जून मध्य सेे ही कश्मीर विद्रोह की अवस्था में है। अब तक सरकारी रिपोर्टों के अनुसार पुलिस और सुरक्षा बलों की फायरिंग में पचासों लोग मारे जा चुके हंै। सेना द्वारा शांति कायम करने के प्रयास भी नाकामयाब रहे हैं। बड़बोले पी.चिदंबरम के भी होश उड़ चुके हैं। वे केवल कत्लेआम की ही सोच रहे हैं। बड़े पूंजीपतियों द्वारा खुलेआम मांग की जा रही है कि उपद्रवियों से निपटा जाय, हिंसा से निपटकर फिर वार्ता की जाय।
अभी बहुत दिन नहीं हुए जब भारत सरकार यह कह रही थी कि कश्मीर के हालात सामान्य हो रहे हैं, कि कुछ समय बाद वहां से सेना हटा ली जायेगी। पिछले लोकसभा चुनावों में पड़े वोटों के आघार पर यह बात की जा रही थी कि कश्मीर में अलगाववादी अलगाव में पड़ गये हैं और वहां भारत विरोघ समाप्त हो गया है। अब तो बस ठंडे पड़ चुके अलगाववादी नेताओं को समेटने की बात है।
वर्तमान विद्रोह के बाद अब सरकार उल्टी बात कह रही है। कभी वह कहती है कि यह गिलानी जैसे कट्टरपंथी लोगों की कारस्तानी है तो कभी कहती है कि इसमें किसी खास व्यक्ति या संगठन का हाथ नहीं है। सरकार को खुद नहीं मालूम कि वह क्या स्थापित करे।
भारत का पूंजीपति वर्ग और उसकी सरकार कश्मीर के मामले में यही कर सकती है। एक ओर वह संगीनों के बल पर आंदोलन को कुचलने का प्रयास करती है और दूसरी ओर इसके नेताओं को खरीदने का। दोनों में असफल रहने के बाद वह इंतजार करती है कि लोगों का गुस्सा ठंडा हो जाय।
भारत सरकार अक्सर ही इस तथ्य को छिपाती है कि पिछले बीस सालों में कश्मीर में करीब 1 लाख लोग मारे जा चुके हैं। एक लाख कोई मामूली संख्या नहीं होती। यदि कहीं और का मामला होता तो भारत सरकार भी पूरी बेशर्मी से ‘मानव संहार’ का मुद्दा उछाल रही होती। लेकिन यहां तो कश्मीर में नर संहार उसका आंतरिक मामला है।
भारत का पूंजीपति वर्ग जम्मू कश्मीर को किसी भी कीमत पर अपने से अलग नहीं होने देना चाहता। यह उसके पूंजीवादी चरित्र के अनुरूप ही है। इसके लिए वह छल-क्षद्म का इस्तेमाल करने से लेकर नर -संहार तक किसी भी चीज से गुरेज नहीं करता।
जम्मू-कश्मीर की समस्या का बीज तभी पड़ा जब देश आजाद हुआ ठीक उसी तरह जैसे उŸार-पूर्व की राष्ट्रीयताओं की समस्या के। आजादी से पहले जम्मू-कश्मीर प्रदेश एक रियासत थी। इसका शासक था हरी सिंह। यह रियासत उन पांच सौ से ज्यादा रियासतों में एक थी जिन्हें आजादी के बाद भारत के पूंजीपति वर्ग ने अपने में मिलाया।
1947 में सŸाा हस्तांतरण के समय अंग्रेज शासकों ने एक चाल के तहत तत्कालीन भारत की सभी रियासतों को यह अघिकार दे दिया कि वे चाहें तो हिन्दुस्तान में शामिल हों, चाहें तो पाकिस्तान में। नहीं तो स्वतंत्र रहें। हैदराबाद व जूनागढ़ की रियासत के साथ जम्मू-कश्मीर की रियासत बड़ी रियासत थी जिसके शासकों की अपनी महत्वाकांक्षाएं थीं।
1947 में पहले हरी सिंह ने यही सोचा कि वह अपनी स्वतंत्र रियासत बनाए रखे। भारत-पाकिस्तान की सीमा रेखा पर होने के कारण उसे यह संभव भी दीख रहा था। वह दो देशों के बीच में अपना स्वतंत्र अस्तित्व देखता था। ब्रिटिश साम्राज्यवादियों का उसे शह भी था जो इसे अपने लिए फायदेमंद समझते थे। वे वहां अपना अड्डा कायम कर भारत- पाकिस्तान को प्रभावित कर सकते थे।
लेकिन जल्दी ही हरी सिंह के लिए स्पष्ट हो गया कि उसकी स्वतंत्र रियासत नहीं चल सकती। उसे पाकिस्तान और भारत सरकार से तो खतरा था ही, उसे एक तीसरी दिशा से और वह भी ज्यादा बड़ा खतरा दिखाई पड़ा। यह खतरा था नेशनल कांफ्रंेस का आन्दोलन।
