कहावत है कि कुछ लोग महान पैदा होते हैं, कुछ लोग महानता हासिल करते हैं और कुछ लोगों पर महानता थोप दी जाती है। किसान भाऊराव हजारे उर्फ अन्ना हजारे ऐसे ही शख्स हैं जिनके उपर महानता थोप दी गई है। इस देश के पूंजीपति वर्ग ने किरन बेदी और अरविंद केजरीवाल जैसे महत्वकांक्षी लोगों के द्वारा तथा सरकार की मिलीभगत से रालेगांव सिद्धि के इस छुद्र से गांधी टोपी वाले फासीवादी को देश के पैमाने पर नायक के तौर पर प्रक्षेपित किया। पूंजीवादी प्रचारतंत्र की समूची ताकत से यह प्रक्षेपण जारी है और कोशिश की जा रही है कि निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण के जमाने का ‘शाइनिंग इंडिया’ वाला शहरी मध्यम वर्ग, खासकर सवर्ण शहरी मध्यम वर्ग इस छुद्र फासीवादी को अपना नायक मान ले। किसी हद तक उसे सफलता भी मिल रही है तथा ‘इस्तेमाल करो और फेंको’ वाला उपभोक्तावादी मध्यम वर्ग इस समय कॉरपोरेट घरानों के पैसे से व कॉरपोरेट मीडिया द्वारा किए जा रहे धुंआधार प्रचार को भकोस रहा है। वह एक उन्माद की अवस्था में ढकेला जा रहा है जहां से वह जल्दी ही अवसाद की अवस्था में जाएगा।
भ्रष्टाचार के खिलाफ इस तरह का पूंजीवादी अभियान पिछले दो दशकों में कई बार छेड़ा जा चुका है और हर बार भ्रष्टाचार और ज्यादा बड़ा आकार ग्रहण करता गया है। मिस्टर क्लीन राजीव गांधी, वी.पी. सिंह, टी.एन.शेषन, ढौरनार इत्यादि कई नायक इस दौरान पैदा हुए जिन्हें खलनायक बनते या विलीन होते देर नहीं लगी।
इस बार फिर ‘दूसरी आजादी’ के नारे के साथ पूंजीपति वर्ग द्वारा यह धुंआधार प्रचार किया जा रहा है। त्रासदी या विडंबना यह है कि साढ़े तीन दशक पहले दूसरी आजादी की लड़ाई लड़ी और जीती जा चुकी है। तब इंदिरा गांधी के आपातकाल के खिलाफ जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में यह लड़ाई लड़ी गई थी। इस ‘दूसरी आजादी’ से क्या मिला? भांति-भांति के तत्वों की मिली-जुली जनता पार्टी की सरकार जो तीन साल भी नहीं चली।
जय प्रकाश नारायण तो तब भी एक पूंजीवादी हस्ती थे। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में उन्होंने समाजवादी पार्टी के एक जाबांज नेता के तौर पर नाम कमाया था। उनकी इसी ख्याति ने उन्हें 1975 में आपातकाल के खिलाफ वह भूमिका प्रदान की। कहा जा सकता है कि उन्होंने पूंजीवादी दायरे में एक हद तक महानता हासिल की थी। उस समय तथाकथित आजादी की ‘दूसरी लड़ाई’ पूंजीवादी राजनीतिक पार्टियां लड़ रही थीं, कांग्रेस पार्टी के खिलाफ।
जय प्रकाश नारायण तो तब भी एक पूंजीवादी हस्ती थे। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में उन्होंने समाजवादी पार्टी के एक जाबांज नेता के तौर पर नाम कमाया था। उनकी इसी ख्याति ने उन्हें 1975 में आपातकाल के खिलाफ वह भूमिका प्रदान की। कहा जा सकता है कि उन्होंने पूंजीवादी दायरे में एक हद तक महानता हासिल की थी। उस समय तथाकथित आजादी की ‘दूसरी लड़ाई’ पूंजीवादी राजनीतिक पार्टियां लड़ रही थीं, कांग्रेस पार्टी के खिलाफ।
