यह महज इत्तफाक हो सकता है कि पूंजीपति वर्ग के चमकते-दमकते चेहरे की असली वीभत्स तस्वीर एक ही सप्ताह, एक ही साथ उजागार हुई। पर इस वीभत्स तस्वीर के होने में कोई इत्तफाक नहीें है।
पूंजीवादी प्रचारतंत्रों में इंद्राणी मुखर्जी का मामला छाया हुआ है और सनसनी का दीवाना मध्यम वर्ग इससे चिपका हुआ है। अनैतिक सम्बन्ध, हत्या, पैसा, रहस्य इत्यादि का इतना जखीरा उसे एक साथ मुम्बइया फिल्में भी एक साथ नहीं दे सकतीं।
दूसरी ओर है गुजरात की राजधानी अमहदाबाद और अन्य शहरों में सेना का मार्च। हालात पुलिस के काबू में नहीं आ रहे और सेना को बुलाना पड़ रहा है। भाजपाई नेताओं को सांप सूंघ गया है जबकि मोदी की शान्ति की अपील को कोई असर नहीं हो रहा है।
ये दोनों भारत के पूंजीवादी विकास की एक मुकम्मल तस्वीर प्रदान कर देते हैं। एक ओर पैसे का खुला खेल और उसके लिए सभी बंधनों को त्याग देना तो दूसरी ओर है बेरोजगारी और कंगाली का समुंदर एक भारत की चमचमाती जिन्दगी की पोल खोलता है तो दूसरा विकास के उस माॅडल की जिसका प्रचार कर एक संघी प्रचारक देश की प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हो गया।
मोदी और उनके प्रायोजक पिछले तीन-चार सालों से विकास की एक खुशनुमा तस्वीर से लोगों को लुभाने का प्रयास कर रहे हैं। वे इसे ज्यादा से ज्यादा खूबसूरत बनाने और दिखाने की कोशिश में लगे हुए हैं। पर इनके इस अभियान की धज्जियां उड़ाते हुए अचानक कोई हार्दिक पटेल या कोई इंद्राणी मुखर्जी पैदा हो जाते हैं। वे सड़ते-बजबजाते पूंजीवाद को एक झटके से सारी दुनिया के सामने प्रकट कर देत हैं।
कोई शक नहीं कि पूंजीपति वर्ग इन सबको झुठलाने के लिए तर्क गढ़ेगा। मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किये जायेंगे। हर सम्भव कारण तलाशे जायेंगे और पेश किये जायेंग सिवाय उस एक के जो सच है। जो एक मात्र सच है।
अगली बार मोदी जब मन की बात कहेंगे तो यह पहले से कहीं ज्यादा झूठी होगी क्योंकि सच जितना ज्यादा उजागार होता जाता है, उसे छिपाने के लिए झूठ उतना ही बड़ा होता चला जाता है।
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