भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 18 जून 2009 को संसद में यह बयान दियाः”अगर वामपंथी अतिवाद देश के उन हिस्सों में पनपता रहा जहां खनिज संसाधन मौजूद हैं तो निवेश का माहौल निश्चित तौर पर प्रभावित होगा।“
यह बयान 2 नवंबर के ‘जनसत्ता’ में अरुन्धती राय के लेख ‘आंतरिक सुरक्षा या युद्ध’ में उद्धृत किया गया है। इसी 2 नवंबर के ‘जनसत्ता’ में पृष्ठ 12 पर यह खबर छपीः‘मध्य प्रदेश मानवाधिकार आयोग ने खंडवा पुलिस दमन पर रपट तलब की’। पूरी खबर इस प्रकार हैः
”नयी दिल्ली/खंडवा, 1नवंबर। मध्य प्रदेश के 54 वें स्थापना दिवस पर ‘अपना मध्यप्रदेश’ मनाने की तैयारियों मे जहां पूरे प्रदेश में राज्य सरकार जुटी रही, वहीं स्थापना दिवस के सिर्फ तीन दिन पहले प्रदेश के जल, जंगल और जमीन से विस्थापित किये गये मूल निवासियों पर खंडवा में पुलिस अत्याचार किया गया। इस मामले मे जिला मजिस्ट्रेट और खंडवा के एस. पी. से राज्य मानवाधिकार आयोग ने तीन दिन के अंदर रपट तलब की है।
”दिल्ली पहुंची खबरों के अनुसार जिला पुलिस ने 29 अक्टूबर को खंडवा में बिना किसी वारंट के नर्मदा बचाओ आंदोलन के कार्यालय पर छापा मारा, लाठियां बरसाई, पांच लोगों को गिरफ्तार किया। कार्यालय से कम्यूटर की फाइलें और दूसरी फाइलें जब्त कर लीं।
”इससे एक दिन पहले पुलिस ने विभिन्न बांधों के निर्माण से विस्थापित हुये प्रदेश के मूल निवासियों के शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर लाठीचार्ज किया और उन्हें कचहरी के बाहर से खदेड़ा। आंदोलन की कार्यकर्ता चित्ततरूपा पालित और राजकुमार भी लाठीचार्ज में घायल हुए। उन्हें पकड़ लिया गया। पुलिस ने 19 कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया। इसमें ज्यादातर आदिवासी हैं। प्रदर्शनकारियों की तादात कई सौ थी इसलिए पहले लाठीचार्ज कर खदेड़ा गया फिर गिरफ्तारी की गई।
”पुलिस का मानना है कि प्रदर्शनकारी और नर्मदा बचाओ आंदोलन का कार्यालय देश विराधी गतिविधियों में लगा है। पुलिस ने गिरफ्तार किये गये लोगों में से दो के खिलाफ धारा 332, 353(गैर जमानती) और अन्य पर 323, 294, 188, 342, 147 और 432 लगाई हैं। प्रदर्शनकारियों का कहना है कि वे शांतिपूर्ण प्रदर्शन राज्य सरकार की मशीनरी के खिलाफ कर रहे थे जिसमें 23 सितंबर 2009 के जबलपुर हाई कोर्ट के आदेश की तामील नहीं की जा रही है।
‘‘नर्मदा बचाओ आंदोलन की अगुआ मेधा पाटकर के अनुसार पुलिस ने आदिवासियों के शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर लाठियां बरसा कर झूठे आरोपों के तहत गिरफ्तारियां कर और बिना वारंट के दफ्तर पर छापा मारकर गैर संवैधानिक काम किया है। राज्य सरकार ने अदालत के आदेश की तामील न करके अदालत की अवमानना भी की है। विस्थापित आदिवासी अदालत के आदेश के तहत मुआवजा, घर और जमीन न मिलने के विरोध में प्रदर्शन पर उतरे थे।“
उपरोक्त दोनों चीजें यानी प्रघानमंत्री का बयान और आदिवासियों पर पुलिसिया दमन की खबर उस पर पर्याप्त रोशनी डालते हैं जिसे आजकल भारत सरकार देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बता रही है और जिससे निपटने के लिए वह आपरेशन ग्रीनहण्ट चला रही है।
