Thursday, May 11, 2017

पूर्ण विद्रोह ही अवस्था में कश्मीर

कश्मीर घाटी इस समय पूर्ण विद्रोह की अवस्था में है। भारत के शासक वर्गीय हलकों में बहुत सारे लोग इस बात को स्वीकार कर रहे हैं कि पिछले दो दशकों में सबसे खराब हालात हैं। स्थिति वहां पहुंच गयी है जहां सेना द्वारा फर्जी या असली मुठभेड़ की जगह निहत्थे लोग पहुंच कर सेना के सामने खड़े हो जा रहे हैं। भारी मात्रा में छात्राएं भी अब सड़क पर उतर आयी हैं। सेना के स्थानीय मुखबिर भी अब कोई सूचना नहीं पहुंचा रहे हैं। 
खराब हालात का एक सूचक चुनाव आयोग द्वारा अनन्तनाग का चुनाव रद्द करना रहा। श्रीनगर चुनाव में महज पांच-छः प्रतिशत वोट पड़ने के बाद भारत सरकार अब अपनी और ज्यादा फजीहत करने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। 
इन हालातों में पूंजीवादी व्यवस्था के दायरे के बहुत सारे लोग सामने आ रहे हैं और सरकार से आग्रह कर रहे हैं कि कश्मीरी लोगों से बातचीत शुरु करे। इसमें प्रोफेसर राधा कुमार, पत्रकार प्रेमशंकर झा और भूतपूर्व रक्षा सलाहकार एम के नरायण जैसे लोग तो हैं ही, इसमें भूतपूर्व कांग्रेसी गृहमंत्री पी. चिदम्बरम और पूर्व भाजपाई वित्तमंत्री यशवन्त सिन्हा भी हैं। यशवन्त सिन्हा ने तो इस बीच लिखे अपने लेखों में मोदी सरकार की कश्मीर नीति की बहुत तीखे शब्दों में भर्त्स्ना की है। 
पर केन्द्र की संघी मोदी सरकार पर इन बातों का कोई असर नहीं पड़ रहा है। वह केवल और ज्यादा दमन की बात कर रही है। उसका कहना है कि कोई बातचीत तब तक शुरु नहीं हो सकती जब तक विद्रोही हिंसा करना बन्द नहीं कर देते। उसके सुर में सुर मिलाते हुए देश का सर्वोच्च न्यायालय भी बोल रहा है कि कश्मीर में पहले विद्रोहियों द्वारा हिंसा बन्द होनी चाहिए। यह अलग बात है कि कश्मीरी विद्रोहियों द्वारा जिस हिंसा की बात की जा रही है वह केवल सेना पर पत्थर फेंकना है जिसका जवाब सेना पेलेट गन और सामान्य बन्दूक से दे रही है। 
संघी मोदी सरकार अपनी बात को जायज ठहराने के लिए लगातार यह कह रही है कि कश्मीर में सारी हिंसा पाकिस्तान सरकार द्वारा भड़काई हुई है। वही लोगों को पैसे देकर पत्थर फिकवा रही है। वही बाहर से आतंकवादी भेज रही है। 
संघी मोदी सरकार की ये बातें कोई नई नहीं हैं। फर्क यह है कि ये ज्यादा हमलावर तरीके से और पूरी बेशर्मी से की जा रही हैं। वे दमन और केवल दमन की बात कर रहे हैं। 
संघी फासीवादियों से किसी और व्यवहार की उम्मीद नहीं की जा सकती। 
ऊपर उल्लिखित में से कुछ लोग कश्मीर समस्या के समाधान के लिए यह कह रहे हैं कि भारत सरकार को पीछे हटकर 1953 तक जम्मू कश्मीर को प्राप्त स्वायत्ता दे देनी चाहिए। यह शायद समस्या का समाधान हो सकता है। पर यदि भारत के शासक वर्ग को यह करना ही होता तो नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक ने यह स्वायत्तता छीनी ही क्यों ? अब संघी फासीवादियों से, जो सोते-जागते हमेशा देश की एकता और अखंडता की बात करते हैं, इसकी उम्मीद कैसे की जा सकती है ? कश्मीर की किसी भी तरह की स्वायत्तता का  खात्मा जिनका हमेशा से लक्ष्य रहा है, उनसे इसकी उम्मीद कैसे की जा सकती है ?
विद्रोही कश्मीरी जनता की मुक्ति भारत के मजदूर वर्ग के इंकलाब में ही है। 

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