Saturday, July 22, 2017

बजबजाती पूंजीवादी राजनीति की दलित पक्षधरता

       यह लाक्षणिक है कि एक ही समय रामनाथ कोविन्द राष्ट्रपति भवन में सुशोभित होने के लिए चुने गये जबकि बहन मायावति ने राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया। मायावति ने इस्तीफा देने का कारण भाजपा द्वारा उन्हें दलित उत्पीड़न पर बोलने से टोका जाना बताया जबकि भाजपा ने गाजे-बाजे के साथ एक दलित को राष्ट्रपति भवन में प्रतिष्ठित किया। दलित प्रेम के इस मौसम में कांग्रेसी व अन्य भी पीछे नहीं रहना चाहते थे। उन्होंने भी एक अन्य दलित मीरा कुमार को राष्ट्रपति भवन का अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया था। 
महत्वपूर्ण बात यह है कि रामनाथ कोविन्द, मीरा कुमार, मायावती या भाजपा कोई भी बहुसंख्यक दलितों के लिए यानी दलित सर्वहारा के लिए लड़ने वाला नहीं है। यही नहीं, हिन्दुत्वादी भाजपा तो जातिगत उत्पीड़न को जारी रखने का प्लेटफॉर्म है। बाकी ज्यादा से ज्यादा दलित पूंजीपति वर्ग या मध्यम वर्ग के झंडादरबार हो सकते हैं। जहां तक राष्ट्रपति पद के दोनों उम्मीदवारों की बात है, वे पालतू दलितों की किस्म के लोग हैं। एक को फासीवादी हिन्दुत्ववादियों ने पाला-पोसा था तो दूसरे को ‘धर्मनिरपेक्ष’ कांगेस ने।

पिछले दिनों का यह सारा खेल भारत की बजबजाती पूंजीवादी राजनीति का एक और नमूना है। दलितों के सवर्ण उत्पीड़कों से भरी पड़ी भाजपा एक संघी पालतू दलित के बल पर दलित मतों को अपने पीछे गोल करना चाहती है। कांगेसी इस खेल में कहीं पीछे पिछड़ न जायें इस भय के मारे अपने राष्ट्रपिता के पड़पोते गोपालकृष्ण गांधी को त्यागकर एक अन्य पालतू दलित मीरा कुमार को मैदान में ले आये। ध्यान रखने की बात है कि ये दलित आज केवल जातीय पृष्ठभूमि के कारण ही दलित कहे जा सकते हैं। रही मायावती की बात तो सहारनपुर दलित उत्पीड़न की घटनाओं में उनका जो शर्मनाक रवैया रहा है उससे हुए नुकसान की भरपाई के लिए उन्होंने राज्यसभा से इस्तीफे का स्टंट किया। वैसे भी आठ-नौ महीने बाद उनका कार्यकाल समाम्त होने वाला था। अब खबर है कि सारे विपक्षी मिलकर उन्हें उत्तर प्रदेश में फूलपुर से लोकसभा में भेजने वाले हैं।
आज यह गौरतलब है कि दलितों से कहीं ज्यादा मुसलमान उत्पीड़न के शिकार हैं। देश के सारे ही मुसलमान भारी दबाव और असुरक्षा में जी रहे हैं। हिन्दू फासीवादियों ने बिना कानूनी बदलाव के उन्हें लगभग दूसरे दर्जे के नागरिक की स्थित में धकेल दिया है। पर हिन्दू फासीवादियों के दबदबे का यह आलम है कि विरोधियों की हिम्मत राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति पद के लिए किसी मुसलमान को उम्मीदवार बनाने नहीं पड़ी भले ही वह पालतू मुसलमान ही क्यों न होता।
उपरोक्त स्थितियां देश के शोषितो-उत्पीड़ितिों के लिए तात्कालिक तौर पर कठिनाइयां पैदा करते हुए भी दूरगामी तौर पर पूंजीवादी पार्टियों के चंगुल से उन्हें मुक्त करने का रास्ता खोलती हैं। मासूम से मासूम व्यक्ति के सामने भी उनका चरित्र उजागार होता जा रहा है। यह मामले को शोषितों-उत्पीड़ितों की वास्तविक मुक्ति की ओर ले जायेगा।

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