मिश्र में जनता सड़कों पर है। 1 फरवरी को राजधानी काहिरा में दसियों लाख लोग प्रदर्शन में शामिल हुए। देश के अन्य शहरों में भी लाखों-लाख लोग सड़कों पर उतर रहे हैं।
इसके पहले ट्यूनिशिया में 23 सालों से राष्ट्रपति की गद्दी पर काबिज अबीदीन बेन अली देश छोड़कर भाग गया। उसे सऊदी अरब के प्रतिक्रियावादी शेखों ने शरण दी जो अपने यहां औपचारिक जनतंत्र भी बहाल करने को तैयार नहीं हैं। ट्यूनिशिया में जनता के सड़कों पर उतरने से ही उस दावनाल की शुरुआत हुयी जो अब सारे अरब जगत को अपने में समेट रही है। एक चिंगारी सारे जंगल में आग लगा सकती है यह कहावत सटीक ढंग से यथार्थ में रूपान्तरित हो रही है। पूरी दुनिया में लहराते बेरोजगारी के समुद्र में एक बेरोजगार स्नातक की क्या औकात? ट्यूनिशिया में ऐसे ही एक युवक के आग लगाकर आत्महत्या कर लेने से लोगों के अंदर उमड़ता-घुमड़ता क्रोध का लावा फूट पड़ा। नतीजा यह है कि दशकों से काबिज अरब के शासक देश छोड़कर भाग रहे हैं।
पूंजीपति वर्ग की ओर से कहा जा रहा है कि अरब देशों में विद्रोह की यह आग महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के कारण भड़क रही है। अरब देशों में काबिज औपचारिक या अनौपचारिक तानाशाह इसके लिए जिम्मेदार है इसलिए जनता उनके खिलाफ बगावत कर रही है। उन्हें हटाकर जनतंत्र कायम करने से सब ठीक हो जायेगा।
पूंजीपति वर्ग, खासकर साम्राज्यवादी पूंजीपति वर्ग बहुत चालाकी के साथ इन विद्रोहों को कुछ शासक व्यक्तियों के खिलाफ केन्द्रित कर अपनी समूची व्यवस्था को निशाने से बचा लेना चाहता है। वह मिश्र में हुस्नी मुबारक के बदले साम्राज्यवादियों के दूसरे पिट्ठू अल बरदेई को गद्दी पर बैठकर पूरे मामले को शांत कर देना चाहता है। ट्यूनिशिया में उसने यही किया है।
सामान्य चेतना का कोई भी व्यक्ति पूछ सकता है कि भारत में तो जनतंत्र है। फिर यहां महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार क्यों है? और वह भी बेतहाशा! महंगाई के कारण खाने-पीने की चीजों के दाम दुगुने-तिगुने हो चुके हैं। बेरोजगारी का एक नजारा तो 1 फरवरी को बरेली में देखने को मिला। भ्रष्टाचार का आलम यह है सतापक्ष और विपक्ष की खींचतान में संसद ही ठप हो जा रही है। यदि महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार ही अरब देशों में विद्रोहों के मूल में है तो भारत में भी विद्रोह होना ही चाहिए। और यहां तो आड़ लेने के लिए कोई तानाशाह भी नहीं है। तब इस विद्रोह को पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ जाने से कौन रोक सकता है?