1930 के दशक से शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में एक राष्ट्रवादी आंदोलन पैदा हुआ था। इसे नेशनल कांफ्रेंस के तहत गोलबंद किया गया। यह आंदोलन मूलतः हरी सिंह के रजवाड़े शासन के खिलाफ था लेकिन साथ ही अप्रत्यक्षतः अंग्रेजी शासन के भी। यह कश्मीरी राष्ट्रीयता का आंदोलन था।
नेशनल कांफ्रेंस और शेख अब्दुल्ला के कांग्रेस पार्टी और नेहरू जैसे नेताओं से अपेक्षाकृत मघुर संबंघ थे। वस्तुतः नेहरू चालाकी पूर्वक यह भ्रम फैलाते रहते थे कि आजादी के बाद कश्मीरी राष्ट्रीयता को मान्यता मिलेगी।
नेशनल कांफ्रेंस के आंदोलन के दबाव में हरी सिंह ने पाकिस्तान सरकार के साथ समझौता कर पाकिस्तान में विलय करने की सोची। लेकिन वहां की शर्तें उसे कठोर प्रतीत हुयीं। उसके बाद उसने भारत सरकार से सौदेबाजी की। इस सौदेबाजी के परिणाम स्वरूप जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा बन गया। यहां यह गौर करने की बात है कि इस समझौते में भारत सरकार द्वारा बल प्रयोग की भी अपनी भूमिका थी।
भारत सरकार और हरी सिंह के बीच जो सौदेबाजी हुयी उसके परिणाम स्वरूप भारतीय संविघान की घारा 370 अस्तित्व में आई हालांकि इसके पीछे नेशनल कांफ्रेेंस के दबाव का भी बड़ा हाथ था। उसकी सहमति के बिना यह समझौता अस्तित्व में नही आ सकता था।
घारा-370 के तहत जम्मू कश्मीर को विशेष स्वायŸता अघिकार मिले। उसकी अपनी अलग संविघान सभा होनी थी, उसका अलग संविघान व झण्डा होना था। उसका प्रघानमंत्री होना था। भारत सरकार का अघिकार वहां केवल कुछ ही क्षेत्रों में लागू होना था-सुरक्षा, संचार, मुद्रा इत्यादि में। विशेष बात यह थी कि भारतीय संविघान की घारा 370 में परिवर्तन का अघिकार भी जम्मू-कश्मीर की संविघान सभा को ही दिया गया, भारतीय संसद को नहीं।
लेकिन भारतीय पूंजीपति वर्ग के इरादे कुछ और थे। घारा 370 के तहत जम्मू कश्मीर का भारत में विलय तो महज पहला कदम था। उसे तो जम्मू-कश्मीर को पूरा ही निगलना था। इसके लिए उसने स्वनामघन्य नेहरू के जमाने में कार्रवायी करनी शुरू कर दी जब शेख अब्दुल्ला के दोस्त नेहरू ने उन्हें जेल में डलवा दिया।
हुआ यूं कि विलय की शर्तों के अनुरूप जम्मू कश्मीर संविघान सभा के चुनाव हुये और उसमें नेशनल कांफ्रेंस ने बहुमत हासिल कर लिया। इस संविघान सभा में नेशनल कांफ्रेंस ने लगभग संपूर्ण स्वायŸाता का संविघान बनाना शुरू कर दिया। नेहरू सरकार कुछ दिन तो इंतजार करती रही लेकिन फिर उसने अपना खूनी पंजा दिखाया। उसने शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार कर लिया, संविघान सभा को भंग कर दिया और अपना एक पिट्ठू वहां बैठा दिया। इस सबके विरोघ में हुए प्रदर्शनों में सैकड़ों लोग मारे गये।
यह तो अभी महज शुरुआत थी। अपनी कठपुतली सरकार से वह जम्मू-कश्मीर के मामले में और हस्तक्षेप करती रही। यही नहीं घारा 370 में भी वह छेड़-छाड़ करती रही। इसके लिए वह जम्मू -कश्मीर की संविघान सभा नहीं बल्कि उसकी विघान सभा का इस्तेमाल करती रही।
दस साल तक जेल में रखने के बाद जब भारत सरकार को लगा कि शेख अब्दुल्ला पर्याप्त पालतू बन गये हैं तो उन्हें रिहा कर दिया गया। कुछ सालों तक सौदेबाजी के बाद जब उन्हें भारत के पूंजीपति की इच्छाओं के अनुरूप नहीं पाया गया तो एक बार फिर उन्हें जेल में डाल दिया गया। फिर वे बाद में तभी बाहर आये जब एकदम पालतू बन गये थे। अब तक भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर में और दखल कर लिया था।