भारत सरकार और उसके पालतू प्रचारकों का कहना है कि ‘वामपंथी अतिवादी’ या माओवादी यदि पिछड़े गरीब लोगों, आदिवासियों के लिए कुछ करना चाहते हैं, वे यदि वास्तव में उनके भले के लिए चिंतित हैं तो उन्हें हिंसा का रास्ता छोड़कर देश की मुख्य धारा में आना चाहिए और लोकतंत्र के रास्ते का इस्तेमाल करते हुए शांतिपूर्ण तरीके से गरीबों के लिए संघर्ष करना चाहिए। गृहमंत्री पी. चिदंबरम तक इस बात को दुहरा चुके हैं।
लेकिन नर्मदा बचाओ आंदोलन का समूचा अनुभव क्या दिखाता है? जब 1980 के दशक में नर्मदा नदी पर बांधों की परियोजना शुरू हुयी तब कुछ स्वयं सेवी लोगों ने, जिनमें मेधा पाटकर प्रमुख थीं, नर्मदा बचाओ आंदोलन की स्थापना की। नर्मदा नदी पर जो बांध बनने थे, जिनमें सरदार सरोवर सबसे बड़ा था, उनसे नर्मदा की घाटी में रहने वाले लाखों आदिवासियों के लिए विस्थापन का खतरा पैदा हो गया था। ऐसे विस्थापित होने वाले आदिवासियों की संख्या करीब आठ लाख थी।
नर्मदा नदी पर जो बांध बनने थे उनसे बिजली और पानी महाराष्ट्र और गुजरात के गन्ना पैदा करने वाले बड़े किसानों को मिलना था। शहरी पूंजीपतियों और इन देहाती पूंजीपतियों को ही नर्मदा घाटी परियोजना का सारा फायदा मिलना था।
और नर्मदा घाटी में सदियों से चले आ रहे आदिवासियों को क्या मिलना था? उन्हें मिलना था अपनी जमीन से विस्थापन, दर-दर की ठोकरें और कंगाली। वे जिस जीवन शैली के आदी थे उससे विस्थापन उनके लिए वैसे ही बहुत पीड़ादायक था। ऊपर से उनके पुनर्वास की एकदम नाकाफी व्यवस्था तो उनके लिए नरक का द्वार ही खोलती थी। वे कंगाल होकर इघर-उधर भटकने या निर्माण क्षेत्र में बेहद कम मजदूरी पर काम कर जिन्दा रहने के लिए मजबूर थे।
नर्मदा बचाओ आंदोलन नामक स्वयं सेवी संगठन(आज की भाषा में गैर सरकारी संगठन) के आंदोलन ने इन आदिवासियों को विस्थापन के खिलाफ संघर्ष के लिए गोलबंद किया। इसने नर्मदा परियोजना के खिलाफ, बांधों की ऊंचाई के खिलाफ, आदिवासियों के विस्थापन के खिलाफ और उचित पुनर्वास सबके लिए संघर्ष किया। इसने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अन्य गैर सरकारी संगठनों के सहयोग से प्रचार किया, दुनिया भर के पर्यावरणवादियों, मूल निवासी आंदोलन के समर्थकों को अपने पक्ष में गोलबंद किया, नर्मदा परियोजना को पैसा देने वाले विश्व बैंक पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव बनाया और मामले को भारत की अदालतों में पहुंचाया। इन सबसे बांधों की ऊंचाई, जलाशय का विस्तार, विस्थापित होने वाले आदिवासियों की संख्या और पुनर्वास की व्यवस्था सब समीक्षा के दायरे में आ गये। एक समय तो अदालत के आदेश से परियोजना रोक भी दी गई। विश्व बैंक ने भी पुनर्वास की आलोचना की और पैसा देने के मामले में कठोर रुख दिखाने का वायदा किया। भारत सरकार और प्रदेश सरकारों ने वायदा किया कि वे विस्थापित होने वाले आदिवासियों के पुनर्वास की पूरी व्यवस्था करेंगी।
