Tuesday, June 1, 2010

समवेशी विकास : पूंजीपति वर्ग की धोखे की टट्टी

     पिछले कुछ सालों में पूंजीपति वर्ग द्वारा समावेशी विकास की चीख&पुकार लगातार तेज होती गयी है।  11वीं योजना आयोग की रिपोर्ट ने समावेशी विकास की बात की। इस साल का आर्थिक सर्वेक्षण समावेशी विकास को एक अध्याय समर्पित करता है। सर्वोच्च न्यायालय के नये मुख्य न्यायाघीश कपाड़िया भी समावेशी विकास की बातें करते हैं।
    ऐसे में सहज ही सवाल उठता है कि क्या है पूंजीपति वर्ग की नजर में समावेशी विकास ? और पूंजीपति वर्ग के इस नारे को किस दृष्टिकोण से देखता है ?
    पूंजीपति वर्ग द्वारा समावेशी विकास का मतलब होता है कि देश के तेज विकास का फायदा सबको मिले। पिछले कुछ सालों में देश की अर्थव्यवस्था में वृद्धि दर काफी तेज रही है। देश काफी तेजी से आगे बढ़ा है। लेकिन इस तेज विकास का फायदा सबको नहीं मिला है। देश की भारी आबादी इस विकास से लाभ नहीं उठा पा रही है। पूंजीपति वर्ग चाहता है कि तेज विकास का फायदा इसे भी मिले। इसे ही वह समावेशी विकास कहता है-वह विकास जो सबको लेकर चले।
    समावेशी विकास की बात करके पूंजीपति वर्ग यह तो स्वीकार करता ही है कि अर्थव्यवस्था में तेज वृद्धि दर का लाभ केवल थोड़े से लोग उठा रहे हैं] पूंजीपति वर्ग और मध्यम वर्ग का एक हिस्सा। देश के अन्य हिस्से इससे वंचित हैं। इसीलिए खासकर पूंजीपति वर्ग के वे हिस्से जो अपनी व्यवस्था के दूरगामी भविष्य के प्रति चिंतित हैं] वे चाहते हैं इन हिस्सों को भी कुछ मिले। देश का विकास समावेशी हो।
    लेकिन क्या पूंजीवाद में विकास समावेशी हो सकता है ? क्या इस विकास का लाभ आबादी के सारे हिस्से उठा सकते हैं ?
    पूंजीपति और मजदूर पूंजीवादी व्यवस्था के अनिवार्य घटक हैं। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व संभव नहीं है। ऐसे में पूंजीवाद का विकास स्वतः दोनों की उपस्थिति को मानकर चलता है। ऐसे में इनके लिए समावेशी विकास का क्या मतलब हो सकता है? पूंजीवाद में तो मजदूर समावेशित हैं ही। तो क्या इसका मतलब यह है कि पूंजीवाद के विकास के साथ मजदूरों की स्थिति बेहतर होती जायेगी ? क्या पूंजीपतियों की पूंजी के साथ मजदूरों की मजदूरी बढ़ती जायेगी ? या इससे भी आगे क्या मजदूर सम्पत्ति इकट्ठा कर मजदूर होना बन्द कर देंगे ?
    पूंजीवाद में ऐसा संभव नहीं है। पूंजीवाद में पूंजी और पूंजीपति वर्ग का सारा विकास मजदूर वर्ग के शोषण पर टिका होता है। अर्थव्यवस्था में विकास का मतलब होता है मजदूरों के शोषण से हासिल मुनाफे को संचित कर निवेश करना। पिछले साल उत्पादन का जो स्तर था] जितना निवेश था] उससे ज्यादा निवेश करना। यह अतिरिक्त निवेश] बढ़ा हुआ निवेश मजदूरों के शोषण से हासिल मुनाफे के संचय से ही हो सकता है] जैसा कि इसके पहले का निवेश था। इस तरह पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का विकास कोई बाहरी चीज नहीं है जिसका फायदा पूंजीपति और मजदूर दोनों केा मिलना चाहिए। बल्कि यह विकास होता ही मजदूर वर्ग की कीमत पर] मजदूर वर्ग के अतिरिक्त श्रम के शोषण से।