1980 के दशक में इस खेल का अंतिम चरण शुरू हुआ। तब तक शेख अब्दुल्ला गुजर चुके थे और उनके पुत्र फारुख अब्दुल्ला नेशनल कांन्फ्रेंस के नेता थे। राजीव गान्घी की सरकार ने फारुख अब्दुल्ला की सरकार को बरखास्त कर अपना पिट्ठू वहां बैठाया। इसने ऊंट के ऊपर तिनके का काम किया। कश्मीर के लोग यह देखकर बेइंतहा भड़क गये कि दिल्ली के हुक्मरान फारुख अब्दुल्ला और नेशनल कांफ्रेंस जैसे पालतू को भी सहन करने को तैयार नहीं। वर्षों से संचित होता हुआ लावा 1990 में फूट पड़ा। तब से अब तक सारे दमन के बावजूद भारत सरकार वहां अपना शांतिपूर्ण शासन कायम करने में कामयाब नहीं हो पाई है।
इस बार के विद्रोह में कश्मीरियों का नेतृत्व किया जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट ने। नेशनल कांफ्रेंस के पालतू बन जाने के बाद इसने कश्मीरी राष्ट्रीयता की मांग को बुलंद किया। जब ऊपरी शांति भंग हुयी तो इसके नेतृत्व में सारा कश्मीर उबल पड़ा।
और तब भारत और पाकिस्तान के शासकों की सारी घिनौनी चालें सामने आईं। यदि भारत के शासक जम्मू-कश्मीर को पूर्णतया पचा लेना चाहते हैं तो पाकिस्तान के शासक भी 1947 से ही इसी फिक्र में हैं। जे.के.एल.एफ. के नेताओं के पाकिस्तान में शरण लेने से उसकी उम्मीदों को बल मिला।
लेकिन जब बाद में उसे लगा कि जे. के.एल.एफ. उतना उसकी उम्मीदों के अनुरूप नहीं चल रहा है तो फिर उसने विद्रोेह का इस्तेमाल कर वहां आतंकवादी संगठनों को खड़ा करना शुरू कर दिया। यही नहीं उसने कुछ आतंकवादी संगठन कश्मीर में निर्यात भी किये।
दूसरी ओर स्वयं भारत सरकार ने जे.के.एल.एफ. की कमर तोड़ने के लिए आतंकवादी संगठनों को हवा दी। उसकी खुफिया एजेन्सियों ने इसमें पूरी जान लगा दी। परिणाम यह हुआ कि न केवल जे.के.एल.एफ. किनारे लग गया बल्कि कश्मीरी राष्ट्रीयता के आंदोलन के बदले मुस्लिम कट्टरपंथी आंदोलन प्रमुख हो गया। भांति-भांति के मुस्लिम कट्टरपंथी आतंकवादी संगठन अपने घृणित कारनामे अंजाम देने लगे।
कश्मीरी राष्ट्रीयता के बदले मुस्लिम कट्टरपंथी आतंकी घारा का प्रमुख हो जाना भारत और पाकिस्तान दोनों के शासकों के लिए फायदेमंद था। पाकिस्तान के शासक इसे अपने इस्लामी शासन से जोड़ सकते थे और पाकिस्तान तथा जम्मू-कश्मीर के बीच घार्मिक एकात्मकता को प्रघान बना सकते थे। कश्मीरी राष्ट्रीयता ने केवल उनके किसी काम की नहीं थी बल्कि घातक भी थी। यह तब और था जब खुद पाकिस्तान में विभिन्न राष्ट्रीयताओं के आंदोलन पाकिस्तानी शासकों के लिए समस्या बने हुए हैं। वे इस मुस्लिम पहचान को अफगानिस्तान में अपने खेल के लिए इस्तेमाल कर सकते थे। कहने की बात नहीं की अपनी जनता को इस्लाम की घुट्टी उनके लिए बहुत फायदेमंद थी।
यह भारतीय शासकों के लिए भी फायदेमंद था। वे तब इसे इस्लामी आतंकवादियों के खिलाफ संघर्ष के रूप में पेश कर सकते थे। यही नहीं वे इसे अमेरिकी साम्राज्यवादियों के मुस्लिम आतंकवाद विरोघी अभियान से भी जोड़ सकते थे। वे सारी दुनिया को बता सकते थे कि जम्मू-कश्मीर में कोई समस्या नहीं है। यह तो बस कुछ विदेश से आये मुस्लिम कट्टरपंथियों का काम है। यह विदेशी एजेन्टों का काम है।
