Tuesday, September 1, 2009

गुड़गांव का मजदूर आंदोलन और भावी मजदूर आंदोलनों के दिशा संकेत

वैश्वीकरण अथवा भूमंडलीकरण के मौजूदा दौर में मजदूर आंदोलन की सीमाओं व संभावनाओं के संबंध में विमर्श करते समय कतिपय बुद्धिजीवियों या संगठनों की ओर से यह बात जोर शोर से प्रचारित की जा रही है कि संगठित मजदूरों अथवा बड़े कारखानों में आधुनिक तकनीक के तहत विशाल पैमाने पर एक ही छत के नीचे सैकड़ों -हजारों की संख्या में काम करने वाले मजदूरों के आंदोलनों का युग अब समाप्त हो गया है या समाप्त होने की ओर अग्रसर है। अब बड़ी औद्योगिक इकाइयों में हड़ताल या संघर्ष की संभावनायें खत्म हो चली हैं।और इनकी जगह अब असंगठित या अनौपचारिक क्षेत्र के मजदूरों के संघर्ष ही भविष्य में मजदूर आंदोलन की संचालक शक्ति अथवा नेतृत्वकारी ताकत है।

अपनी इस अवधारणा के लिए ये बुद्धिजीवी अथवा संगठन वैश्वीकरण अथवा भूमंडलीकरण के दौर में पूंजीवाद की उत्पादन प्रणाली में कथित बदलाव को जिम्मेदार मानते हैं। इनके अनुसार वैश्वीकरण के मौजूदा दौर में उत्पादन के विकेन्द्रीकरण की जो प्रक्रिया शुरु हुई है उसने परंपरागत मजदूर आंदोलन के चरित्र, प्रकृति व संभावनाओं में भारी उलटफेर कर दिया है। इन लोगों के अनुसार ‘बड़े पैमाने’ पर जारी उत्पादन के विकेन्द्रीकरण अथवा उत्पादन के आउटसोर्सिंग के चलते कारखानों में सैकड़ों हजारों की संख्या में संगठित सर्वहारा अब एक लुप्तप्रायः प्रजाति में तब्दील होता जा रहा है। जो थोड़ा बहुत संगठित सर्वहारा बचा भी है तो वह निर्णायक संघर्ष करने की स्थिति में नहीं है क्योंकि आउटसोर्सिंग के चलते उत्पादन ठप्प करने या प्रभावित करने के अपने अमोघ अस्त्र से वह वंचित हो गया है। इसका आकार भी क्रमशः सिकुड़ता जा रहा है। बचे खुचे संगठित मजदूरों का अभिजातीकरण भी हुआ है अर्थात इनका जीवनस्तर शेष मजदूर आबादी से काफी अधिक उन्नत है। ये मोटी तनख्वाहें पाने वाले मजदूर अब कोई संघर्ष खड़ा करने की स्थिति में ही नहीं हैं। इनका पुंसत्वहरण हो चुका है। इस तरह ये बुद्धिजीवी यह फतवा जारी करते हैं कि कारखाना आधारित संगठित मजदूरों के आन्दोलन का युग खत्म हो चला है। उत्पादन के विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया को जोर शोर से प्रचारित करते हुए उसे अति पर पहुंचाते हुए इन अधीर बुद्धिजीवियों ने असेम्बली लाइन उत्पादन प्रणाली के ही खत्म होने की अथवा तेजी से खत्म होते जाने की बात करनी शुरू कर दी है।
कुल मिलाकर संगठित कारखाना मजदूरों के संघर्षों के कालातीत हो जाने की घोषणा करने वाले इन विचारकों की बातों का लुब्बे लुबाब यह है कि अब बड़े कारखानों में सैकड़ों-हजारों की संख्या में संगठित आधुनिक सर्वहारा मजदूर आंदोलन में अप्रासंगिक हो चला है क्योंकि पूंजीवाद ने समय के अनुसार अपनी उत्पादन प्रणाली में काफी कुछ बदलाव करते हुए उसे संवर्द्धित कर परंपरागत मजदूर आंदोलनों (कारखाना आधारित) के प्रति प्रतिरोधक क्षमता हासिल कर ली है। ऐसी क्षमता उसने उत्पादन प्रणाली के विकेन्द्रीकरण के चलते या