    पूंजीपति वर्ग यह नहीं मानता कि उसका मुनाफा मजदूर वर्ग के शोषण से होता है। इसके विपरीत वह इसे पूंजी की या मशीनों की उपज मानता है। इसीलिए वह इससे हुए ^विकास* को मजदूरों से बांटने की बात करता है। लेकिन यह सच्चाई नहीं है। मुनाफा पूंजी या मशीनें पैदा नहीं करती। मुनाफा मजदूर वर्ग का अतिरिक्त श्रम पैदा करता है] वह श्रम जो वह अपने भरण-पोषण के लिए जरूरी श्रम से ज्यादा करता है। इस तरह मजदूर वर्ग के शोषण के द्वारा हो रहे विकास में मजदूर वर्ग के समावेशन की बात करना बेमानी है। मजदूर वर्ग तो इस विकास में समावेशी है ही। वह पूंजीवादी उत्पादन प्रक्रिया में समावेशित न होता] उसका शोषण न होता तो यह विकास होता ही नहीं। पूंजी में वृद्धि हो] पूंजीवादी उत्पादन में वृद्धि हो] इसके लिए जरूरी है कि मजदूर का शोषण हो। मजदूर वर्ग इसी रूप में पूंजीवादी उत्पादन प्रक्रिया में समावेशित होता है और केवल इसी रूप में समावेशित हो सकता है। यदि वह अपने शोषण के द्वारा पूंजी बढ़ाने में में भूमिका अदा नहीं कर रहा है तो वह पूंजी के लिए] पूंजीवादी उत्पादन के लिए और इसीलिए पूंजीपति वर्ग के लिए फालतू है। अब वह एक मायने में पूंजीवादी व्यवस्था का हिस्सा भी नहीं है। अन्य कारण न हों तो पूंजीपति वर्ग उसकी तनिक भी चिन्ता न करे।
    कोई कह सकता है कि भले ही मजदूर का शोषण हो भले ही इस शोषण के द्वारा ही पूंजीवादी विकास होता हो] पर उत्पादकता के विकास के कारण मजदूर का उपभोग का स्तर उठता जाता है। वह पहले से ज्यादा उपभोग करता है। इस तरह वह पूंजीवादी विकास में सहभागी होता है। पूंजीवादी विकास का उसे भी फायदा होता है।
     इस संबंघ में मूल बात यह है कि उत्पादकता में चाहे जितना और जैसा विकास हो जाय] मजदूर की मजदूरी हमेशा इससे निर्घारित होगी कि उस समाज में जिन्दा रहने और पूंजीपति वर्ग के लिए काम करने लायक बने रहने के लिए कितने उपभोग की आवश्यकता है। मजदूर चाहे जितना या जैसा उपभोग करे वह बस केवल इतना होगा कि वह जिन्दा रहे और काम करे। उसका जीवन स्तर उपभोग में सारी निरपेक्ष बढ़ोत्तरी के बावजूद सापेक्षिक तौर पर यहीं टिका रहेगा। यानी वह हो सकता है वह पहले से ज्यादा अच्छा खाये-पीये और पहने लेकिन अपने समाज के हिसाब से वह पहले जैसी न्यूनतम स्थिति में बना रहेगा।
     यही नहीं] चूंकि उसके अतिरिक्त श्रम के शोषण से पूंजीपति पूंजी संचय करता जाता है और उसकी पूंजी में वृद्धि होती जाती है, इसीलिए मजदूर की स्थिति पूंजीपति के मुकाबले गिरती जाती है। पहले पूंजीपति एक फैक्ट्री का मालिक होता है और सौ मजदूरों को काम पर लगाता है तो दस साल बाद वह पांच फैक्ट्रियों का मालिक हो जाता है और पांच सौ मजदूरों को काम पर लगाता है। मजदूर के मुकाबले पूंजीपति की हैसियत पांच गुनी बढ़ जाती है और इसीलिए मजदूर की हैसियत पांच गुनी गिर जाती है। इस तरह पूंजीवाद और पूंजी के विकास के साथ मजदूर वर्ग की हालत लगातार गिरती चली जाती है। यह पूंजीवाद का निरपेक्ष नियम है। इसलिए पूंजीवाद का विकास] जिसमें मजदूर समावेशित है क्योंकि इसके बिना पूंजीवादी उत्पादन संभव नहीं है] यह परिणाम पैदा करता है कि पूंजीपति वर्ग के मुकाबले मजदूर की हालत लगातार खराब होती चली जाय। पूंजीवादी व्यवस्था में इससे इतर कोई दूसरी चीज संभव नहीं है।
     ऐसे में मजदूर वर्ग के लिए समावेशी विकास का ज्यादा से ज्यादा यही मतलब हो सकता है कि इस गिरती हालत की गिरने की दर को थोड़ा कम किया जाय। तथाकथित कल्याणकारी राज्यों में यही किया गया था। लेकिन जब भारत के पूंजीपतियों केा उनकी सरकार ने लूट की खुली छूट दे रखी है तो यह भी केवल भ्रम पैदा करने के लिए मचाया जाने वाला शोर बन कर रह जाता है।