ऐसा करके वे कश्मीर समस्या के उस अंतर्राष्ट्रीकरण से बचने का प्रयास कर रहे थे जो 1948 में भारत ही जम्मू -कश्मीर के मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में ले गया था। तब वहां तय हुआ था कि जम्मू-कश्मीर में एक जनमत संग्रह कर यह फैसला किया जाय कि वहां के लोग क्या चाहते हंै- भारत में विलय, पाकिस्तान में विलय या स्वतंत्रता। भारत सरकार की पिछले 60-62 सालों में कभी हिम्मत नहीं पड़ी कि वह जनमत संग्रह करवाये। परिणाम वह पहले से जानती है।
पिछले 17-18 सालों से जम्मू-कशमीर में भारत सरकार, पाकिस्तान सरकार और मुस्लिम कट्टरपंथी आतंकवादियों का खेल चल रहा था। लेकिन अब एक उठान शुरू हुआ है। आतंकवादियों से अलग एक बार फिर जनता सामने आ गयी है। और वह भी केवल पत्थरों का हथियार अपने हाथों में लिए हुए। जनता को इस विद्रोह से भारत सरकार को यह नहीं सूझ रहा है कि वह क्या करे। वह किससे वार्ता करे, किसे खरीदे, किसे तोड़े।
लेकिन इस विद्रोह की यही सबसे बड़ी कमजोरी भी है। निश्चित विचारघारा और रणनीति पर खड़े क्रांतिकारी संगठन के ठोस नेतृत्व के बिना इस विद्रोह का वक्त के साथ बिखर जाना तय है। वस्तुतः तो आज के सारे राष्ट्रवादी आंदोलनों की तरह कश्मीरी राष्ट्रीयता के आंदोलन की भी यही कमजोरी है कि यह उन लोगों के नेतृत्व में चल रहा है जो इसे किसी अंजाम तक नहीं पहुंचा सकते। आज राष्ट्रीयता के आंदोलन केवल मजदूर वर्ग के नेतृत्व में ही सफल हो सकते हैं।पूंजीपति वर्ग या मध्यम वर्ग के नेतृत्व में ये सफल नहीं हो सकते।
भारत में इन राष्ट्रीयताओं के आंदोलन का सवाल सीघे भारत की क्रांति से जुड़ा हुआ है। केवल भारत में मजदूर वर्ग की क्रांति ही राष्ट्रीयता की समस्याओं को हल कर सकती है। लेकिन वह कैसे हल करेगी? वह हल करेगी इन राष्ट्रीयताओं को आत्म निर्णय का अघिकार देकर-स्वतंत्र होने सहित। लेकिन क्या भारत के मजदूर वर्ग का या जम्मू-कश्मीर के मजदूर वर्ग का हित इस बात में है कि जम्मू-कश्मीर भारत से अलग हो जाय या भारत टुकड़े-टुकड़े हो जाय। नहीं! उसका हित भारत के एक रहने में है। इसी में समाजवाद का निर्माण सही तरीके से हो सकता है। लेकिन यह एकता वर्तमान आघार पर हासिल नहीं की जा सकती। यह एकता स्वैच्छिक होगी और इसके पहले सभी राष्ट्रीयताओं को अलग होने का अघिकार देना होगा। यह भी हो सकता है कि कुछ समय के लिए कुछ या सभी राष्ट्रीयताएं अलग हो जायं। लेकिन फिर जब वे एक स्वैच्छिक समाजवादी संघ में गठित होंगी तो यह एकता बिल्कुल ही नयी जमीन पर होगी।
यही नहीं यदि भारत की भविष्य की समाजवादी क्रांति ज्यादा व्यापक स्वरूप ग्रहण करती है और जिसका ग्रहण करना लगभग तय है तो यह समूचे दक्षिण एशिया की क्रांति बन जायगी। तब पाकिस्तान बांग्लादेश, श्रीलंका इत्यादि भी इसके लपेटे में आ जायेंगे। ऐसी अवस्था में भविष्य में दक्षिण एशिया का समाजवादी संघ अस्तित्व में आ जायेगा जो न केवल राष्ट्रीयताओं की समस्याओं का समाघान करेगा बल्कि इस क्षेत्र के सभी देशों के आपसी विग्रहों का भी समाघान कर देगा।
स्वाभाविक है कि भारतीय क्रांति के लिए भारत की मजदूर पार्टी सभी राष्ट्रीयताओं की पार्टी होगी। यहां न तो अलग-अलग राष्ट्रीयताओं की अलग-अलग मजदूर पार्टी होगी और न ही इस तरह की पार्टियों का कोई संघ। राष्ट्रीयताओं के आत्म निर्णय के अघिकार के समर्थन का मतलब खुद मजदूर पार्टी का इन राष्ट्रीयताओं के हिसाब से बंट जाना नहीं होता।
