जब बस में भीड़ बहुत बढ़ जाती है। तो हर कोई खुद को ऐसी दशा में लाना चाहता है कि वह लटका महसूस करने के बजाय खड़ा महसूस कर सके। हर कोई तब यह सोचता है कि जिन हाथों के सहारे वह खड़ा है वो ऐंठ न जायें। उसके पंजों पर किसी की एड़ी न टिके। किसी की पीठ उसकी पीठ को न धकेले। बल्कि सही बात तो यह है कि वह सोचता नहीं है। खुद को बचाने के लिए थोड़ा सा सुकून हासिल करने के लिए सक्रिय हो उठता है। ऐसे में वह चाहे&अनचाहे अपना बोझ किसी दूसरे पर डाल देता है।
कुछ ऐसी ही होती है एक्सपोर्ट की नौकरी। बिलकुल खचाखच भरी बस के सफर जैसी। ऐसे सफर में आप बाहर की हवा को महसूस नहीं कर सकते। आप किसी दूसरे यात्री को देखकर उसके बारे में सोच नहीं सकते। सफर के दौरान बस आप सफर के खात्मे का इंतजार कर रहे होते हैं और बस में अपनी जगह बनाने की जद्दोजहद में लगे होते हैं। एक्सपोर्ट फैक्टरी का मजदूर भी बस नौकरी कर रहा होता है। अपनी नौकरी को बचाने के लिए जूझते हुए और शाम की छुट्टी का इंतजार करते हुए। बल्कि कुछ महीनों में ही यह नौकरी और जिन्दगी ही एक अंतहीन जद्दोजहद का सफर बन जाती है जिसके समापन के बारे में सोचने की फुर्सत और ऊर्जा नहीं बचती।
पर कभी&aकभी अचानक कुछ ऐसा हो जाता है जो सबको नहीं भी तो बहुतों को झकझोर जाता है और सोचने पर मजबूर कर देता है। रमेश फ़रीदाबाद में एक्स पोर्ट का एक वर्कर है। उसका काम सिलाई विभाग में है। सिलाई विभाग] कटिंग विभाग फिनिशिंग विभाग] सैम्पलिंग विभाग] वाषिंग विभाग] एम्ब्रायडरी] कढ़ाई विभाग ये तमाम विभाग एक्सपोर्ट कम्पनियों में होते हैं। किसी एक विभाग के कर्मचारी को दूसरे विभाग के बारे में जानने में महीनों लग जाते हैं] क्योंकि फ़ैक्टरी में घुसते ही अपने विभाग में और अपने विभाग में अपनी जगह पर यानि अपनी मशीन या अपनी मेज पर पहुँच जाना होता है और जुट जाना होता है अपने काम पर-बिलकुल खचाखच भरी बस के सफर की तरह नौकरी पर लटकती तलवार से अपनी गर्दन बचाने के लिए।
खचाखच भरी बस के सफर में कोई पड़ोसी के बच्चे से यह नहीं पूछता कि बेटा आपका क्या नाम है] कौन सी क्लास में पढ़ते हो आप] बल्कि अक्सर ही यात्रियों के बीच कहासुनी हो जाती है। सिलाई विभाग में एक बड़े हॉल में लाइन से सिलाई मशीनें लगी होती हैं और बीच-बीच में मेजें लगी होती हैं। मशीनों पर कारीगर बैठे होते हैं और मेजों पर हेल्पर आदि खड़े रहते हैं। कपड़ा एक तरफ से कई टुकड़ों के रूप में प्रवेश करता हैं और इन लाइनों में तेजी से गुजरता हुआ अपनी कीमत बढ़ा चुका होता हैA वह लत्ते के चन्द टुकड़ों से एक समूचे नए फैशनेबुल कपड़े में बदल चुका होता है जिसे देखकर उसे तैयार करने वाली मर्दाना और जनाना आँखें भी ललचा जाती हैं। मशीनों मेजों की इन लाइनों के बीच कुछ तेज-तर्रार पढ़े-लिखे व्यक्ति भागते-फिरते नजर आते हैं जो मशीनों के बीच बैठी या खड़ी मशीनों (कारीगरों] हेल्परों के कान उमेठते रहते हैं। ये लगातार भागते हैं। कारीगरों के बीच में स्थित मशीनों के कान उमेठने के लिए भी कोई आता है। वह मशीन मैकेनिक होता है पर वह केवल जरूरत पड़ने पर ही आता है] जब मशीन में खराबी आ जाती है । पर लगातार भागते- दौड़ते] चीखते- चिल्लाते लोग हमेशा सक्रिय रहते हैं। ये सुपरवाइजर कहलाते हैं। दुर्भाग्यवश इन्हें भी मास्टर जी कहा जाता है जो कि वास्तव में किसी कुशल अनुभवी कारीगर के लिए इस्तेमाल होने वाला शब्द है।
