भारत सरकार ने इस समय नेपाल की अघोषित नाकेबंदी कर रखी है। भारत से नेपाल जाने वाली सामग्री वहां नहीं जा पा रही और मूलभूत वस्तुओं की कमी हो रही है। यहां तक कि हवाई जहाज की उड़ानों पर भी असर पड़ रहा है क्योंकि इसके लिए आवश्यक ईधन नहीं पहुंच पा रहा है।
इस वस्तु स्थिति के विपरीत भारत सरकार लगातार दावा कर रही है कि उसने नेपाल की कोई नाकेबंदी नहीं कर रखी है। यदि नेपाल में कोई सामग्री नहीं पहुंच रही है तो इस कारण कि नये संविधान का विरोध कर रहे मधेसी लोगों ने भारत से नेपाल जाने के रास्ते बन्द कर रखे हैं। यह नेपाल का आंतरिक मसला है और इसके लिए जिम्मेदार नेपाल की प्रमुख पार्टियां हैं जिन्होंने मधेसी भावनाओं को दरकिनार कर नया संविधान लागू कर दिया।
लेकिन भारत सरकार की नेपाल के नये संविधान से नाराजगी कोई छिपी हुई बात नहीं है। भारत सरकार के प्रतिनिधि अंतिम समय में भागे-भागे नेपाल गये और उन्होंने नेपाल के सविंधान में परिवर्तन तथा इसके लिए संविधान बनने और लागू होने की प्रक्रिया को टालने का प्रयास किया। जब इसे अनसुना करके 20 सितम्बर को नेपाल में नया संविधान लागू कर दिया गया तो भारत सरकार ने राजनयिक परंपरा के अनुसार इसका स्वागत करने और इसके लिए बधाई देने के बदले इसे केवल ‘नोट’ भर किया।
भारत सरकार की नाराजगी जहां एक ओर भारतीय मूल के मधेसी लोगों की भावनाओं और जरूरतों को नये सविंधान में दरकिनार करने को लेकर है वहीं इस बात से और ज्यादा है कि नेपाल की प्रमुख पार्टियां उसकी अनसुनी कर रही हैं। आज यदि वे इस मुद्दे पर भारत सरकार को अनसुना कर सकती हैं तो कल दूसरे मुद्दे पर भी। कल को वे चीन जैसे देशों से सट भी सकती हैं और इस तरह नेपाल में भारत के प्रभुत्व को खतरा पैदा हो सकता हैं। भारत सरकार और भारत के पूंजीपति इसे कभी नहीं होने दे सकते।
भारत सरकार के इस रुख को लेकर नेपाल में भारी गुस्सा है। यह नेपाल में अंदरूनी विभाजन को बढ़ा भी रहा है। जहां मधेसी पार्टियां भारत सरकार से और दबाव की उम्मीद कर रही हैं वहीं दूसरी पार्टियां, जिन पर पहाड़ के क्षेत्री-बहुन का प्रभुत्व है, इसके प्रति जनमानस को भड़का रही हैं।
ऐसा नहीं है कि नेपाल की जिन पार्टियों ने नये संविधान को लागू किया वे बहुत भारत सरकार विरोधी हैं। नेपाल कांग्रेस ओर ऐमाले के भारतीय शासकों से लम्बे समय से मधुर संबंध रहे हैं। एनेकपा (माओवादी) भी बाद के समय में भारत के प्रति अपने रुख को बहुत नरम कर चुकी हैं। अब इससे अलग हो जाने वाले नेता बाबूराम भट्टाराई को तो भारत समर्थक की माना जाता था। एनेकपा (माओवादी) से अलग होने के बाद ये मधेसी आंदोलन के समर्थन में गये और वहां नये सविंधान की प्रतियां जलाने की बात भी की। लेकिन बाद में बाकी नेपाल में अपने खिलाफ प्रतिक्रिया के भय से वे पीछे हट गये।
यदि इसके बावजूद ये पार्टियां सरकार विरोधी रुख दिखा रही हैं तो दो कारणों से। एक तो यह कि नेपाली क्रांति ने भारत-नेपाल संबंधों को सवालों के दायरे में ला दिया है और इस संबंध को पुराने तरीके से चलाना दोनों देशों के शासकों के लिए मुश्किल साबित हो रहा है। नेपाली जनमानस की भावनाएं दोनों को परेशानी में डाल रही हैं। दूसरे, यह कि भारत सरकार जितने उद्धत ढंग से नेपाल में हस्तक्षेप कर रही है वह इन पार्टियों को मजबूर कर रहा है कि वे भारत सरकार विरोधी रुख अपनाएं। अपनी हेकड़ी में भारत सरकार इन पार्टियों की अंदरूनी विवशताओं को समझने को तैयार नहीं है। वह इस आशंका से छटपटा रही है कि नेपाल उसके मुट्ठी से निकल कर चीन की मुट्ठी में न चला जाये।
भारत के शासक वर्ग और भारत सरकार की ये कोशिशें और हरकतें घृणित हैं और नेपाली जनता के साथ-साथ भारत की मजदूर-मेहनतकश जनता के भी खिलाफ हैं। भारतीय मजदूर-मेहनतकश जनता का हित नेपाल पर भारतीय शासकों के प्रभुत्व में नहीं हैं यह दोनों देशों के बराबरी पर आधारित मैत्रीपूर्ण संबंधों में हैं। इसीलिए भारत के मजदूर वर्ग को भारत सरकार की इन हरकतों और कोशिशों का पुरजोर विरोध करना चाहिए। इस बात को दृढ़ता से रेखांकित करना चाहिए कि भारत सरकार द्वारा नेपाल की वर्तमान अघोषित नाकेबंदी मधेसी जनता के पक्ष में नहीं है बल्कि भारतीय शासकों के हित के मद्देनजर हैं। कि नेपाल की मधेसी जनता (साथ ही थारू जनजाति व अन्य दलित जातियों व जनजातियों) की जायज मांगो को स्वयं संघर्ष द्वारा हासिल किया जाना चाहिए जिसे नेपाल की मजदूर-मेहनतकश जनता के साथ-साथ भारत की भी मजदूर-मेहनतकश जनता का समर्थन हासिल है।
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