     जैसा कि पहले कहा गया है, जब कोई व्यक्ति पूंजीवादी उत्पादन प्रक्रिया में लगकर अपने शोषण के द्वारा पूंजी में वृद्धि नहीं करता है, वह इस सबका हिस्सा नहीं होता है तब वह पूंजीवादी व्यवस्था के लिए फालतू होता है। तमाम तरह के घरेलू या गैर पूंजीवादी श्रम को इसीलिए पूंजीवाद अनुत्पादक श्रम घोषित करता है।
     लेकिन आज के पूंजीवाद की विशेषता है कि उसने एक भारी आबादी को इसी श्रेणी में डाल दिया है। सीघे&सीघे प्रत्यक्ष बेरोजगारों से लेकर तथाकथित अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले लोग इसी श्रेणी में आते हैं। भारत का पूंजीपति वर्ग जब समावेशी विकास की बात करता है तो अक्सर उसकी नजर में यही आबादी होती है जो पूर्णतः या अंशतः बेरोजगार है। काम पर लगे मजदूरों के संदर्भ में तो वह अपनी पीठ थपथपाती है कि वे विकास प्रक्रिया में शामिल हो चुके हैं। यह अकारण नहीं है कि औद्योगिक क्षेत्र खोलने के संदर्भ में सरकारें कहती हैं कि इससे विकास होगा और लोगों केा रोजगार मिलेगा। 12 घंटे की मजदूरी कर न्यूनतम मजदूरी भी न पाने वाले फैक्टरी मजदूर के संबंघ में पूंजीपति वर्ग और उसकी सरकार की यह राय है कि वह पूंजीवादी विकास का फल पा रहा है।
    अगर समावेशी विकास से बाहर हैं तो पूर्णतः या अंशतः बेरोजगार। एक हद तक की बेरोजगारी] मजदूरों की रिजर्व फौज पूंजीपति वर्ग के लिए इसलिए फायदेमंद होती है कि वह काम पर लगे मजदूरों पर अंकुश रखती है। वह मजदूरी की दर को बढ़ने से रोकती है। लेकिन आज के पूंजीवाद में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष बेरोजगारी सभी सीमाओं को पार कर गयी है। 
    पूंजीवादी उत्पादन में वृद्धि के साथ दो चीजें सामान्य तौर पर होती हैं। एक तो नयी मशीनों और तकनीक के विकास के साथ पहले से काम पर लगे मजदूरों का हिस्सा बेरोजगार हो जाता है। वह नये लगे उद्यमों में काम पा सकता है और नहीं भी। दूसरा यह कि परम्परागत कामों में लगे लोग-किसान] दस्तकार] दुकानदार और अन्य छोटी सम्पत्ति के मालिक या स्वरोजगार में लगे लोग] पूंजीवाद के विकास के सामने ठहर नहीं पाते। वे तबाह होकर मजदूर वर्ग की कतारों में शामिल हो जाते हैं। उनके धंधों का पूंजीवादीकरण हो जाता है और बड़ी पूंजी उन्हें अपनी गिरफ्त में ले लेती है। विकसित देशों में जहां पहली प्रक्रिया ज्यादा प्रमुख होती है वहीं पिछडे़ देशों में पहले के साथ दूसरी प्रमुख होती है।
    आज भारत में छोटी सम्पत्ति बहुत तेजी से तबाह हो रही है। परम्परागत उद्योग घन्घे तेजी से नष्ट हो रहे हैं। छोटी खेती  उजड़ रही है। यहां तक कि कुटीर उद्योग भी संकट में हैं। बड़ी पूंजी न केवल इन्हें तबाह कर रही है बल्कि इनकी तबाही से मालामल भी हो रही है। वह इनमें लगे लोगों को और ज्यादा श्रम करने को मजबूर कर उन्हें चूस रही है। वह इनकी तबाह होती छोटी सम्पत्ति को हड़प रही है।