इस कोण से देखने पर कश्मीर की राष्ट्रीयता की समस्या कश्मीरी राष्ट्रवादियों की समस्या नहीं बल्कि भारत की मजदूर क्रांति की समस्या बन जाती है। इसका समाघान भी यहीं से निकलेगा। जब तक ऐसा नहीं होता तब तक कांग्रेस, भाजपा, भाकपा-माकपा सभी राष्ट्रीय एकता-अखण्डता की चीख पुकार मचाती रहेंगी और कश्मीर की जनता पर लाठी-गोली बरसाती रहेंगी। शेष भारत के पूंजीपति वर्ग और राष्ट्रीय उन्माद से ग्रस्त मध्यम वर्ग को यह गंवारा नहीं होगा कि देश का कोई हिस्सा उसके हाथ से निकल जाय। इसे होने से रोकने के लिए वे खून का समुंदर भी बहा देंगे। इस समय कश्मीर में यही हो रहा है।
वर्तमान विद्रोह के बाद अब सरकार उल्टी बात कह रही है। कभी वह कहती है कि यह गिलानी जैसे कट्टरपंथी लोगों की कारस्तानी है तो कभी कहती है कि इसमें किसी खास व्यक्ति या संगठन का हाथ नहीं है। सरकार को खुद नहीं मालूम कि वह क्या स्थापित करे।
भारत का पूंजीपति वर्ग और उसकी सरकार कश्मीर के मामले में यही कर सकती है। एक ओर वह संगीनों के बल पर आंदोलन को कुचलने का प्रयास करती है और दूसरी ओर इसके नेताओं को खरीदने का। दोनों में असफल रहने के बाद वह इंतजार करती है कि लोगों का गुस्सा ठंडा हो जाय।
भारत सरकार अक्सर ही इस तथ्य को छिपाती है कि पिछले बीस सालों में कश्मीर में करीब 1 लाख लोग मारे जा चुके हैं। एक लाख कोई मामूली संख्या नहीं होती। यदि कहीं और का मामला होता तो भारत सरकार भी पूरी बेशर्मी से ‘मानव संहार’ का मुद्दा उछाल रही होती। लेकिन यहां तो कश्मीर में नर संहार उसका आंतरिक मामला है।
भारत का पूंजीपति वर्ग जम्मू कश्मीर को किसी भी कीमत पर अपने से अलग नहीं होने देना चाहता। यह उसके पूंजीवादी चरित्र के अनुरूप ही है। इसके लिए वह छल-क्षद्म का इस्तेमाल करने से लेकर नर -संहार तक किसी भी चीज से गुरेज नहीं करता।
जम्मू-कश्मीर की समस्या का बीज तभी पड़ा जब देश आजाद हुआ ठीक उसी तरह जैसे उŸार-पूर्व की राष्ट्रीयताओं की समस्या के। आजादी से पहले जम्मू-कश्मीर प्रदेश एक रियासत थी। इसका शासक था हरी सिंह। यह रियासत उन पांच सौ से ज्यादा रियासतों में एक थी जिन्हें आजादी के बाद भारत के पूंजीपति वर्ग ने अपने में मिलाया।
1947 में सŸाा हस्तांतरण के समय अंग्रेज शासकों ने एक चाल के तहत तत्कालीन भारत की सभी रियासतों को यह अघिकार दे दिया कि वे चाहें तो हिन्दुस्तान में शामिल हों, चाहें तो पाकिस्तान में। नहीं तो स्वतंत्र रहें। हैदराबाद व जूनागढ़ की रियासत के साथ जम्मू-कश्मीर की रियासत बड़ी रियासत थी जिसके शासकों की अपनी महत्वाकांक्षाएं थीं।
1947 में पहले हरी सिंह ने यही सोचा कि वह अपनी स्वतंत्र रियासत बनाए रखे। भारत-पाकिस्तान की सीमा रेखा पर होने के कारण उसे यह संभव भी दीख रहा था। वह दो देशों के बीच में अपना स्वतंत्र अस्तित्व देखता था। ब्रिटिश साम्राज्यवादियों का उसे शह भी था जो इसे अपने लिए फायदेमंद समझते थे। वे वहां अपना अड्डा कायम कर भारत- पाकिस्तान को प्रभावित कर सकते थे।
लेकिन जल्दी ही हरी सिंह के लिए स्पष्ट हो गया कि उसकी स्वतंत्र रियासत नहीं चल सकती। उसे पाकिस्तान और भारत सरकार से तो खतरा था ही, उसे एक तीसरी दिशा से और वह भी ज्यादा बड़ा खतरा दिखाई पड़ा। यह खतरा था नेशनल कांफ्रंेस का आन्दोलन।
1930 के दशक से शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में एक राष्ट्रवादी आंदोलन पैदा हुआ था। इसे नेशनल कांफ्रेंस के तहत गोलबंद किया गया। यह आंदोलन मूलतः हरी सिंह के रजवाड़े शासन के खिलाफ था लेकिन साथ ही अप्रत्यक्षतः अंग्रेजी शासन के भी। यह कश्मीरी राष्ट्रीयता का आंदोलन था।