अब इससे सबक लेकर यदि आदिवासी अपनी पुरानी जीवन शैली की रक्षा में, अपनी जल-जंगल-जमीन की रक्षा में भारत सरकार के खिलाफ हथियार उठा लेते हैं या हथियार बंद संघर्ष का आह्वान करने वाले माओवादियों के पीछे गोलबंद हो जाते हैं तो इसका जिम्मेदार कौन होगा? निश्चित तौर पर यह पूंजीवादी व्यवस्था, यह लोकतांत्रिक व्यवस्था जिसमें शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर भी पुलिस लाठियां भांजती है और लोगों को झूठे मुकदमों में फंसाती है। इसके लिए स्वयं मनमोहन सिंह, चिंदबरम, टाटा-बिड़ला-अंबानी जिम्मेदार हैं।
वास्तव में झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडीसा, प. बंगाल, मध्य प्रदेश व महाराष्ट्र के उन आदिवासी बहुत इलाकों की यही वास्तविकता है जहां अब सरकार आपरेशन ग्रीनहण्ट चला रही है। ये इलाके भारत की प्राकृतिक संपदा के इलाके हैं। इन्हीं में भारत के 70 प्रतिशत जंगल और 80 प्रतिशत खनिज पदार्थ आज मौजूद हैं। इन इलाकों से कई नदियां भी बहती हैं। आज उदारीकृत भारत के पूंजीपति वर्ग को यह प्राकृतिक संपदा चाहिए। यही नहीं, उसे यह प्राकृतिक संपदा अबाध ढंग से चाहिए। उसमें किसी तरह का अवरोध नहीं चाहिए। उसके अपने विकास के लिए, अपने पूंजी संचय के लिए यह बहुत जरूरी है।
लेकिन पूंजीपति वर्ग के लिए यह परेशानी की बात है कि उसे यह प्राकृतिक संपदा अबाध ढंग से मिलने में अड़चन आ रही है। अपनी पुरानी जीवन शैली से बंधे आदिवासी पूंजीपतियों की खरीद-फरोख्त से प्रभावित नहीं हो रहे हैं। वे अपनी जमीनों को औने-पौने दामों में पूंजीपतियों को नहीं बेच रहे हैं जिससे पूंजीपति वहां खनन कर सकें और अपनी फैक्टरियां लगा सकें। (यह दोहन व फैक्टरी निर्माण देशी-विदशी दोनों पूंजीपति करना चाहते हैं) यही नहीं आदिवासी बाहरी लोगों द्वारा अपने शोषण का भी प्रतिरोध कर रहे हैं और जंगल पर अपना परम्परागत अधिकार जता रहे हैं। सरकार जंगल को अपनी सम्पत्ति घोषित कर इसे दोहन के लिए पूंजीपतियों को सौंप रही है।
आदिवासियों द्वारा पूंजीवादी विकास में शामिल होने के इस तरह हठपूर्वक इंकार के चलते मुनाफे और संचय के भूखे पूंजीपति वर्ग और उसकी सरकार के लिए फिर यही बचता है कि वह उन्हें बलपूर्वक बेदखल कर दे। छत्तीसगढ़ से लेकर झारखंड तक, दांतेवाड़ा से लेकर लालगढ़ तक यही हो रहा है। सलवा जुडूम के माध्यम से आदिवासियों को उनके गांवों से खदेड़ कर उनकी जमीन को पूंजीपतियों को खनन और फैक्टरी लगाने के लिए सुलभ करा दिया गया।
अब पूंजीपति वर्ग यह चाहता है कि अपनी जमीन से इस तरह खदेड़े गये लोग शांतिपूर्ण तरीके से, गांधीवादी तरीके से प्रतिरोध करें और प्रतिरोध करते-करते एक दिन आदिवासी से निम्न स्तरीय उजरती मजदूर बन जायें। यह उसके लिए और फायदे की बात होगी। उसे और भी ज्यादा सस्ते मजदूर मिल जायेंगे और उसका पूंजीवादी विकास का रथ और तेजी से दौड़ पड़ेगा। लेकिन आदिवासी हैं कि पूंजीपति और उसकी सरकार की सुनते नहीं और हथियार उठाकर उसके पूंजीवादी विकास में बाधक बन जाते हैं। भला पूंजीपति वर्ग यह कैसे बर्दाश्त कर सकता है?