इनके शब्दों में असेम्बली लाइन को बिखरा देने के चलते हासिल कर ली है। आज उत्पादन के विकेन्द्रीकरण का दौर है जहां एक ही छत के नीचे अति सूक्ष्म श्रम विभाजन के आधार पर काम करने वाला सर्वहारा खत्म होता जा रहा है इनके अनुसार जहां असेम्बली लाइन के तथाकथित बिखराव के चलते पूंजीवाद ने अभेद्य प्रतिरोधक क्षमता (कारखाना आधरित मजदूर संघर्षों के प्रति) हासिल कर ली है वहीं संगठित क्षेत्र का मजदूर भी अधिक सुविधाभोगी-वेतनभोगी होकर अभिजातीकरण की प्रक्रिया के चलते अपने प्रतिरोध की बची खुची संभावनाओं को खत्म कर चुका है। इसलिए कारखाना आधारित मजदूर संघर्षों का कोई भविष्य नहीं है। अब जो भी निर्णायक संघर्ष लड़े जायेंगे वे मूलतः कारखाना आधारित मजदूरों के संघर्ष न होकर मजदूर बस्तियों, मोहल्लों व इलाकों अर्थात मजदूरों के आवासीय स्थलों पर आधारित संघर्ष होंगे और इन संघर्षों को लड़ने वाला असंगठित क्षेत्र, अनौपचारिक क्षेत्र अथवा बिखरे उत्पादन के तहत कार्यरत बिखरा हुआ सर्वहारा होगा। ये ही बिखरे उत्पादन,छोटे पैमाने के उत्पादन के तहत कार्यरत बिखरे मजदूर ही भावी मजदूर आंदोलन की मुख्य संचालक शक्ति, नेतृत्वकारी शक्ति होंगे तथा यह ही मजदूर आंदोलन के भविष्य हैं।
इस तरह ये विचारक तमाम मजदूर संगठनों को यह हिदायत देते हैं कि संगठित क्षेत्र के मजदूरों के बजाय, कारखाना आधारित मजदूर संघर्षों के बजाय बस्तियों या आवासीय क्षेत्रों के आधार पर मजदूरों को संगठित किया जाय या उनके संघर्ष खड़े किये जायें।
मजदूर आंदोलन के भीतर पैदा हुई यह प्रवृति की वास्तविक चुनौतियों से किनारा-कशी कर, मजदूर वर्ग के ट्रेड यूनियन संघर्षों से प्रकारेण तरीके से किनारा-कशी कर मजदूरों की बस्ती या आवासीय स्थानों की समस्याओं जैसे पानी बिजली, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी एन.जी.ओ.मार्का सुधारवादी कार्यवाहियों को मजदूर आंदोलन की मुख्य कार्यवाहियां बना देती है और मुकम्मल सुधारवाद के रास्ते की पैरोकारी करने लगती है। हद तो तब हो जाती है जब यह अपनी इस सुधारवादी परियोजना को राजनीतिक संघर्ष के नाम से प्रचारित करने लग जाती है। उद्यमों के मजदूरों के नाम पर ये छोटे-मोटे उद्योगों कुटीर, लघु अथवा वर्कशापों या असंगठित- अनौपचारिक क्षेत्र के मजदूरों को ही प्रमुखता से संगठित करने की बात करते हैं। इस प्रवृत्ति के पैदा होने के आधार और इनकी दलीलों के खोखलेपन को परखने के लिए आइये देखें कि मजदूर आंदोलन की वास्तविक हकीकत आज क्या बयां कर रही है। मजदूर आंदोलन की आज जो छिटपुट चिंगारियां दिख रही हैं वे क्या दिखा रही हैं? वे भविष्य के दिशा संकेत के रूप में क्या बयां कर रही हैं? ऐसा इसलिए क्योंकि सीमित व्यवहार व अकादमिक निष्कर्षों पर आधारित समझदारी एकांगी होती है। जीवन इस एकांगी समझ की सीमाओं व विसंगतियों को उदघाटित कर देता है। तथ्य सबसे बड़े शिक्षक होते हैं।