नेशनल कांफ्रेंस और शेख अब्दुल्ला के कांग्रेस पार्टी और नेहरू जैसे नेताओं से अपेक्षाकृत मघुर संबंघ थे। वस्तुतः नेहरू चालाकी पूर्वक यह भ्रम फैलाते रहते थे कि आजादी के बाद कश्मीरी राष्ट्रीयता को मान्यता मिलेगी।
नेशनल कांफ्रेंस के आंदोलन के दबाव में हरी सिंह ने पाकिस्तान सरकार के साथ समझौता कर पाकिस्तान में विलय करने की सोची। लेकिन वहां की शर्तें उसे कठोर प्रतीत हुयीं। उसके बाद उसने भारत सरकार से सौदेबाजी की। इस सौदेबाजी के परिणाम स्वरूप जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा बन गया। यहां यह गौर करने की बात है कि इस समझौते में भारत सरकार द्वारा बल प्रयोग की भी अपनी भूमिका थी।
भारत सरकार और हरी सिंह के बीच जो सौदेबाजी हुयी उसके परिणाम स्वरूप भारतीय संविघान की घारा 370 अस्तित्व में आई हालांकि इसके पीछे नेशनल कांफ्रेेंस के दबाव का भी बड़ा हाथ था। उसकी सहमति के बिना यह समझौता अस्तित्व में नही आ सकता था।
घारा-370 के तहत जम्मू कश्मीर को विशेष स्वायŸता अघिकार मिले। उसकी अपनी अलग संविघान सभा होनी थी, उसका अलग संविघान व झण्डा होना था। उसका प्रघानमंत्री होना था। भारत सरकार का अघिकार वहां केवल कुछ ही क्षेत्रों में लागू होना था-सुरक्षा, संचार, मुद्रा इत्यादि में। विशेष बात यह थी कि भारतीय संविघान की घारा 370 में परिवर्तन का अघिकार भी जम्मू-कश्मीर की संविघान सभा को ही दिया गया, भारतीय संसद को नहीं।
लेकिन भारतीय पूंजीपति वर्ग के इरादे कुछ और थे। घारा 370 के तहत जम्मू कश्मीर का भारत में विलय तो महज पहला कदम था। उसे तो जम्मू-कश्मीर को पूरा ही निगलना था। इसके लिए उसने स्वनामघन्य नेहरू के जमाने में कार्रवायी करनी शुरू कर दी जब शेख अब्दुल्ला के दोस्त नेहरू ने उन्हें जेल में डलवा दिया।
हुआ यूं कि विलय की शर्तों के अनुरूप जम्मू कश्मीर संविघान सभा के चुनाव हुये और उसमें नेशनल कांफ्रेंस ने बहुमत हासिल कर लिया। इस संविघान सभा में नेशनल कांफ्रेंस ने लगभग संपूर्ण स्वायŸाता का संविघान बनाना शुरू कर दिया। नेहरू सरकार कुछ दिन तो इंतजार करती रही लेकिन फिर उसने अपना खूनी पंजा दिखाया। उसने शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार कर लिया, संविघान सभा को भंग कर दिया और अपना एक पिट्ठू वहां बैठा दिया। इस सबके विरोघ में हुए प्रदर्शनों में सैकड़ों लोग मारे गये।
यह तो अभी महज शुरुआत थी। अपनी कठपुतली सरकार से वह जम्मू-कश्मीर के मामले में और हस्तक्षेप करती रही। यही नहीं घारा 370 में भी वह छेड़-छाड़ करती रही। इसके लिए वह जम्मू -कश्मीर की संविघान सभा नहीं बल्कि उसकी विघान सभा का इस्तेमाल करती रही।
दस साल तक जेल में रखने के बाद जब भारत सरकार को लगा कि शेख अब्दुल्ला पर्याप्त पालतू बन गये हैं तो उन्हें रिहा कर दिया गया। कुछ सालों तक सौदेबाजी के बाद जब उन्हें भारत के पूंजीपति की इच्छाओं के अनुरूप नहीं पाया गया तो एक बार फिर उन्हें जेल में डाल दिया गया। फिर वे बाद में तभी बाहर आये जब एकदम पालतू बन गये थे। अब तक भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर में और दखल कर लिया था।
1980 के दशक में इस खेल का अंतिम चरण शुरू हुआ। तब तक शेख अब्दुल्ला गुजर चुके थे और उनके पुत्र फारुख अब्दुल्ला नेशनल कांन्फ्रेंस के नेता थे। राजीव गान्घी की सरकार ने फारुख अब्दुल्ला की सरकार को बरखास्त कर अपना पिट्ठू वहां बैठाया। इसने ऊंट के ऊपर तिनके का काम किया। कश्मीर के लोग यह देखकर बेइंतहा भड़क गये कि दिल्ली के हुक्मरान फारुख अब्दुल्ला और नेशनल कांफ्रेंस जैसे पालतू को भी सहन करने को तैयार नहीं। वर्षों से संचित होता हुआ लावा 1990 में फूट पड़ा। तब से अब तक सारे दमन के बावजूद भारत सरकार वहां अपना शांतिपूर्ण शासन कायम करने में कामयाब नहीं हो पाई है।
