मार्च 2008 में अमेरिका के पांचवे सबसे बड़े निवेशक बैंक वियर स्टन्र्स के धराशाई होने के दो साल बाद अब देशों की सरकारों के दिवालिया होने का खतरा दुनिया भर के साम्राज्यवादियों, पूंजीपतियों को सता रहा है। पूरे मार्च और अप्रैल 2010 में ग्रीस सरकार के दिवालिया होने का खतरा बढ़ता गया और उसने दुनिया भर के वित्तीय बाजारों में भूचाल को पैदा किया। केवल ग्रीस का अकेला मामला होता तो भी इतनी गंभीर बात नहीं होती लेकिन यहां ग्रीस के साथ स्पेन, पुर्तगाल, इटली और आयरलैण्ड का मामला जुड़ा हुआ है।
जब ग्रीस सरकार की हालत मार्च में खस्ता हुयी तो यह उम्मीद की जाने लगी कि इसे ‘बेलआउट’ करने के लिए यूरोपीय समुदाय आगे आयेगा। आखिर ग्रीस यूरोपीय समुदाय का हिस्सा है और इसकी सरकार के दिवालिया हो जाने का प्रभाव पूरे यूरोपीय समुदाय पर पड़ेगा। लेकिन चान्सलर अन्जेला मर्केल के नेतृत्व में जर्मनी ने यह घोषित किया कि वह ग्रीस सरकार को बचाने के लिए आगे नहीं आयेगी। इससे वित्तीय बाजार में ग्रीस सरकार की हालत और खराब होने लगी। उसे ऋण मिलना और मुश्किल होने लगा। अप्रैल का अंत आते-आते स्थिति यह हो गई कि इसको मिलने वाले कर्जों पर ब्याज की दरें जर्मनी से 7 प्रतिशत ज्यादा पहुंच गई।
अप्रैल के अंत में अंजेला मर्केल ने सुर बदला और जर्मनी इस बात के लिए तैयार हुआ कि वह ग्रीस सरकार को यूरोपीय केन्द्रीय बैंक और यूरोपीय आयोग द्वारा दिये जाने वाले 45 अरब यूरो के कर्जे में भागीदार बनेगा। इस कर्जे की सारी शर्तें मई की शुरुआत में तय की जानी हैं।
लेकिन इस सहमति के बावजूद बाजार स्थिर नहीं हो रहा है और संक्रमण बढ़ता जा रहा है। बाजार में यह आम बात है कि ग्रीस के बाद स्पेन और पुर्तगाल का नंबर लगेगा। इटली और आयरलैण्ड भी लाइन में हैं। स्पेन और पुर्तगाल की सरकारों की साख तो बाजार में गिरने भी लगी है।
पिछले छः महीने से सारे साम्राज्यवादी यह खुशफहमी फैलाने में लगे हुए हैं कि वर्तमान आर्थिक संकट खत्म हो रहा है, कि अर्थव्यवस्थाएं इस संकट से निकल रही हैं, कि 2011 तक सभी कुछ सामान्य हो जायेगा। ऊपरी तौर पर अर्थव्यवस्था के कुछ संकेत इसे पुष्ट करते हुए भी लगते हैं। अर्थव्यवस्थाओं में वृद्धि होने लगी है या कम से कम गिरावट रुक गई है। बड़े वित्तीय संस्थानों का मुनाफा फिर चमकने लगा है। बेरोजगारी की दर बढ़नी बन्द हो गई है इत्यादि।
लेकिन इनकी इस खुशफहमी के बावजूद थोड़ी भी आलोचनात्मक दृष्टि रखने वाले व्यक्ति के लिए स्पष्ट था कि यह सारा कुछ एकदम नाकाफी है। अर्थव्यवस्था को गंभीर संकट में धकेलने वाले कारकों का कोई समाधान नहीं हुआ है। यहां तक कि तात्कालिक तौर पर जो समाधान किये गये थे उनका भी कोई वास्तविक समाधान नहीं ढ़ूंढा गया था। ऐसे में संकट के समाप्त हो जाने की बात कहां से की जा सकती है?