कारखाना आधारित मजदूर आंदोलनों की चुनौतियों, उसकी सीमाओं संभावनाओं को जानने के लिए और आज के मजदूर आंदोलन की चुनौतियों को समझने व भविष्य के दिशा संकेत ग्रहण करने के लिए पिछले कुछ समय से गुड़गांव में चल रहा मजदूरों का संघर्ष हमें काफी कुछ मदद कर सकता है। यह इसलिए क्योंकि पिछले सालों में इतने बड़े पैमाने पर मजदूरों की एकजुटता व जुझारूपन के बहुत कम ही उदाहरण सामने आये हैं जितना कि इस आंदोलन में दिखायी दिया है।
लगभग तीन पखवाड़े से चल रहे इस आंदोलन की विशेषता यह है कि यह आधुनिक तकनीक पर कार्यरत हजारों की संख्या में संगठित मजदूरों वाले कारखानों में शुरु हुआ। 20-21 सितंबर को जिन दो कारखानों, रिको ऑटो लि. व सनबीम इंडस्ट्रीज लि. में यह आंदोलन शुरु हुआ वहां लगभग 4500 मजदूर कार्यरत हैं। रिको में 4500 मजदूरों में से 2800 स्थायी व शेष कंपनी रोल या कैजुअल तथा सनबीम में 4500 मजदूरों में से 650 स्थायी शेष कैजुअल या कंपनी रोल पर हैं। इन मजदूरों में स्थाई मजदूर सामान्यतः 10 हजार रुपये से ऊपर तथा रेगुलर 4500 रु. तक वेतन पाते हैं। इनकी मांगें मुख्यतः यूनियन पंजीकरण (रिको ऑटो लि.) व यूनियन के जनवादीकरण अथवा चुनाव(सनबीम इंडस्ट्रीज) की हैं। अपने संघर्ष में इन मजदूरों ने पाया कि उनका मुकाबला केवल अपने-अपने पूंजीपतियों से ही नहीं बल्कि शासन-प्रशासन, श्रम-विभाग की सम्मिलित ताकत से है। प्रशासन व पूंजीपति गठजोड़ ने गुंडों-पुलिस के दम पर मजदूरों के ऊपर  बर्बर हमले किये। मजदूरों ने दृढ़ता पूर्वक संघर्ष किया। कई मजदूर घायल हुए। एक मजदूर शहीद भी हो गया। मजदूर आंदोलन को कुचलने के लिए दमन आज के दौर में शासन प्रशासन-पूंजीपति गठजोड़ की पहली पसंद होता है। गुड़गांव के मजदूरों ने इस दमन को बार बार झेला है। समय-समय पर पिछले लंबे दौर से जारी दमन ने मजदूरों को इस बात का एहसास करा दिया था कि वे अपनी व्यापक एकता से ही पूंजीपति-श्रमविभाग-शासन-प्रशासन-गुंडा गठजोड़ से निपट सकते हैं। फलस्वरूप मौजूदा आंदोलन में शुरू से ही मजदूरों ने व्यापक एकजुटता प्रदर्शित कर सरकार व पूंजीपतियों के हौंसले पस्त कर दिये। 25 सितंबर को पहली बार लाठी चार्ज के विरोध में 18 यूनियनों के 25 हजार मजदूरों का प्रदर्शन हुआ, 1 अक्टूबर को 20 हजार मजदूरों ने राष्ट्रीय राजमार्ग जाम किया। 18 अक्टूबर को पुलिस-गुंडा गठजोड़ द्वारा मजदूरों पर बर्बर हमले के खिलाफ 20 अक्टूबर को देश की सबसे बड़ी ऑटो बेल्ट (गुड़गांव, मानेसर, धारूहेड़ा, रिवाड़ी) में अभूतपूर्व आम हड़ताल हुई जिसमें लगभग एक लाख मजदूरों ने हिस्सा लिया तथा 60 यूनियनों के लगभग 40 से 50 हजार से ऊपर मजदूरों ने रिको-सनबीम के मजदूरों से एकजुटता जाहिर करते हुए रिको फैक्टरी के सामने प्रदर्शन किया। प्रशासन हतप्रभ रह गया।मजदूरों का दमन करने की उसकी नीति विफल साबित हुई। इस एकदिनी हड़ताल ने पूरे देश के स्तर पर पूंजीवादी अखबारों में सुर्खियां बटोरी। कारपोरेट मालिकान हलकान हो गए। गुड़गांव के मजदूर आंदोलन से होने वाले आर्थिक नुकसान का पूंजीवादी अखबारों ने जोर शोर से रोना रोया। दो पखवाड़े के भीतर ही 400 करोड़ रुपये की वित्तीय हानि की बात पूंजीवादी अखबारों में प्रकाशित हुई। इस हड़ताल ने पूरे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में मजदूर आबादी के हौसले बुलंद कर दिये। हरियाणा के सभी प्रमुख औद्योगिक केन्द्रों में इस हड़ताल के समर्थन व दमन के विरोध में प्रदर्शन हुए। रोडवेज परिवहन निगम व सरकारी कर्मचारियों ने भी इस आंदोलन को समर्थन दिया। हरियाणा सरकार मजदूरों के चैतरफा उभार की संभावनाओं से चिंतित हो गयी। 