इस बार पूंजीपति वर्ग ने एक छुद्र से फासीवादी को नायक के तौर पर प्रक्षेपित करने का फैसला किया जिसका कोई राजनीतिक अतीत नहीं है। इसी तरह उसने पूंजीवादी पार्टियों के बदले अपने पैसों से चल रहे एनजीओ को तथाकथित सिविल सोसाइटी के नाम पर आगे किया। यह बदले जमाने में पूंजीपति वर्ग की रणनीति है- जनता के गुस्से को क्षरित करने के लिए गैर राजनीतिक आंदोलनों को प्रायोजित करना। इसके लिए मध्यम वर्ग का इस्तेमाल करना।
लेकिन तात्कालिक तौर पर धंुआधार प्रचार की सारी ऊपरी सफलता के बावजूद पूंजीपति वर्ग और उसकी व्यवस्था के सारे असंतोष ही इस बात को सुनिश्चित करते हैं कि यह सारा प्रायोजित आंदोलन मध्यम वर्ग की उम्मीदों पर भी पानी फेरते हुए समाप्त हो जाए। तब उन्माद से अवसाद की अवस्था हावी हो जाएगी।
इस बीच पूंजीपति वर्ग और मध्यम वर्ग के इस खेल को मजदूर वर्ग थोड़ी हिकारत और थोड़े मजे से देख रहा है। वह जानता है कि इनके सारे दंद-फंद के बावजूद भ्रष्टाचार बढ़ता ही जाएगा। भ्रष्टाचार पूंजीवादी व्यवस्था का अनिवार्य हिस्सा है। उदारीकरण पूंजीवाद में तो यह और भी बढ़ गया है। कोई कानून और कोई तंत्र-मंत्र इसे खत्म नहीं कर सकता।
वैसे भी पतित पूंजीवाद में मजदूर वर्ग के लिए दूसरे मुद्दे भ्रष्टाचार से ज्यादा बड़े और गंभीर हैं। उनकी मध्यम वर्ग को कोई चिंता नहीं है और पूंजीपति वर्ग तो उनकी जड़ में है। मजदूर वर्ग इनके खिलाफ संघर्षरत है। वह जानता है कि इन समस्याओं सहित भ्रष्टाचार का भी समाधान समूची पूंजीवादी व्यवस्था के खात्मे में है।
लेकिन तात्कालिक तौर पर धंुआधार प्रचार की सारी ऊपरी सफलता के बावजूद पूंजीपति वर्ग और उसकी व्यवस्था के सारे असंतोष ही इस बात को सुनिश्चित करते हैं कि यह सारा प्रायोजित आंदोलन मध्यम वर्ग की उम्मीदों पर भी पानी फेरते हुए समाप्त हो जाए। तब उन्माद से अवसाद की अवस्था हावी हो जाएगी।
इस बीच पूंजीपति वर्ग और मध्यम वर्ग के इस खेल को मजदूर वर्ग थोड़ी हिकारत और थोड़े मजे से देख रहा है। वह जानता है कि इनके सारे दंद-फंद के बावजूद भ्रष्टाचार बढ़ता ही जाएगा। भ्रष्टाचार पूंजीवादी व्यवस्था का अनिवार्य हिस्सा है। उदारीकरण पूंजीवाद में तो यह और भी बढ़ गया है। कोई कानून और कोई तंत्र-मंत्र इसे खत्म नहीं कर सकता।
वैसे भी पतित पूंजीवाद में मजदूर वर्ग के लिए दूसरे मुद्दे भ्रष्टाचार से ज्यादा बड़े और गंभीर हैं। उनकी मध्यम वर्ग को कोई चिंता नहीं है और पूंजीपति वर्ग तो उनकी जड़ में है। मजदूर वर्ग इनके खिलाफ संघर्षरत है। वह जानता है कि इन समस्याओं सहित भ्रष्टाचार का भी समाधान समूची पूंजीवादी व्यवस्था के खात्मे में है।
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