जब दो साल पहले वर्तमान संकट ने गंभीर रूप धारण किया तो पाया गया कि बड़े-बड़े भीमकाय साम्राज्यवादी वित्तीय संस्थान बुरी तरह से कर्जे में डूबे हुए हैं और अपनी परिसंपत्तियों के दामों के रसाताल में चले जाने के कारण वे खड़े नहीं रह सकते। इनके धराशाई होने के बाद समूचे वित्तीय बाजार और उसी के साथ पूंजीवाद के भी धराशाई होने का खतरा पैदा हो गया। तब सरकारों को इस स्थिति से निकालने का एक ही तरीका सूझा। सरकारों ने इन वित्तीय संस्थानों को ‘बेलआउट’ किया। इसके लिए इनके राष्ट्रीयकरण करने से लेकर इनमें पैसा झोंकने के सारे काम किये गये। लेकिन इन सबका एक ही मतलब था- वित्तीय संस्थानों के भीमकाय कर्जों को उनके खाते-बही से बाहर कर सरकार के जिम्मे ले लेना। खराब परिसंपत्तियों का बोझ इन वित्तीय संस्थानों के बदले सरकार के सिर पर आ गया।
लेकिन यह समस्या का स्थानांतरण मात्र था। निजी वित्तीय संस्थानों के जिम्मे से सरकार के जिम्मे स्थानांतरण मात्र से समस्या हल नहीं हो सकती थी। और वह नहीं हुयी। लेकिन यह जरूर हुआ कि इसके कारण सरकारों का बजट घाटा और उनका कर्ज बहुत बढ़ गया। बजट घाटा कम करने के नाम पर मजदूर वर्ग और अन्य मेहनतकश जनता की सब्सिडी में कटौती करने वाली सरकार साम्राज्यवादी वित्तीय प्रभुओं को बचाने के लिए बजट घाटे को भूल गई। लेकिन उनके भूल जाने से समस्या तो तिरोहित नहीं हो जायगी। और अब समस्या इस रूप में आ खड़ी हुई है कि स्वयं सरकारों के ही दिवालिया हो जाने का खतरा पैदा हो गया है। यह वर्तमान आर्थिक संकट का अगला चरण है। इस चरण में बड़े वित्तीय संस्थानों के बदले बड़े देश दिवालिया होने की ओर बढ़ रहे हैं। पहले चरण में जहां आइसलैण्ड व लाटविया की सरकार ऐसी स्थिति में पहुंची थी वहां अब स्पेन और इटली जैसे देश इस ओर बढ़ रहे हैं।
संकट के और मूलभूत स्तर पर भी समस्या जस की तस है। वर्तमान संकट के मूल में था वास्तविक उत्पादन-वितरण में ठहराव। इसी से तात्कालिक मुक्ति के लिए वित्तीय बुलबुला, रीयल स्टेट बुलबुला इत्यादि सारे पैदा हुए थे। स्पेन में तो एक समय रीयल स्टेट का व्यवसाय सकल घरेलू उत्पाद में 16 प्रतिशत का और रोजगार में 12 प्रतिशत का योगदान कर रहा था। मजदूर वर्ग और अन्य मेहनतकश जनता की वास्तविक क्रयशक्ति को घटाकर जब इस तरीके से उसमें जान फूंकने का प्रयास किया गया तो वह बहुत दिन तक नहीं चल सकता था। और वह चला भी नहीं। अब लाखों का सवाल यह है कि अर्थव्यवस्था में वृद्धि के लिए वास्तविक क्रय शाक्ति कहां से आये? जबकि करोड़ों लोग बेरोजगारों की लाइन में लग गये हों तब यह कैसे संभव है? स्पेन में आम बेरोजगारी का स्तर 20 प्रतिशत और नौजवानों में 43 प्रतिशत है। ये बेरोजगार लोग अर्थव्यवस्था में कैसे गति प्रदान करेंगे?
इस तरह वर्तमान संकट के मूलभूत कारक जहां के तहां हैं। और वे अब मुख्य रूपों में अपने को अभिव्यक्त कर रहे हैं। और इनके प्रति साम्राज्यवादियों का रुख क्या है?
