संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा का चुनावी नारा हुआ करता था- हां हम कर सकते है। इस नारे के द्वारा उन्होंने अपने समर्थकों में यह उम्मीद जताई थी कि वे अमेरिका में वह बदलाव लायेंगे जिसे लोग चाहते थे।
लेकिन सच्चाई यह थी कि बराक ओबामा इस नारे के कारण राष्ट्रपति नहीं बने। वे राष्ट्रपति इसलिए बने कि अमेरिका के एकाधीकारी पूंजीपतियों ने वित्तीय अधिपतियों ने इस पद के लिए ओबामा का चुनाव किया। उन्होंने अच्छा भाषण देने वाले एक नौजवान वकील को जो अभी पांच&सात साल पहले तक गुमनाम था इस पद के काबिल समझा। उसमें उन्हें राष्ट्रपति वाली बात नजर आई। यह वह शख्स था जो लच्छेदार भाषण से लोगों को लुभा सकता था। यह उनके लिए अच्छा मुखौटा साबित हो सकता था। वह लंपट और उद्धत जार्ज बुश का जो परले दर्जे का जाहिल था अच्छा विकल्प हो सकता था। इसलिए उन्होंने उसे चुन लिया। उसके बाद उसे अमरीकियों के सामने पेश किया गया और अमेरिकी चुनावी राजनीति के सभी लटकों&झटकों से गुजरते हुए वह नौजवान वकील ह्वाइट हाउस में राष्ट्रपति की कुर्सी पर विराजमान हो गया।
ह्वाइट हाउस में विराजमान होने के बाद जैसे&जैसे समय गुजरता गया वैसे&वैसे अमरीकियों के सामने यह स्पष्ट होता गया कि वह अपने नारे के विपरीत ही चल सकता था। नहीं] वह नहीं कर सकता था। बल्कि ज्यादा सही&सही कहा जाय तो वह वही कर सकता था जो वित्तीय अधिपा अधिपति चाहते थे] जिन्होंने प्रथमतः उसे गद्दी पर बैठाया था।
जब यह नौजवान वकील कुर्सी पर विराजमान हुआ तो उस समय समूची दुनिया के साथ अमेरिका भयंकर आर्थिक संकट से गुजर रहा था। उस समय बराक ओबामा ने क्या किया? उन्होंने बहुत साहस का काम किया। वह साहस का काम था घृणित जार्ज बुश की नीतियों को जारी रखना। और भला जार्ज बुश की नीतियां क्या थीं] जार्ज बुश की नीतियां थीं मजदूर वर्ग की कीमत पर सट्टेबाज वित्तीय अधिपतियों को बचाना। जार्ज बुश प्रशासन वित्तीय अधिपतियों की सेवा में सैकड़ों अरबों डालर समर्पित कर चुका था। अब ओबामा प्रशासन हजारों अरब डालर समर्पित करने लगा। स्वभावतः ही यह सब अमेरिकी अर्थव्यवस्था को बचाने के नाम पर किया जाना था।
ओबामा का नारा अपने उल्टे रूप में तब उनके मुंह पर चिपक गया जब उन्होंने यह कहने की हिमाकत की कि वित्तीय सट्टेबाज निगमों को अपने बड़े अघिकारियों का अनाप&शनाप बोनस भुगतान नहीं करना चाहिए। न केवल इन निगमों ने यह बात नहीं मानी बल्कि २००९ में उन्होंने और ज्यादा बोनस का भुगतान किया। ओबामा को थूक कर चाटने का भी मौका नहीं मिला।
ओबामा के लिए नाक रगड़ने का अगला मौका तब आया जब उन्होंने स्वास्थ्य सेवाओं से संबंघित बिल संसद से पास कराने का प्रयास किया । आज की तारीख में स्वास्थ्य सेवाएं अमेरिका में सबसे बड़ा व्यवसाय हैं। सारी की सारी स्वास्थ्य सेवा निजी बहुराष्ट्रीय निगमों के हाथ में हैं। वहां बीमार पड़ने पर इलाज करा पाना तभी संभव है जब व्यक्ति का स्वास्थ्य बीमा हो। और यह बीमा कोई सस्ती चीज नहीं है। इसी कारण अमेरिका में मजदूर वर्ग की एक बड़ी आबादी स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित है।
