Saturday, June 25, 2016

इंग्लैण्ड (यू के) का यूरोपीय संघ से अलगाव

     इंग्लैण्ड में 23 जून को हुए जनमत संग्रह में 52 प्रतिशत लोगों ने यूरोपीय संघ से अलग होने के पक्ष में मतदान किया जबकि 48 प्रतिशत लोगों ने उसमें बने रहने के पक्ष में। मतदान करने वालों की संख्या कुल मतदाताओं की 72 प्रतिशत थी, यानी आम चुनावों से काफी ज्यादा। इस जनमत संग्रह से इंग्लैण्ड (जिसका वास्तविक नाम यूनाइटेड किंगडम या यू के है) के यूरोपीय संघ से अलग होने की प्रक्रिया की शुरुआत हो गयी है। इसे केवल एक और जनमत संग्रह ही टाल सकता है, वह भी तब जब उसमें इसका उलटा फैसला हो जाये। इस जनमत संग्रह के साथ यूरोपीय संघ के निर्माण के संबंध में उल्टी प्रक्रिया शुरु हो गयी है-पिछले छः-सात दशकों से उल्टी।
जनमत संग्रह के इस फैसले की अहमियत का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि फैसले के आने के साथ ही दुनिया भर के शेयर बाजार लुढ़क गये। इसमें भारत का शेयर बाजार भी शामिल है। सारी सरकारें बाजार में उथल-पुथल थामने के लिए प्रयास करने लगीं। इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री डेविड कैमरून ने घोषित कर दिया कि वे अक्टूबर में इस्तीफा दे देंगे और कोई अन्य प्रधानमंत्री, जो यूरोपीय संघ का विरोधी हो, उसे यूरोपीय संघ से अलग होने की प्रक्रिया का नेतृत्व करना चाहिए। डेविड कैमरून ने यूरोपीय संघ में बने रहने पर सब कुछ दांव पर लगा दिया था। विपक्षी लेबर पार्टी के नेता जेरेमी कोरबिन भी इस फैसले से सन्न नजर आये।
यूरोपीय संघ में शामिल होने को लेकर इंग्लैण्ड में हमेशा से विरोध या हिचकिचाहट रही हैं इसी वजह से इंग्लैण्ड यूरो क्षेत्र में शामिल नहीं हुआ। जहां पूूंजीपति वर्ग संयुक्त राज्य अमेरिका से अपने विशेष संबंधों के कारण पीछे हटता रहा है वहीं आम जनता अपनी जिन्दगी को लेकर। पूंजीपति वर्ग के लिए लंदन का वित्त  पूंजी के केन्द्र में होना एक महत्वपूर्ण कारक रहा है जिसे वह यूरो क्षेत्र के अधीन नहीं करना चाहता रहा है। 
अभी हाल के फैसले का तात्कालिक कारण वर्तमान आर्थिक संकट का आम जनता की जिन्दगी पर बहुत गंभीर प्रभाव रहा है। इसके कारण मजदूर वर्ग की हालत बेहद खराब हुई है। तनख्वाहें गिरी हैं जबकि बेरोजगारी भयानक रूप से बढ़ी है। आम जन के इस खराब होते जाते हालात के वास्तविक कारणों से ध्यान हटाने के लिए पूंजीपति वर्ग ने आप्रवासन का मुद्दा उछाला है। लगातार यह माहौल बनाया गया है कि इंग्लैण्ड के लोगों के बदतर होते जा रहे हालात का कारण इंग्लैण्ड में अन्य देशों से लोगों का आगमन है। लगातार प्रचारित किया गया है कि कुछ सालों में ही शरणार्थियों के कारण ब्रिटेन का चरित्र बदल जायेगा। अभी अरब तथा अफ्रीकी देशों से आने वाले शरणार्थियों ने इस भय को और बढ़ाया है। इंडेपेन्डेन्ट पार्टी जैसी पार्टियों ने जमीनी स्तर पर इस भय को प्रसारित करने में बड़ी भूमिका निभाई। यह कहा गया कि यदि इंग्लैण्ड यूरोपीय संघ से अलग हो जाता है तो वह यूरोपीय संघ के शरणार्थियों से संबंधित उदार काूननों से मुक्ति पा सकता है। यह गौरतलब है कि इंग्लैण्ड के उन क्षेत्रों से अलग होने के पक्ष में ज्यादा मत पड़े जो पिछले सालों में विऔद्योगीकृत हुए हैं। 