यह भारत के आदिवासी इलाके में ही नहीं, पूरी दुनिया में हो रहा है। इसे कुछ लोगों ने ‘बेदखली के जरिये संचय’ (एक्यूमुलेशन बाई डिस्पजेशन) नाम दिया है। उदारीकृत पूंजीवाद में न केवल मजदूरी घटा कर मजदूरों का बेतहाशा शोषण कर संचय किया जा रहा है बल्कि छोटी सम्पत्ति वालों से जबर्दस्ती उनकी सम्पत्ति छीन कर भी संचय किया जा रहा है। भारत में विशेष आर्थिक क्षेत्र के नाम पर सरकार द्वारा छोटे किसानों से जमीन छीनकर उसे पूंजीपतियों को सौंप देना इसी का एक हिस्सा है। दुनिया में जहां कहीं आदिवासी मौजूद हैं और संयोगवश वे प्राकृतिक संपदा के क्षेत्र में निवास करते हैं वहां उनकी बेदखली और कंगाली उनकी नियति है। देशी और खासकर बहुराष्ट्रीय कम्पनियां उनको बेदखल कर प्राकृतिक संपदा पर कब्जा करने के लिए कुछ भी कर रही हैं। अफ्रीका के कई सारे तथाकथित जातीय मुद्दों के पीछे यही तथ्य हैं। वहां बहुराष्ट्रीय कंपनियां लोगों को लड़ाकर और फिर शांति स्थापना के नाम पर उन्हें बेदखल कर प्राकृतिक संपदा पर कब्जा कर रही हैं।
पूंजीपति वर्ग और पूंजीवाद ने अपने जन्म के समय से यही कुछ किया है। कभी-कभी यह थोड़ा धीमा हो जाता रहा है लेकिन हमेशा जारी रहा है। उदारीकृत पूंजीवाद के पिछले तीन दशकों में तो यह बहुत तेज गति से हो रहा है। खासकर प्राकृतिक संसाधनों के लिए आपा-धापी और मार-काट तो चरम पर पहुंच गयी है। यदि तेल के लिए इराक और अफगानिस्तान को तबाह किया जा सकता है तो आदिवासी अपनी पुरानी जगह में सुरक्षित नहीं रह सकते। बेलगाम पूंजीवाद उन्हें खदेड़ कर रहेगा।
इस बेलगाम पूंजीवाद को चुनौती केवल मजदूर वर्ग से मिल सकती है। यह मजदूर वर्ग ही है जो पूंजीवाद की कब्र खोद सकता है। वही पूंजीवाद द्वारा तबाह किये जा रहे छोटे-मझोले किसानों और आदिवासियों को वास्तव में पूंजीवाद के खिलाफ गोलबंद कर सकता है। मजदूर वर्ग से इतर किसानों या आदिवासियों के संघर्ष का कोई भविष्य नहीं है। देर-सबेर मजदूर वर्ग आगे बढ़कर इस चुनौती को स्वीकार करेगा और पूंजीवाद की कब्र खोदने के लिए किसानों-आदिवासियों और अन्य उत्पीडि़त तबकों को अपने पीछे गोलबंद करेगा।
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