Wednesday, August 23, 2017

फासीवादियों और प्रतिक्रियावादियों के एजेण्डे को आगे बढ़ाता फैसला

आखिरकार देश के सर्वोच्च न्यायालय ने मुसलमान औरतों को उनके जुल्मी पतियों से मुक्ति दिला दी, उस सर्वोच्च न्यायालय ने जिसने बामुश्किल सप्ताह भर पहले अखिला उर्फ हादिया मामले में यह कहा था कि चैबीस साल की लड़की या औरत अपने बारे में फैसला करने में सक्षम नहीं है। यही नहीं संघी फासीवादियों के सुर में सुर मिलाते हुए उसने ‘लव-जिहाद’ के लिए प्रयासरत आई एस आई एस के बारे में जांच का भी आदेश देश की सर्वोच्च आतंकवाद विराधी एजेन्सी को दे दिया।
सर्वोच्च न्यायालय ने 22 अगस्त को तीन-दो से फैसला सुनाया कि एक ही समय तीन बार तलाक कह दिया जाने वाला तलाक अवैध है और मुसलमान औरतों के बुनियादी अधिकारों का उल्लंघन है। असहमत जजों ने भी यह कहा कि सरकार को छः महीने के भीतर एक कानून बनाकर इस तलाक को अवैध घोषित करना चाहिए।
पिछले छः महीने से संघी फासीवादियों समेत सारे मुस्लिम विरोधी प्रतिक्रियावादी इस मुद्दे को इस तरह उछाले हुए हैं मानों यह मुसलमान औरतों की सबसे बड़ी समस्या हो। इनकी इस हरकत से इस्लामी प्रतिक्रियावादियों को भी खूब मौका मिला इस बात को प्रचारित करने का कि इस्लाम खतरे में है। इस तरह इस मुद्दे को उछालकर दोनों तरह के प्रतिक्रियावादी एक-दूसरे को खाद-पानी देते रहे। जो संघी फासीवादी अपने समाज की औरतों को मध्ययुगीन पिंजरे में कैद कर देना चाहते हैं, वे मुसलमान औरतों के खैरख्वाह बन कर सामने आये और उनकी प्रतिक्रिया में मुस्लिम कट्टरपंथी अपने समाज के रक्षक के रूप में। हद तो तब हो गयी जब यशोदाबेन को भरी जवानी में बिना औपचारिक संबंध-विच्छेद किये छोड़ देने वाला शख्स तीन तलाक की शिकार मुसलमान औरतों के लिए रोता नजर आया।
अब संघी फासीवादियों की इस मुहिम में सर्वोच्च न्यायालय भी अपना सुर मिलाने लगा है। एक के बाद एक उसके फैसले प्रतिक्रियावादी एजेण्डे को बढ़ाते लग रहे हैं। एक चैबीस साल की औरत के बुनियादी अधिकारों की ऐसी-तैसी करने वाला सर्वोच्च न्यायालय एक अन्य मामले में ठीक उसी भावना से फैसला दे रहा है। इस सब में आश्चर्य की कोई बात नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय समाज से परे नहीं है। जब समाज में प्रतिक्रियावादी और फासीवादी हावी हो रहे हों तो सर्वोच्च न्यायालय भी उनके सुर में सुर मिलायेगा ही और उन्हें वैधानिकता प्रदान करने वाला फैसला देगा। 
जहां तक मुसलमान समेत सारी औरतों का सवाल है, उनकी आजादी के लिए न केवल धर्म को पूर्णतया निजि मामला बनाने की जरूरत है बल्कि पूंजी के निजाम के खात्मे की भी जरूरत है। इसके बिना औरतों की बराबरी और आजादी की सारी बातें या तो भांति-भांति के प्रतिक्रियावादियों के एजेंण्डे को आगे बढ़ाने के लिए हैं या फिर संघर्षरत औरतों को बेवकूफ बनाने के लिए।
मजदूर क्रांतिकरियों को इसी बात को जोर-शोर से स्थापित करना चाहिए।

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