साम्राज्यवादी वित्तीय अधिपति इस सूत्र पर चलते हैं कि संकट का फायदा उठाओ भले ही इसके चलते तबाह हो जाओ। मुनाफे की हवस मरते दम तक उनका पीछा नहीं छोड़ती। डेढ़ साल पहले सितंबर-अक्टूबर 2008 में जब अमेरिका में एक के बाद एक वित्तीय संस्थान दीवालिया हो रहे थे तो बाकी इन्हें गिद्धों की तरह नोचने में लगे हुए थे। अक्सर खुद लड़खड़ाने वाला संस्थान भी इस नोच-खसोट में जी जान से लगा होता था। गोल्डमान साक के बारे में चल रही वर्तमान जांच तो इसकी एक झलक मात्र दिखा रही है।
अब जबकि देशों की सरकारें दीवालिया होने की तरफ बढ़ रही हैं तब भी यही हो रहा है। इनके दीवालिया होने की सट्टेबाजी कर वास्तव में इन्हें उधर की ओर धकेला जा रहा है। वर्तमान वित्तीय बाजार में हर कोई जानता है कि किसी संस्थान या सरकार को दीवालिया करने का एक तरीका यह भी है। इसे बाजार की भाषा में ‘खुद को साबित करने वाली भविष्यवाणी’ कहते हैं।
लेकिन सबसे घृणित बात तो यह है कि दुनिया भर के निजी वित्तीय संस्थान यह दबाव बना रहे हैं कि बिना कठोर शर्तों के इन सरकारों को न बचाया जाय। जो वित्तीय संस्थान स्वयं को बचाने के लिए सरकारों पर दबाव बना रहे थे और अर्थव्यवस्था को बचाने के नाम पर हर शर्त से बचने का प्रयास कर रहे थे वही अब दूसरा राग अलाप रहे हैं। उनका कहना है कि बजट घाटा और कर्ज को कम करने की शर्त के बिना इन सरकारों को न बचाया जाय। इसके लिए इन पर बचत करने का दबाव बनाया जाय। इसी का एक उदाहरण लाटविया में लागू किया गया था जहां अर्थव्यवस्था में दस प्रतिशत की कटौती की गई थी और सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों की तनख्वाहों में 45 प्रतिशत की। वित्तीय संस्थानों ने सरकारों के हाथों मुक्त हस्त बेलआउट पाकर अपने कर्मचारियों को अरबों डालर का बोनस दिया था और शेयर धारकों को अरबों का मुनाफा। लेकिन अब वे चाहते हैं कि सरकारों द्वारा सब्सिडी में कटौती की जाय, मजदूरों की तनख्वाहें घटाई जायं इत्यादि। इसे कहते हैं चित भी मेरी, पट भी मेरी। संकट के पहले चरण में इन्होंने संकट का बोझ मजदूरों और सरकार पर डाला। संकट के दूसरे चरण में यह फिर इसे मजदूरों पर डालना चाहते हैं।
संकट के इस चरण की गंभीरता यह है कि यह साम्राज्यवाद के ऐन गढ़ में साम्राज्यवादी सरकारों को प्रभावित कर रहा है। इसके पहले के संकटों में पिछड़े पूंजीवादी देशों की सरकारें प्रभावित हुयी थीं। तब साम्राज्यवादियों के नेतृत्व में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे संस्थान उन्हें पाठ पढ़ाया करते थे। संकट की शुरुआत में भी आइसलैण्ड, लाटविया, लिथवानिया जैसे छोटे मुल्कों की सरकारें प्रभावित हुयीं। लेकिन अब तो मामला स्पेन और इटली तक जा पहुंचा है। इटली जी-8 का देश है।
इसी के कारण यूरोपीय संघ की हालत खस्ता होने लगी है। यूरोप के साम्राज्यवादियों ने अपनी वित्तीय पूंजी की सेवा में एक लम्बे समय में यूरोपीय एकीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया था। इसका एक ही उद्देश्य था- यूरोपीय पूंजी के मुनाफे को बढ़ाना ,इसे अन्य साम्राज्यवादी धड़ों और मजदूर वर्ग के मुकाबले बेहतर स्थिति प्रदान करना।