इस बार के विद्रोह में कश्मीरियों का नेतृत्व किया जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट ने। नेशनल कांफ्रेंस के पालतू बन जाने के बाद इसने कश्मीरी राष्ट्रीयता की मांग को बुलंद किया। जब ऊपरी शांति भंग हुयी तो इसके नेतृत्व में सारा कश्मीर उबल पड़ा।
और तब भारत और पाकिस्तान के शासकों की सारी घिनौनी चालें सामने आईं। यदि भारत के शासक जम्मू-कश्मीर को पूर्णतया पचा लेना चाहते हैं तो पाकिस्तान के शासक भी 1947 से ही इसी फिक्र में हैं। जे.के.एल.एफ. के नेताओं के पाकिस्तान में शरण लेने से उसकी उम्मीदों को बल मिला।
लेकिन जब बाद में उसे लगा कि जे. के.एल.एफ. उतना उसकी उम्मीदों के अनुरूप नहीं चल रहा है तो फिर उसने विद्रोेह का इस्तेमाल कर वहां आतंकवादी संगठनों को खड़ा करना शुरू कर दिया। यही नहीं उसने कुछ आतंकवादी संगठन कश्मीर में निर्यात भी किये।
दूसरी ओर स्वयं भारत सरकार ने जे.के.एल.एफ. की कमर तोड़ने के लिए आतंकवादी संगठनों को हवा दी। उसकी खुफिया एजेन्सियों ने इसमें पूरी जान लगा दी। परिणाम यह हुआ कि न केवल जे.के.एल.एफ. किनारे लग गया बल्कि कश्मीरी राष्ट्रीयता के आंदोलन के बदले मुस्लिम कट्टरपंथी आंदोलन प्रमुख हो गया। भांति-भांति के मुस्लिम कट्टरपंथी आतंकवादी संगठन अपने घृणित कारनामे अंजाम देने लगे।
कश्मीरी राष्ट्रीयता के बदले मुस्लिम कट्टरपंथी आतंकी घारा का प्रमुख हो जाना भारत और पाकिस्तान दोनों के शासकों के लिए फायदेमंद था। पाकिस्तान के शासक इसे अपने इस्लामी शासन से जोड़ सकते थे और पाकिस्तान तथा जम्मू-कश्मीर के बीच घार्मिक एकात्मकता को प्रघान बना सकते थे। कश्मीरी राष्ट्रीयता ने केवल उनके किसी काम की नहीं थी बल्कि घातक भी थी। यह तब और था जब खुद पाकिस्तान में विभिन्न राष्ट्रीयताओं के आंदोलन पाकिस्तानी शासकों के लिए समस्या बने हुए हैं। वे इस मुस्लिम पहचान को अफगानिस्तान में अपने खेल के लिए इस्तेमाल कर सकते थे। कहने की बात नहीं की अपनी जनता को इस्लाम की घुट्टी उनके लिए बहुत फायदेमंद थी।
यह भारतीय शासकों के लिए भी फायदेमंद था। वे तब इसे इस्लामी आतंकवादियों के खिलाफ संघर्ष के रूप में पेश कर सकते थे। यही नहीं वे इसे अमेरिकी साम्राज्यवादियों के मुस्लिम आतंकवाद विरोघी अभियान से भी जोड़ सकते थे। वे सारी दुनिया को बता सकते थे कि जम्मू-कश्मीर में कोई समस्या नहीं है। यह तो बस कुछ विदेश से आये मुस्लिम कट्टरपंथियों का काम है। यह विदेशी एजेन्टों का काम है।
ऐसा करके वे कश्मीर समस्या के उस अंतर्राष्ट्रीकरण से बचने का प्रयास कर रहे थे जो 1948 में भारत ही जम्मू -कश्मीर के मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में ले गया था। तब वहां तय हुआ था कि जम्मू-कश्मीर में एक जनमत संग्रह कर यह फैसला किया जाय कि वहां के लोग क्या चाहते हंै- भारत में विलय, पाकिस्तान में विलय या स्वतंत्रता। भारत सरकार की पिछले 60-62 सालों में कभी हिम्मत नहीं पड़ी कि वह जनमत संग्रह करवाये। परिणाम वह पहले से जानती है।