20 अक्टूबर की हड़ताल के बाद भी 28 अक्टूबर को 20 हजार मजदूरों का विशाल प्रदर्शन रिको-सनबीम मजदूरों के समर्थन में हुआ। 4 नवम्बर को पुनः 10 हजार मजदूरों की आम सभा हुई।
गुड़गांव की मुख्यतः दो फैक्टरियों के मजदूरों के इस संघर्ष के प्रभाव के चलते अन्य कुछ कारखानों में प्रबंधन ने संघर्षरत मजदूरों की मांगें जिसमें यूनियन गठन जैसी मांगें शामिल थी, तुरंत मान ली। रिको और सनबीम के मजदूरों की आंशिक मांगें प्रबंधन ने मान ली सिवाय सभी निलंबित मजदूरों की वापसी के। यहां अगर प्रबंधन प्रशासन पूरी तरह नहीं झुक रहा था तो इसलिए क्योंकि यह उसके लिए अब प्रतिष्ठा और नैतिक पराजय का सवाल बन गया था।फिर भी प्रबन्धन को ज्यादातर निलंबित मजदूरों को वापस रखने पर अंततः मजबूर होना पड़ा।
रिको मजदूरों के संघर्ष के चलते सबसे महत्वपूर्ण परिघटना जो सामने आयी वह यह कि इस आंदोलन का प्रभाव दुनिया की अग्रणी ऑटो कंपनियों पर भी पड़ गया। इस संघर्ष के चलते ट्रांसमिशन उपकरण सप्लाई पर्याप्त न होने के चलते कनाडा स्थित फोर्ड प्लांट को 30 अक्टूबर तक बंद रखने की कंपनी ने घोषणा कर दी। (हिंदुस्तान- 29 अक्टूबर)
रायटर के अनुसार फोर्ड कंपनी को अपने ओकविले, ओन्टरियो के प्लान्ट को 26 अक्टूबर से 30 अक्टूबर तक बंद रखने की घोषणा करनी पड़ी। कनाडियन ऑटो वर्कस यूनियन के स्थानीय अध्यक्ष के मुताबिक इस बंद से अकेले ओकविले के 3000 मजदूर प्रभावित हुए। रिको प्रबंधन का भी मानना है कि मजदूरों के विरोध व काम पर न पहुंचने के कारण फोर्ड व जनरल मोटर्स को 6थ् ट्रांसमिशन पार्टस का निर्यात नहीं हो पा रहा है तथा इस दौरान निर्यात में 50 प्रतिशत की गिरावट आयी। ऑटो एंसीलरी कंपनी रिको दुनिया भर में 6थ् पार्ट्स बनाने की इकलौती कंपनी है।
रिको के मजदूर आंदोलन की बदौलत दुनिया की जानी मानी ब्रांड की निशान व अन्य कारों का उत्पादन बुरी तरह प्रभावित हुआ है। माना जा रहा है कि अगर यह आंदोलन खत्म नहीं हुआ तो आने वाले दिनों में दुनिया भर की कई ऑटो कंपनियों का उत्पादन प्रभावित होगा। जनरल मोटर्स का उत्पादन भी बुरी तरह प्रभावित होने की स्थिति में है। यहां यह भी गौरतलब है कि जनरल मोटर्स को निर्यात पुर्जों -6थ् की सप्लाई में 50 फीसदी गिरावट आयी है। यह बात खुद इन कंपनियों के प्रबंधक स्वीकारते हैं। निशान की पिक्सो माडल गुड़गांव स्थित मारूति सुजुकी इंडिया के स्थानीय प्लांट में तैयार होती है। अगले तीन महीनों में कंपनी की योजना 50 हजार कारों के उत्पादन की थी लेकिन इस आंदोलन के बदौलत सितंबर समाप्ति तक महज 2507 कारें ही निर्मित हो पायीं।
गौरतलब है कि प्रदूषण मानकों के मद्देनजर यूरोपीय देशों में रिको के 6थ् पार्टस का उत्पादन वैकल्पिक तौर पर भी नहीं हो सकता।