ओबामा ने मजदूरों के इस हिस्से को स्वास्थ्य सुविधाएं दिलाने के लिए यह नहीं किया कि स्वास्थ्य सेवाओं को सार्वजनिक क्षेत्र में लाया जाय। नहीं इतना उग्र कदम ओबामा नहीं उठा सकते थे। उन्होंने बस इतना तय किया कि इन मजदूरों का भी स्वास्थ्य बीमा करा दिया जाय। यदि इनके पास भी स्वास्थ्य बीमा हो तो ये भी अपना इलाज करा सकते हैं।
अमेरिका में बीमा व्यवसाय भी बड़ा व्यवसाय है। बड़ी बहु राष्ट्रीय बीमा कंपनियां इस क्षेत्र में काबिज हैं। जब उन्हें पता चला कि सरकार अपनी ओर से मजदूरों को बीमा की सुविधा उपलब्ध करा रही है तो उन्हें अपने व्यवसाय पर खतरा नजर आया। मजदूरों का एक बड़ा हिस्सा उन्हें अपनी पकड़ से बाहर जाता नजर आया। यह उन्हें स्वीकार नहीं हो सकता था। उन्होंने इसके खिलाफ संघर्ष छेड़ दिया।
बहुराष्ट्रीय बीमा निगमों के इस हमले के सामने ओबामा प्रशासन दम साध गया। उसने अपने स्वास्थ्य विधेयक का इतना तनुकरण कर दिया कि वह बहुतेरे वित्तीय अधिपतियों को स्वीकार हो सके। अंततः यह लुटा&पिटा विधेयक पास हो गया।
बीमा विधेयक ने एक बार फिर दिखाया कि नहीं ओबामा नहीं कर सकते। इसलिए नहीं कर सकते क्योंकि वित्तीय अधिपति ऐसा नहीं चाहते।
वित्तीय व्यवसाय के नियमन के संदर्भ में ओबामा की नपुंसकता और ज्यादा उभर कर सामने आ रही है। इस वित्तीय संकट ने बहुत तीखे तरीके से स्पष्ट किया कि यदि पूंजीवाद को तात्कालिक तौर पर भी बचाना है तो वित्तीय कारोबार का नियमन किया जाना चाहिए। बिना नियमन के भविष्य में और भी बड़ा संकट पूंजीवाद को खतरे में डाल देगा।
लेकिन इसके साथ यह भी सच्चाई है कि वित्तीय क्षेत्र ने पिछले तीन दशकों में जो अकूत मुनाफा कमाया था वह विनियमन के कारण ही। वित्त पूंजी के अबाध विचरण ने ही अमेरिकी अर्थव्यवस्था में वित्तीय निगमों का हिस्सा ४० प्रतिशत तक पहुंचा दिया। अब इसके नियमन का मतलब होता इसके अकूत मुनाफे में कटौती। सारी अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण करने वाले पूंजीपति भला इसे कैसे स्वीकार कर सकते थेA
वित्तीय अधिपति अपने वित्तीय कारोबार पर कोई नियंत्रण नहीं चाहते। इसके बदले वे वर्तमान व्यवस्था ही चाहते हैं। वह यह कि उन्हें अंधाधुंध लूटने की छूट हो और जब उनकी कारगुजारियों के फलस्वरूप वे संकट में पड़ें तो अर्थव्यवस्था को बचाने के नाम पर सरकार उन्हें बचाने के लिए आगे आ जाय। इस सबका बोझ मजदूर वर्ग पर डाल दिया जाय। संकट से पहले भी मजदूर वर्ग को बेतहाशा लूटा जाय और संकट के बाद भी।
समूची व्यवस्था के दूरगामी हितों की फिक्र करने वाले राजनेता व्यवस्था की खातिर कुछ ऐसे कदम उठाते हैं जो पूँजीपतियों के किसी हिस्से को स्वीकार न हों। लेकिन जब ये पूंजीपति ऐसे हों जो पूरी अर्थव्यवस्था पर हावी हों और उन्होंने ही राष्ट्रपति को कुर्सी पर बैठा रखा हो तब स्थिति गंभीर हो जाती है। तब ओबामा जैसा व्यक्ति और ज्यादा पौरूषहीन हो जाता है। वह और ज्यादा झांसा देने पर उतर आता है। ^हां] हम कर सकते हैं* का उसका नारा और ज्यादा फर्जी हो जाता है।
अमेरिकी साम्राज्यवाद के वर्तमान दौर में बराक ओबामा जैसे लोगों की यही नीयत और नियति है।
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