Sunday, December 8, 2013

विधानसभा चुनावों के वास्तविक निहितार्थ

       दिल्ली, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधान सभाओं के चुनाव में जीत के बाद भाजपा की खुशी का ठिकाना नहीं है। उसे लग रहा है कि 2014 में दिल्ली की गद्दी दूर नहीं होगी। इसी के साथ अरविन्द केजरीवाल एण्ड कंपनी भी खुशी के मारे पागल है क्योंकि उन्हें अपने पहले ही चुनाव में आशातीत सफलता मिली।
     असल में चुनावों के ये परिणाम दो चीजों का नतीजा हैं: कांग्रेस पार्टी के प्रति जनता के गुस्से का और साथ ही पूंजीपति वर्ग द्वारा खास दिशा में चुनावों को प्रभावित करने का।
     कांग्रेस पार्टी के प्रति जनता के गुस्से को समझना जटिल काम नहीं है। बड़े पैमाने के भ्रष्टाचार और लूट-खसोट के साथ कमरतोड़ मंहगाई ने लोगों को इसके प्रति नफरत से भर दिया है। वास्तव में तो इसे 2009 में ही केन्द्र में सत्ता से बेदखल हो जाना चाहिए था पर तब भाजपा की अपनी दुर्गति ने इसे बचा लिया। लेकिन साथ में यह भी है कि तब पूंजीपति वर्ग भाजपा के पक्ष में उस तरह नहीं आया था जैसे अब आया है।
     कांग्रेस पार्टी भारत के पूंजीपति वर्ग की परंपरागत पार्टी रही है। जब इस पार्टी ने 2008 में हद से आगे जाकर अमेरिका से परमाणु समझौते को परवान चढ़ाया तो पूंजीपति वर्ग को यही लगा कि कांग्रेस आगे भी उसके मनमाफिक चलती रहेगी।
     लेकिन एक तो मध्य भारत में आदिवासी जनों के संघर्ष ने, दूसरे उसकी अंदरूनी हिचक ने कांग्रेस को वह करने से रोका जो नरेन्द्र मोदी गुजरात में कर रहे थे। फिर तो क्या था ! नरेन्द्र मोदी के पीछे पूंजीपति लामबन्द होने लगे। पश्चिम बंगाल से भगाये गये रतन टाटा भी 2002 के जनसंहार को भूल गये। नरेन्द्र मोदी के पक्ष में प्रचार शुरु हो गया।
      कांग्रेस के बदले नरेन्द्र मोदी और भाजपा को आगे करने में पूंजीपति वर्ग के दो लक्ष्य हैं। एक तो वे कांग्रेस शासन के प्रति जनता के गुस्से को किसी दूसरी दिशा में मोड़ना चाहते हैं अन्यथा यह गुस्सा सीधे पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ फूट सकता है। दूसरा, उन्हें लग रहा है कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार उनकी पूंजीवादी लूट को वह छूट देगी जिसे देने में कांग्रेस सरकार हिचक जा रही थी। तब वेदान्ता की परियोजनाएं रद्द  नहीं होंगी।
      इसी के तहत पिछले तीन सालों में नरेन्द्र मोदी का धुंआधार प्रचार पूंजीवादी प्रचार माध्यमों ने किया है और वे उन्हें भाजपा का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करवाने में कामयाब रहे हैं।
       यदि राष्ट्रीय पैमाने पर पूंजीपति वर्ग ने नरेन्द्र मोदी और भाजपा को आगे किया है तो उन्होंने साथ ही एक अन्य विकल्प को भी प्रोत्साहित किया है। यह विकल्प है अरविन्द केजरीवाल एण्ड कंपनी। गौरतलब है कि यह मंडली राष्ट्रीय पैमााने पर तब पूंजीवादी प्रचार माध्यमों द्वारा प्रचारित की गयी जब बड़े-बड़े घोटाले रोज उजागार हो रहे थे। मजे की बात यह कि तब कांग्रेस ने भी इन्हें इसलिए आगे आने दिया कि उन्हें उम्मीद थी कि ये लोग कांग्रेस से असंतुष्ट लोगों को भाजपा के पक्ष में जाने से रोकेंगे।
       इन चुनावों में जहां पूंजीवादी प्रचार माध्यमों ने राष्ट्रीय पैमाने पर नरेन्द्र मोदी और भाजपा को प्रचारित किया वहीं दिल्ली के स्तर पर अरविन्द केजरीवाल एण्ड कंपनी को। उन्हें जितना प्रचार पूंजीवादी प्रचारतंत्र ने दिया यदि उसका आधा भी वे बहुजन समाज पार्टी को देते तो वह शायद इनसे बेहतर प्रदर्शन कर जाती। इस पूंजीवादी प्रचार के चलते इस मंडली ने मध्यम वर्ग ही नहीं, मजदूरों के एक हिस्से का समर्थन हासिल कर लिया। जनता के लिए एक विकल्प देने में पूंजीपति वर्ग कामयाब रहा है। हाल-फिलहाल उसकी व्यवस्था के लिए एक अन्य सुरक्षा पंक्ति तैयार हो गयी है। कम से कम वह कुछ दिन तो कुछ लोगों को भ्रम में रख ही सकती है। 
     इन चुनावों के साथ पूंजीपति वर्ग की कृपा से भारत की पूंजीवादी राजनीति थोड़ा और दक्षिण की ओर खिसक गयी है। इस संकटपूर्ण समय में पूंजीपति वर्ग इसी में अपना निस्तार देख रहा है। नरम हिन्दुत्व वाली दक्षिणपंथी कांग्रेस के बदले कठोर हिन्दुत्व वाली और भी दक्षिणपंथी भाजपा उसकी पसंद बन गयी है। अरविन्द केजरीवाल एण्ड कंपनी की भी आम गति उसी ओर है भले ही वे खुले साम्प्रदायिक न हों और भले ही वे इन चुनावों में लोगों को कम दामों में बिजली-पानी की आपूर्ति का वादा कर रहे हों।
     इन चुनावों में बड़े पैमाने के मतदान से भी पूंजीपति वर्ग खुश है। उसे लग रहा है कि उसकी सड़ी-गली व्यवस्था में जनता की आस्था बढ़ रही है या कम से कम उस तरीके से कम नहीं हो रही है जैसी होनी चाहिए। लेकिन असल मामला कुछ और है। आपसी प्रतियोगिता में पूंजीवादी पार्टियों ने वोट पाने के लिए जमीन आसमान एक कर दिया था। इसमें जायज-नाजायज सारे तरीके शामिल थे। 
     लेकिन तब भी इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि मजदूर वर्ग एवं व्यापक मेहनतकश जनता का विश्वास इस पूंजीवादी जनतंत्र में बना हुआ है। बहुत बड़े पैमाने पर पूंजीवादी प्रचार इसमें सहायक है जिसमें मदारियों की मंडली को विकल्प के रूप में पेश करना भी है। कहने की बात नहीं कि बहुत जल्दी ही इनका भी भंडाफोड़ हो जायेगा पर तब पूंजीपति वर्ग किन्हीं और मदारियों और जमूरों को सामने लायेगा। 
    ऐसी अवस्था में समस्त व्यवस्था का भंडाफोड़ करने के साथ एक नये समाज का क्रांतिकारी विकल्प मजदूर वर्ग के सामने पेश करना मजदूर वर्ग के क्रांतिकारियों के लिए जरूरी बन जाता है। इसी के साथ तात्कालिक तौर पर पूंजीवादी राजनीति के पुराने और नये खिलाडि़यों का भंडाफोड़ भी। 

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