जाहिर है कि भारत जैसे तीसरी दुनिया की एक सामान्य कंपनी के आंदोलन  ने वैश्वीकरण के दौर में पुनर्गठित उत्पादन प्रणाली के भीतर मौजूद छेदों को उद्घाटित कर दिया है। इस आंदोलन ने स्थानीय या इलाकाई पैमाने पर मजदूर आंदोलन के संगठित होने, व्यापक एकता की नयी जमीन तलाशने का काम किया है बल्कि वैश्विक स्तर पर कारपोरेट दुनिया में हलचल मचा दी है। क्या असंगठित और बिखरे उत्पादन के मजदूरों के आंदोलनों से आज के दौर में यह उम्मीद की जा सकती है? क्या उनके भीतर यह संभावना आज दिखायी देती है?
वैश्वीकरण के दौर में उत्पादन के विकेन्द्रीकृत केन्द्रीकरण ने कहीं भी कारखाना आधारित मजदूर संघर्षों के महत्व को, संगठित मजदूर आन्दोलन के महत्व को कम या अप्रासंगिक नहीं किया है बल्कि इसने इसके प्रभाव व व्यापकता के क्षितिज को और ज्यादा व्यापक बना दिया है। इसके प्रभाव क्षेत्र में देशी पूंजीवाद ही नहीं बल्कि विश्व पूंजीवाद को ला दिया है।
दरअसल विकेन्द्रीकरण की मौजूदा प्रक्रिया ने समग्र तौर पर पूंजीवादी उत्पादन को अपने सारतत्व में और अधिक एकीकृत, केन्द्रीकृत कर दिया है। विकेन्द्रीकृत वह जिस हद तक भी हुआ है वह स्वतंत्र और आत्मनिर्भर, उत्पादन इकाइयों के आंदोलनों की जमीन तैयार कर रहा है क्योंकि आत्मनिर्भर औद्योगिक इकाइयों में अन्य उद्योगों से जो पार्थक्य का तत्व था उसको  इसने खत्म कर दिया है। हालांकि पूंजीवादी उत्पादन में पूरी तरह आत्मनिर्भर उत्पादन या शेष उत्पादक इकाइयों से पूरी तरह पार्थक्य संभव नहीं है। जो विकेन्द्रीकरण हुआ है उसने एक मुख्य उत्पादक इकाई के इर्द गिर्द सहायक उत्पादक इकाइयों (एसीसरीज) का जो जाल खड़ा किया है उसने इसको एक नए संकट की तरफ धकेला है। इसने उत्पादक इकाइयों को नए संबंधों में जोड़ दिया है। एक के प्रभावित होने पर इस जाल में बंधी सभी उत्पादक इकाइयों के प्रभावित होने के खतरे बढ़ गए हैं। विकेन्द्रीकरण के इस जाल में पृथकता का तत्व आभासी रूप से हावी दिखायी देता है लेकिन दूसरे रूप में इसने एक नयी परस्पर संबद्ध संरचना का वास्तविक जाल तैयार कर दिया है। इस जाल के तार चूंकि राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय पैमाने पर जुड़े हैं इसलिए इनमें से किसी एक में पैदा होने वाला संकट सभी को अपनी चपेट में अवश्यंभावी तौर पर ले लेगा। कुल मिलाकर विकेन्द्रीकृत केन्द्रीकरण की उत्पादन प्रणाली ने भावी मजदूर आंदोलन के फलक को और ज्यादा विस्तारित किया है। उसे राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय पैमाने तक फैला दिया है। इसने न केवल राष्ट्रीय बल्कि अंतर्राष्ट्रीय पैमाने पर संगठित मजदूर आंदोलन के आधार को मजबूत किया है। इस तरह दुनिया भर के मजदूरों के साझा संघर्षों के नारे को पहले से अधिक मौजू बना दिया है। ‘दुनिया के मजदूरो,एक हो’ का नारा उत्पादन के विकेन्द्रीकृत केन्द्रीकरण की प्रक्रिया में और अधिक प्रासंगिक हो गया है।