सुपरवाइजरों की निगाहें कारीगरों पर कम कपड़े पर ज्यादा होती हैं] जहां कपड़ा इकट्ठा हुआ उस कारीगर की शामत। हर कारीगर कपड़े पर एक निष्चित कार्यवाही कर रहा होता है] एक मशीनों से सिलाई कर रहा होता है। वह यदि कॉलर की प्राथमिक या अंतिम सिलाई कर रहा है तो सुबह से शाम तक वह हजार बार यही कार्यवाही दुहराता जाता है और इस प्रकार हजार तैयार होने वाले कपड़ों में अपना श्रम जोड़ चुका होता है। अब यदि कॉलर की सिलाई के बाद गले की सिलाई होनी है तो उपरोक्त कारीगर के बाद वाला कारीगर हजार बार गले की सिलाई करेगा। पूरा कपड़ा मशीनों की लम्बी श्रृंखला में तमाम सिलाइयों के लम्बे सिलसिले के बाद ही तैयार होता है। कपड़ा इस श्रृंखला में जितनी तेज भागेगा उतना मुनाफा बढ़ेगा इसलिए सुपरवाइजर भागते रहते हैं ताकि कपड़ा तेज भागे। मशीन की रफ्तार तो निशचित होती है] अब यदि श्रृंखला की पहली सिलाइयों पर ज्यादा कारीगर तैनात कर दिए जाएं तो दूसरी और आगे की सिलाइयों पर बैठे कम कारीगरों पर तेज काम का दबाव बढ़ जाएगा। यह सबसे सरल चाल है जो हर बेवकूफ सुपरवाइजर भी जानता है। पर सुपरवाइजर को और तेज होना होता है क्योंकि मैनेजर उससे और मालिक मैनेजर से ज्यादा प्रोडक्शन मांगता है। क्योंकि ज्यादा प्रोडक्शन का मतलब ज्यादा मुनाफा होता है। और ज्यादा प्रोडक्शन का मतलब तेजी से भागता कपड़ा तेजी से भागती मशीनें और तेजी से चलते मजदूरों के हाथ पैर। और तेज और मुनाफा] और तेज मुनाफा] और तेज।
मालिक को मुनाफा मिलता है। एक्सपोर्ट में कहते हैं कि मजदूर को भी ज्यादा पैसा मिलता है। और मजदूरों को कुछ और भी मिलता है।
रमेश जिसकी बात उपर की गई है और जो एक एक्स पोर्ट कम्पनी के सिलाई कारीगर ने उससे सिलाईमैडम को खुश कर दिया। सुलह हो गई ।कुछ दिनों बाद मैडम ने इस संबोधन मैडम पर ऐतराज जताया कि भैया आप मुझे मैडम क्यों कहते हो। रमेश ने अब दीदी कहना शुरू किया तो वह झेंप गई। दो&चार दिन बाद उसने फिर विरोध किया कि मैं आपसे छोटी हूँ आप मुझे दीदी मत कहो तो रमेश ने कहा कि ऐसा नहीं हो सकता। सौहार्दपूर्ण बहस का अंत प्रत्यक्षतः सौहार्दपूर्ण रहा पर रमेश के अंतस्तल को झकझोर गया। वह महिला रमेश से तीन साल छोटी थी। वह मात्र 25 साल की उम्र में 40 साल की दिखती थी। उसकी आँखों के नीचे गड्ढे थे। उसके निचुड़े हुए चेहरे पर गालों की हड्डियाँ या दाँत ही दिखते थे। मशीन पर झुक कर काम करते हुए उसकी गर्दन और पीठ आगे की ओर झुक गई थी । उसकी बातों की सहजता और शायद उसकी आँखों में बची कुछ चमक उसकी बताई उम्र पर भरोसा करने देती थी।
यही मिलता है मजदूरों को। पर काम की मशीनी तेजी में इस पर सोचने की फुर्सत भी नहीं है। अगला कपड़ा पकड़ो सिलो और आगे बढ़ाओ और फिर यही करो। सोचोगे तो स्पीड कम हो जाएगी और सुपरवाइजर तुम्हारी मशीन पर आकर भला&बुरा कहेगा। खचाखच भरी बस में चढ़ गए तो बीच रास्ते चाहकर भी नहीं उतर सकते। और फिर मजबूरी हो तो ऐसी ही बस में सफर की आदत पड़ जाती है।