अरब जगत में सारी तानाशाहियां साम्राज्यवादियों द्वारा पाली-पोषी हुयी हैं। वे उनके बिना टिक नहीं सकतीं। इन सबने साम्राज्यवादियों की निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों को धड़ल्ले से लागू किया है। इनके चलते पहले ही बदहाल जनता का जीवन और खस्ताहाल होता चला गया है। वर्तमान आर्थिक संकट ने रही-सही कसर पूरी कर दी। इस तरह इन विद्रोहों के मूल में दूरगामी तौर पर पूंजीवादी व्यवस्था, नजदीकी तौर पर उदारीकरण की नीतियां और तात्कालिक तौर पर वर्तमान आर्थिक संकट है। वर्तमान आर्थिक संकट पूंजीवादी व्यवस्था के सारे अंतर्विरोधों को तीखा बनाकर विद्रोहों को जन्म दे रहा है।
साम्राज्यवादियों, खासकर अमेरिकी साम्राज्यवादी चाहते हैं कि विद्रोहों को कुछ व्यक्तियों के खिलाफ लक्षित कर समूची व्यवस्था को बचा लिया जाय। वे पूंजीवादी व्यवस्था ही नहीं, उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों को भी बचा लेना चाहते हैं। अल-बरदेई जैसा उनका पिट्ठू जनतंत्र के साथ बाजार व्यवस्था की भी बात करता है।
इसीलिए साम्राज्यवादी सिविल सोसाइटी, फेसबुक इत्यादि का इतना शोर मचाए हुए हैं क्योंकि इनको ये प्रभावित कर सकते हैं। पूंजीपति वर्ग और मध्यवर्ग के इन लोगों में तो कुछ साम्राज्यवादियों के एजेन्ट भी हैं जबकि अधिकांश बाजार व्यवस्था के हिमायती हैं। उन्हें जनतंत्र चाहिए। बस!
लेकिन मजदूर वर्ग इस जनतंत्र की हकीकत अच्छी तरह देख रहा है। वह इसे यूरोप व अमेरिका में देख रहा है और वह इसे भारत जैसे देशों में भी देख रहा है। इस जनतंत्र में उसकी चमड़ी उधेड़ी जा रही है और चूं करने पर उसे लाठी-गोली खानी पड़ रही है। मंहगाई, भुखमरी, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार को लेकर उसे भ्रम नहीं है कि यह किन्हीं व्यक्तियों के कारनामे का नतीजा नहीं है। यह समूची पूंजीवादी व्यवस्था और विशेषकर वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था का परिणाम है।
इसीलिए मजदूर वर्ग किन्हीं व्यक्तियों पर निशाना साधने और जनतंत्र बहाल करने के बदले समूची पूंजीवादी व्यवस्था पर प्रहार करने के लिए आगे बढ़ेगा। अरब देशों में भी जनतंत्र बहाल होते ही उसके लिए स्पष्ट हो जायेगा कि स्थिति में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं हुआ।
मजदूर वर्ग के इस विद्रोह में मेहनतकशों के अन्य हिस्से तेजी से उसके साथ आ खड़े होंगे क्योंकि पिछले दो तीन दशकों में उदारीकृत पूंजीवाद ने उन्हें तबाह करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। पूंजीपति वर्ग और मध्यम वर्ग के असंतुष्ट तत्व इन मेहनतकशों को नेतृत्व नहीं दे सकते। केवल मजदूर वर्ग ही इन्हें नेतृत्व दे सकता है।
खुद मजदूर वर्ग को इन विद्रोहों में नेतृत्व देने के लिए उसकी पार्टियां आज बहुत बहुत कमजोर हैं। लेकिन मजदूर वर्ग के उठ खड़े होने पर यह कमजोरी भी तेजी से दूर हो जायेगी। इसके लिए मजदूर वर्ग के हिरावलों को, इंकलाबियों को आगे बढ़ कर मोर्चा संभालना होगा।
आने वाला समय इंकलाबियों के लिए बहुत संभावनापूर्ण समय है। निश्चित तौर पर उदारीकृत पूंजीवाद ने और उसमें भी वर्तमान आर्थिक संकट ने मजदूर वर्ग और अन्य मेहनतकश जनता की जिन्दगी अत्यन्त नारकीय बना दी है। लेकिन यही अब विद्रोहों को भी जन्म दे रहे हैं। मजदूर वर्ग की ऐतिहासिक पहलकदमी का दिन नजदीक आ रहा है। मजदूर वर्ग के हिरावलों को भी अपनी क्रांतिकारी पहल कदमी दस गुना बीस गुना बढ़ा देनी होगी। मजदूर वर्ग के हर अचेत प्रयास को सचेत प्रयास में बदल कर चिंगारी को दावानल में रूपान्तरित कर देना होगा।
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