पिछले 17-18 सालों से जम्मू-कशमीर में भारत सरकार, पाकिस्तान सरकार और मुस्लिम कट्टरपंथी आतंकवादियों का खेल चल रहा था। लेकिन अब एक उठान शुरू हुआ है। आतंकवादियों से अलग एक बार फिर जनता सामने आ गयी है। और वह भी केवल पत्थरों का हथियार अपने हाथों में लिए हुए। जनता को इस विद्रोह से भारत सरकार को यह नहीं सूझ रहा है कि वह क्या करे। वह किससे वार्ता करे, किसे खरीदे, किसे तोड़े।
लेकिन इस विद्रोह की यही सबसे बड़ी कमजोरी भी है। निश्चित विचारघारा और रणनीति पर खड़े क्रांतिकारी संगठन के ठोस नेतृत्व के बिना इस विद्रोह का वक्त के साथ बिखर जाना तय है। वस्तुतः तो आज के सारे राष्ट्रवादी आंदोलनों की तरह कश्मीरी राष्ट्रीयता के आंदोलन की भी यही कमजोरी है कि यह उन लोगों के नेतृत्व में चल रहा है जो इसे किसी अंजाम तक नहीं पहुंचा सकते। आज राष्ट्रीयता के आंदोलन केवल मजदूर वर्ग के नेतृत्व में ही सफल हो सकते हैं।पूंजीपति वर्ग या मध्यम वर्ग के नेतृत्व में ये सफल नहीं हो सकते।
भारत में इन राष्ट्रीयताओं के आंदोलन का सवाल सीघे भारत की क्रांति से जुड़ा हुआ है। केवल भारत में मजदूर वर्ग की क्रांति ही राष्ट्रीयता की समस्याओं को हल कर सकती है। लेकिन वह कैसे हल करेगी? वह हल करेगी इन राष्ट्रीयताओं को आत्म निर्णय का अघिकार देकर-स्वतंत्र होने सहित। लेकिन क्या भारत के मजदूर वर्ग का या जम्मू-कश्मीर के मजदूर वर्ग का हित इस बात में है कि जम्मू-कश्मीर भारत से अलग हो जाय या भारत टुकड़े-टुकड़े हो जाय। नहीं! उसका हित भारत के एक रहने में है। इसी में समाजवाद का निर्माण सही तरीके से हो सकता है। लेकिन यह एकता वर्तमान आघार पर हासिल नहीं की जा सकती। यह एकता स्वैच्छिक होगी और इसके पहले सभी राष्ट्रीयताओं को अलग होने का अघिकार देना होगा। यह भी हो सकता है कि कुछ समय के लिए कुछ या सभी राष्ट्रीयताएं अलग हो जायं। लेकिन फिर जब वे एक स्वैच्छिक समाजवादी संघ में गठित होंगी तो यह एकता बिल्कुल ही नयी जमीन पर होगी।
यही नहीं यदि भारत की भविष्य की समाजवादी क्रांति ज्यादा व्यापक स्वरूप ग्रहण करती है और जिसका ग्रहण करना लगभग तय है तो यह समूचे दक्षिण एशिया की क्रांति बन जायगी। तब पाकिस्तान बांग्लादेश, श्रीलंका इत्यादि भी इसके लपेटे में आ जायेंगे। ऐसी अवस्था में भविष्य में दक्षिण एशिया का समाजवादी संघ अस्तित्व में आ जायेगा जो न केवल राष्ट्रीयताओं की समस्याओं का समाघान करेगा बल्कि इस क्षेत्र के सभी देशों के आपसी विग्रहों का भी समाघान कर देगा।
स्वाभाविक है कि भारतीय क्रांति के लिए भारत की मजदूर पार्टी सभी राष्ट्रीयताओं की पार्टी होगी। यहां न तो अलग-अलग राष्ट्रीयताओं की अलग-अलग मजदूर पार्टी होगी और न ही इस तरह की पार्टियों का कोई संघ। राष्ट्रीयताओं के आत्म निर्णय के अघिकार के समर्थन का मतलब खुद मजदूर पार्टी का इन राष्ट्रीयताओं के हिसाब से बंट जाना नहीं होता।
इस कोण से देखने पर कश्मीर की राष्ट्रीयता की समस्या कश्मीरी राष्ट्रवादियों की समस्या नहीं बल्कि भारत की मजदूर क्रांति की समस्या बन जाती है। इसका समाघान भी यहीं से निकलेगा। जब तक ऐसा नहीं होता तब तक कांग्रेस, भाजपा, भाकपा-माकपा सभी राष्ट्रीय एकता-अखण्डता की चीख पुकार मचाती रहेंगी और कश्मीर की जनता पर लाठी-गोली बरसाती रहेंगी। शेष भारत के पूंजीपति वर्ग और राष्ट्रीय उन्माद से ग्रस्त मध्यम वर्ग को यह गंवारा नहीं होगा कि देश का कोई हिस्सा उसके हाथ से निकल जाय। इसे होने से रोकने के लिए वे खून का समुंदर भी बहा देंगे। इस समय कश्मीर में यही हो रहा है।
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