पेरिस मॆं शार्ली एब्दो के पत्रकारों की बर्बरता के साथ हत्या के बाद फ्रांस और यूरोप की मजदूर-मेहनतकश जनता का इसके प्रति आक्रोश का भाव स्वतः स्फूर्त ढंग से फूट पड़ा। लोग हजारों-लाखों की संख्या में सड़कों पर उमड़ पड़े।
इस घटना की निंदा शासक वर्ग ने भी की। भारत के मोदी से लेकर अमेरिका के ओबामा तक सारे इसकी निंदा करते हुए सामने आए। यह इतना घृणित नजारा था कि किसी के लिए बर्दाश्त करना मुश्किल था। जो ओबामा दसियों देशों में हजारों लोगों की ड्रोन से हत्या कर रहे हैं और जो मोदी गुजरात में मुस्लिम नरसंहार के दोषी हैं वे स्वयं को सभ्यता के रक्षक के रूप में पेश कर रहे हैं।
असल में पत्रकारों के हत्यारे और ओबामा-मोदी जैसे लोग एक ही बिरादरी के हैं-बर्बरों की बिरादरी के। बस फर्क इतना है कि ओबामा-मोदी शासक वर्गों की राज्य सत्ता का इस्तेमाल कर कहीं बड़े पैमाने की बर्बरता करने में सक्षम हैं और वे कर रहे हैं। इराक से लेकर अफगानिस्तान तक इसके हालिया उदाहरण हैं।
पिछली शताब्दी की शुरुआत के मजदूर आंदोलन में यह बात आम थी कि हमारे सामने दो ही विकल्प हैं-समाजवाद नहीं तो बर्बरता। पिछली शताब्दी ने यदि एक ओर सोवियत संघ और चीन इत्यादि का समाजवाद देखा तो प्रथम और दूसरे विश्व युद्ध की विशाल बर्बरता भी देखी। समाजवाद के कारण ही पूंजीवाद-साम्राज्यवाद की बर्बरता पर अंकुश लग सका था।
अब समाजवाद के न होने और मजदूर आंदोलन के कमजोर होने के कारण पूंजीवाद-साम्राज्यवाद की बर्बरता एक बार फिर बढ़ती पर है। साम्राज्यवाद ने भांति-भांति के कट्टरपंथियों, पोंगापंथियों, बर्बर आतंकवादियों को पाला-पोसा है और उनसे छाया युद्ध में व्यस्त हैं। ये दोनों मिलकर बर्बरता के नए आयाम खोल रहे हैं।
इसकी बर्बरता का मुकाबला केवल मजदूर वर्ग के संगठित आंदोलन तथा समाजवाद से ही दिया जा सकता है। मजदूर वर्ग को बाकी मेहनतकश जनता को भी इसी के लिए गोलबंद करना होगा।
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