेंगे। पिछले तीन-चार दशकों में पूंजीपति वर्ग ने इन्हें जिस बुरी तरह तबाह-बरबाद किया है, उसे देखते हुए उसका भय जायज है। यदि अपनी जमीनों से उजाड़े जाते किसान और आदिवासी मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी पहलकदमी न होने पर भी भारत में इस कदर लड़ रहे हैं तो मजदूर वर्ग के उठ खड़े होने पर इसकी कल्पना ही की जा सकती है। पूंजीपति वर्ग यदि भय के मारे थर-थर कांप रहा है तो यह स्वाभाविक है।
आज पहले कभी के मुकाबले क्रांति की विश्व व्यापी ज्वाला के भड़कने के लिए सामग्री मौजूद है। आइसलैण्ड, बाल्टिक देशों, दक्षिण यूरोप के देशों से लेकर अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका तक भीतर-भीतर आग सुलग रही है। यहां-वहां लपटें दिखाई भी पड़ जा रही हैं। निश्चित तौर आने वाला समय मजदूर वर्ग और उसको इंकलाब के लिए लामबंद करने वाले इंकलाबियों के लिए ऐतिहासिक पहलकदमी लेने का चुनौतीपूर्ण समय है। उन्हें किसी भी हालत में नहीं चूकना होगा।
आज से करीब पांच साल पहले ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने अपनी सुरक्षा के लिए तीस साल की योजना बनाई थी। उस योजना में यह महत्वपूर्ण बात थी कि इस काल के अंतिम वर्षों में बढ़ती असमानता इत्यादि के चलते मार्क्सवादी विचारों की ग्राह्यता बढ़ जायेगी और उसके अनुरूप समस्याओं से निपटने के लिए उन्हें तैयारी रखनी चाहिए। लगता है कि ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने जो तीस साल का समय सोचा था वह बहुत ज्यादा था। वह बीस, दस या पांच साल भी हो सकता है। यही नहीं यदि कल-परसों भी शुरुआत हो जाय तो इंकलाबियों को आश्चर्य नहीं होगा!

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