विकेन्द्रीकृत केन्द्रीकरण की उत्पादन प्रणाली के गहन जाल के किसी एक तंतु पर ही सारा ध्यान केन्द्रित करने पर यह निराशावादी निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अब एक इकाई या एक एक कारखाने के संघर्ष उस इकाई में उत्पादन को ठप्प नहीं कर सकते इसलिए कारखाना आधारित संघर्षों का युग अब खत्म हो गया है।
विकेन्द्रीकृत केन्द्रीकरण की प्रणाली के चलते एक कारखाने में बड़े पैमाने पर संगठित मजदूरों की संख्या का घटते जाना या उनकी संघर्षशीलता के लुप्त होते जाने की भविष्यवाणी भी अपने आप में कितनी बेतुकी है इसे मौजूदा गुड़गांव के ऑटो मजदूरों के संघर्ष से समझा जा सकता है।
असेम्बली लाइन उत्पादन के युग की समाप्ति की घोषणा भी अपने आप में शेखचिल्लीपन है। असेम्बली लाइन उत्पादन अपने सारतत्व में पूंजीवाद में क्रमशः उन्नत होते जाते श्रम विभाजन का परिणाम है। असेम्बली लाइन बिखर जाने की बात कहने का मतलब पुनः पूंजीवाद के मैनुफैक्चरिंग युग में दाखिल होने की बात करना है। आज भी सभी पूंजीवादी उद्यमों में असेम्बली लाइन के तहत ही उत्पादन होता है। मुख्य उपकरणों का उत्पादन एक ही इकाई में सघन श्रम विभाजन के तहत होता है। हां सहायक अथवा गौण उत्पादन या पुर्जों का उत्पादन अन्यत्र बिखरा दिया गया हैं लेकिन क्या कोई यह कल्पना कर सकता है कि हवाई जहाज के कलपुर्जों का निर्माण घर या छोटी वर्कशापों में हो और कारखाने में महज उनकी असेम्बलिग हो जाय।
कुल मिलाकर यह नहीं हो सकता कि संपूर्ण पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली पूरी  तरह विकेन्द्रीकृत या विश्रृंखलित हो जाय। अब भी समस्त पूंजीवादी उत्पादन मुख्यतः बडे़ पैमाने के कारखानें या उधमों में ही संगठित है। उत्पादन के विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया वैश्वीकरण के दौर में दिखायी दी है लेकिन जिस भी हद तक यह हो रही है वह मजदूर वर्ग को पूरी तरह बिखरा देने के बजाय एक नए संबंधों में बांध रही है समग्र तौर पर मजदूरों की एकता के आधार, साझा संघर्षों के आधार को और ज्यादा मजबूत कर रही है।
इस तरह न तो कारखाना आधारित मजदूर संघर्षों की प्रासंगिकता खत्म हुई है न ही संगठित मजदूरों के आन्दोलन की भूमिका ही कम हुई है। हां मजदूरों का एक तबका अभिजात जरूर हुआ है लेकिन उसकी सुविधाओं में भी लगातार कटौती होती जा रही है। इसका आकार सिकुड़ रहा है। संगठित मजदूरों के पूरे वर्ग को सुविधाभोगी या अभिजात कह देना मूर्खतापूर्ण है। बड़े उद्योगों के अंतर्गत संगठित मजदूर वर्ग हमेशा की तरह आज भी मजदूर आंदोलन का अग्रदस्ता है। शेष असंगठित, अनौपचारिक मजदूरों को नेतृत्व व दिशा वही दे सकता है। यह राष्ट्रीय ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पूंजीपतियों की चूलें ढीली कर सकता है। मजदूर वर्ग का भविष्य इन्हीं मजदूरों के आन्दोलन पर निर्भर है।(यहां यह कहने की बात नहीं कि मजदूर वर्ग को केवल ट्रेड यूनियन संघषों के लिए नहीं बल्कि उससे ज्यादा क्रांतिकारी राजनीतिक संघर्षों के लिए संगठित करना होगा।)

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