    इस तरह तबाह हो रहे दो नियति को प्राप्त हो रहे हैं। पहले तो वे एक लम्बे अर्से तक अपनी स्थिति को बचाने के लिए जी तोड़ संघर्ष करते हैं। वे छोटी सम्पत्ति से चिपके रहते हैं। वे और ज्यादा मेहनत करते हैं तथा और ज्यादा कंगाल होते जाते हैं। एक लम्बे समय बाद जब वे उजड़ते हैं तो या तो वे बेरोजगारों की कतार में शामिल  हो जाते हैं या फिर तथाकथित अनौपचारिक क्षेत्र में हाथ&पांव मारकर जिन्दा रहने का प्रयास करते हैं अनौपचारिक क्षेत्र का ज्यादातर हिस्सा एक तरह की छिपी हुयी बेरोजगारी ही है।
    बडे़ पैमाने की बेरोजगारी और अनौपचारिक क्षेत्र आज के पूंजीवाद की विशेषता है। विकसित देशों में एक चैथाई से एक तिहाई आबादी वस्तुतः बेरोजगार है। बेरोजगारी के औपचारिक आंकड़े ही वहां 10 से 20 प्रतिशत बेरोजगारी दिखाते हैं। पिछड़े पूंजीवादी देशों में स्थिति और ज्यादा भयावह है।
    बेरोजगार और अनौपचारिक क्षेत्र में लगे लोग आबादी का वह हिस्सा हैं जो पूंजीवादी उत्पादन प्रक्रिया में समावेशित हैं और नहीं भी। जैसा कि पहले कहा गया है  बेरोजगारी पूंजीपति वर्ग के लिए श्रमिकों की रिजर्व सेना है। जरूरत पड़ने पर पूंजीपति वर्ग मजदूरों की यहीं से भर्ती करता है। इस रूप में बेरोगारी पूंजीवाद का अनिवार्य हिस्सा।
    लेकिन आज के पूंजीवाद की विशेषता है कि उसने आबादी के इतने बड़े हिस्से को बेरोजगारों की श्रेणी में ढकेल दिया है कि उनमें से ढेर सारे कभी उत्पादन की प्रक्रिया में नहीं लग पाते। इस तरह पूंजीवादी उत्पादन प्रक्रिया का परिणाम होकर भी वे एक तरह से इससे बाहर हैं। जहां तक अनौपचारिक क्षेत्र की बात है, इसका चरित्र दोहरा है। एक ओर यह बेरोजगारी का छिपा ही रूप मात्र है। दूसरी ओर पूंजीवाद आज अपने उत्पादन और वितरण प्रक्रिया का एक हिस्सा यहां आउट सोर्स भी कर रहा है। कुछ उपभोक्ता सामग्रियों के उत्पादन-वितरण से लेकर वित्तीय जाल के विस्तार तक इस अनौपचारिक क्षेत्र में हैं। इस तरह यह अनौपचारिक क्षेत्र बड़ी पूंजीवादी उत्पादन-वितरण प्रक्रिया का एक हद तक उपांग है। आज का पूंजीवाद इसे इसलिए इस्तेमाल कर रहा है क्योंकि इसके जरिये वह बेतहाशा मुनाफा कमा रहा है। इसके जरिये वह संगठित मजदूर वर्ग से निपट भी ले रहा है।
     खुले और छिपे, पूर्णतः या अंशतः बेरोजगारों का तथा अनौपचारिक क्षेत्र में हाड़-तोड़ मेहनत कर भी पेट न भर पाने वालों का यह हिस्सा आज के पूंजीवाद की विशेषता है। यह आज के पूंजीवाद का परिणाम और हिस्सा है। भारत का पूंजीपति वर्ग अघिकांशतः इसी हिस्से के लिए समावेशी विकास की बात करता है।
     पूंजीपति वर्ग और उसकी सरकार इस हिस्से के लिए क्या करेगी? वह इसे पूंजीवादी विकास में कैसे समावेशित करेगी? निश्चित तौर पर भारत का पूंजीपति वर्ग न तो उस प्रक्रिया केा रोक सकता है और न समाप्त कर सकता है जिसके कारण यह आबादी अस्तित्व में आ रही है यह तो उसके उसी तेज पूंजीवादी विकास का परिणाम है। तब पूंजीपतियों की सरकार जो कर सकती है वह केवल यह कि वह नरेगा जैसी राहत योजनाएं चलाए।
    आज भारत का पूंजीपति वर्ग अपने ही तेज पूंजीवादी विकास के परिणामों से भयभीत है। एक ओर वह तेज विकास पर गाल बजा रहा है तो दूसरी ओर डरा हुआ है कि इसी विकास के कारण मजदूर वर्ग और देश के अन्य मेहनतकश आबादी विद्रोह की ओर बढ़ रही है। समावेशी विकास की सारी चिल्ल&पों इस भयानक  खतरे को टालने के लिए घोखे की टट्टी है जिसमें पूंजीपति वर्ग कभी कामयाब नहीं होगा।

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