लेकिन यह संकट यूरोपीय एकीकरण की नींव को ही हिला रहा है। ग्रीस सरकार के दिवालिया होने की ओर बढ़ने के साथ यूरो नीचे गिरता गया है। यदि उपरोक्त चार-पांच देशों की सरकारें और गहरे संकट में फंसती हैं तो एक केन्द्रीकृत मुद्रा के रूप में यूरों की स्थिति गंभीर हो जायगी। जैसा कि हमेशा होता है, संकट के समय आपसी मतभेद बहुत बढ़ जाते हैं। इन देशों का संकट गहराने के साथ यूरोपीय साम्राज्यवादियों के बीच मतभेद बढ़ गये हैं। जर्मनी द्वारा ग्रीस सरकार को बचाने से शुरू में इंकार इसी कारण था कि उसे लगता था कि अंततः इस सबका बोझ उसे ही उठाना पड़ेगा। लेकिन यदि यूरोप के साम्राज्यवादी एकीकरण का सबसे ज्यादा फायदा फ्रांस और जर्मनी के साम्राज्यवादियों ने उठाया था तो अब वे उसके परिणाम स्वरूप पैदा होने वाले प्रभावों से बच नहीं सकते। वे यूं ही हाथ नहीं झाड़ सकते। और बहुत जल्दी यह अंजेला मर्केल की समझ में आ गया।
दक्षिणी यूरोप का यह हिस्सा (स्पेन, पुर्तगाल, ग्रीस, इटली) यूरोप के सबसे पिछड़े हिस्सों में हैं। लेकिन ठीक इसी कारण ये वर्तमान संकट में फ्रांस और जर्मनी जैसे देशों के मुकाबले पहले दिवालिया होने की ओर बढ़ रहे हैं। लेकिन जैसे कि वित्तीय संस्थानों के घराशाई होने के समय दिखा था, एक का पतन दूसरे के पतन के लिए रास्ता साफ करता है।
इस संबध में यह बहुत स्पष्ट है कि यह समस्या केवल यूरोपीय महाद्वीप की नहीं है। संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार भी इससे अपने को पूर्णतया सुरक्षित महसूस नहीं कर सकती। इंग्लैण्ड की सरकार की वित्तीय सेहत के बारे में तो पहले ही काफी चेतावनी पूर्ण खबरें आ चुकी हैं।
जैसा कि पहले कहा गया है, साम्राज्यवादी वित्तीय सरकारों को बचाने की कीमत मजदूर वर्ग से वसूलना चाहते हैं। वे समृद्धि और संकट के हर समय में मजदूरों को लूटना चाहते हैं। ग्रीस में जार्ज पोपेन्दू की सामाजिक जनवादी सरकार पर यह दबाव डाला जा रहा है कि वह न केवल अपने खर्चों में कटौती करे बल्कि वह यूनियनों पर भी यह दबाव डाले कि वे मजदूरों को संघर्ष से रोकें। ग्रीस में सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारी इन कदमों के खिलाफ 24 फरवरी को हड़ताल कर चुके हैं। उसके बाद फिर 11 मार्च को सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों के मजदूरों ने एक दिन की आम हड़ताल की। इटली और आयरलैण्ड में भी फरवरी महीने में इन कदमों के खिलाफ बड़ी हड़तालें हुयीं। इटली की हड़ताल में तो लोग ‘बेला क्लाओ’ नाम का वह गीत गा रहे थे जो फासीवाद के खिलाफ प्रतिरोध युद्ध के जमाने में गाया जाता था।
साम्राज्यवादी पूंजीपति वर्ग इस संकट में मजदूर वर्ग पर और ज्यादा कहर बरपा करता जा रहा है। संकट से निकलने के लिए वह यही रास्ता देख रहा है। लेकिन ऐसा करके वह मजदूर वर्ग में अपने प्रति नफरत को हजार गुना ज्यादा बढ़ा रहा है और वह स्थितियां पैदा कर रहा है कि मजदूर वर्ग पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की ओर आगे बढ़े।
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