यूरोपीय संघ (और उससे भी आगे यूरो क्षेत्र) यूरोप के साम्राज्यवादी पूंजीपति वर्ग की परियोजना रही है। इसका सीधा सा  मतलब रहा है-मजदूर वर्ग की कीमत पर पूंजी के हित में यूरोप का एकीकरण। साथ ही इस एकीकरण से जर्मनी और फ्रांस के महत्वकांक्षी साम्राज्यवादियों को अमेरिका, रूस व जापान जैसे साम्राज्यवादियों से प्रतिद्वन्द्विता करने का ज्यादा बेहतर आधार मिलता था।
यूरोप के मजदूर वर्ग ने एकदम शुरु से ही अपने सहजबोध से पहचाना कि यूरोपीय संघ की यह परियोजना इसके खिलाफ हैै। इसीलिए मजदूर वर्ग ने इसके पक्ष में कभी उत्साह नहीं दिखाया। उल्टा उसने इसका विरोध ही किया। अक्सर ही यह हुआ कि किसी देश में यूरोपीय संघ में शामिल होने के लिए कई बार जनमत संग्रह करने पड़े। यह तब जबकि पूंजीवादी प्रचारतंत्र ने धुंआधार इसके पक्ष में अभियान चलाया।
वर्तमान आर्थिक संकट की शुरुआत होते ही यूरोपीय एकीकरण के सारे अंतर्विरोध स्पष्ट हो गये। यह पहले से ज्यादा स्पष्ट हो गया कि समूचा यूरोपीय एकीकरण मजदूर वर्ग की कीमत पर पूंजी के पक्ष में एकीकरण है। इसीलिए ग्रीस, स्पेन इत्यादि दक्षिणी यूरोप के देशों में, जो सबसे ज्यादा संकटग्रस्त हैं, यूरोपीय संघ और यूरो क्षेत्र से बाहर निकलने का प्रत्यक्ष खतरा पैदा हो गया। खासकर ग्रीस के मामले में  तो यह चरम पर पहुंच गया।
एक बार फिर पूंजीवादी प्रचारतंत्र की समस्त शक्ति का इस्तेमाल कर पूंजीपति वर्ग ने किसी तरह मामले को संभाला। पर यह सफलता तात्कालिक ही है। सारे ही देशों में उन प्रतिक्रियावादियों की ताकत बढ़ रही है जो राष्ट्रवादी भावनाओं को भड़का रहे हैं तथा अंदरूनी समस्याओं के लिए शरणार्थियों को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। वे यह तथ्य चालाकी से छिपा रहे हैं कि पूंजी के हित में यूरोपीय एकीकरण समस्या के मूल में है। इसके बरक्स वे यूरोपीय एकीकरण पर प्रतिक्रियावादी कोण से हमला कर रहे हैं। 
इंग्लैण्ड के यूरोपीय संघ से अलग होने से यूरोपीय संघ की समस्याएं बहुत बढ़ जायेंगी। यह इसके विघटन की शुरुआत भी हो सकती है। न केवल दक्षिणी यूरोपीय देशों बल्कि अन्य यूरोपीय देशों में भी यूरोपीय संघ (व यूरो क्षेत्र) से अलग होने की मांग जोर पकड़ सकती है। यह देखते हुए कि यूरोपीय एकीकरण के पक्ष में लोकप्रिय समर्थन हमेशा ही बहुत कमजोर रहा है, यह विघटन की ओर ले जा सकता है। 
वर्तमान संकट में यह नया मोड़ इस आर्थिक संकट को और गहरायेगा तथा यह संकट अपनी बारी में विघटनकारी ताकतों को और बढ़ावा देगा। कोई आश्चर्य नहीं कि दुनिया भर के पूंजीपति इतने भयभीत हैं। पर मजदूर वर्ग को भयभीत होने की जरूरत नहीं। पूंजीवादी व्यवस्था का यह संकट उसके लिए इस दृष्टि से फायेदमंद है कि यह व्यवस्था के अंतर्विरोधों को बढ़ाकर उसके अन्त को नजदीक लाता है।  

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