एक्सपोर्ट की नौकरी करने वालों की मजबूरी क्या होती है] धवन 10वीं पास है। बाप बूढ़े हैं] नगरपालिका के माली पद से रिटायर हुए है] उनका कमाया पैसा बहनों की शादी में खर्च हो गया है, छोटे भाई की पढ़ाई सुचारु रूप से हो जाए] इसलिए अपनी पढ़ाई कुर्बान कर दी। 6 साल में कई एक्सपोर्ट कम्पनियों में काम कर चुका है। कहता है अब पहले जैसी मेहनत नहीं होती पहले जैसा प्रोडक्शन नहीं निकाल पाता। और कहता है कि पहले न गाली देता था और न ही सुनता था] अब एक्सपोर्ट में सुनता भी है] देता भी है। उसकी उम्र 24 साल है।
सितारा 4 साल से एक्सपोर्ट में है। उम्र 19 साल। छोटा भाई एक वर्कशाप में काम करने लगा है। माँ&बाप बहुत बूढ़े हैं और बीमार रहते हैं। खुशमिजाज सितारा अपने घर की खेवनहार है। उसकी जिम्मेदारी की प्रवृत्ति ही उसकी एक्सपोर्ट में नौकरी की मजबूरी है। बड़ा भाई है] पर अभी तक निकम्मा। अब सितारा द्वारा उधार का इंतजाम करने के बाद भाई की शादी हुई तो उसने कुछ काम करना शुरू किया है। भाई&भाभी दूसरे शहर में रहने लगे हैं। दस घंटे की ड्यूटी व्यवहारतः 12 घंटे की होती है आना-जाना मिलाकर। जाडे़ में बारह घंटे की ड्यूटी कर वह कपड़े और अपने बाल रात को ही धो पाती है। अगर किसी दिन ओवरटाइम नहीं लगता तो उसे सुकून मिलता है और वह अपनी सहेली से उत्साह में कहती है कि आज वह बाल धोएगी। सुबह नाश्ता और माँ-बाप का लंच तैयार करके फ़ैक्टरी आती है, रात को चार प्राणियों की रसोई संभालती है।
विभूति अभी गुस्सैल है। उम्र 18 साल। अभी गुस्सैल है क्योंकि एक्सपोर्ट में अभी आये दो साल ही हुए हैं। उसे उसकी एक उम्रदराज (एक्सपोर्ट की दुनिया में 34 साल की उम्र उम्रदराज ही कही जायेगी दीदी ने साथ लाकर एक्सपोर्ट में लगवाया। इंटर पास है विभूति। भाई एक शॉपिंग मॉल में काम करता है। पिता मजदूरी की जिंदगी में लीवर का एक ऐसा रोग मोल ले चुके हैं जिसका दिल्ली में बड़े से बड़े डाक्टर कोई पुख्ता इलाज नहीं बताते हैं] वो मजदूरी से रिटायर हो चुके हैं बेसमय बीमारी की वजह से।
संदीप पांच साल से फरीदाबाद में एक्सपोर्ट में काम कर रहा है उससे पहले छः साल में दस नौकरियाँ बदल चुका था। एक्सपोर्ट में भी चार&पाँच कम्पनियाँ बदल चुका है। उसे बस के कठिन सफर की आदत पड़ चुकी है। कंपनी बदलना बस बदलने के समान। दूर के ढोल सुहाने होते हैं पर पाँच कंपनी बदलने के बाद किसी नई कंपनी का ढोल उसके कानों को नहीं सुहाता है। उम्र 25 साल। शादी से डरता है क्योंकि उसे यह पता है कि अब वह पहले के सालों की तरह प्रोडक्शन नहीं निकाल पाएगा। और कोई जमा पूंजी है नहीं क्योंकि जो कमाया अपने खर्चे के बाद गांव में बूढ़े माँ&बाप को भेज दिया । बीच&बीच में बेरोजगार भी रहा। शाम तनाव में गुजरती है] सुबह फैक्टरी के लिए तैयार होने में। दिन में न उत्साह न तनाव क्योंकि फैक्टरी में डेढ़ हड्डी के शरीर समेत वह एक मशीन होता है जिसे सुपरवाइजर पूरी रफ्तार से दौड़ाते रहते हैं।
तिवारी जी एक्सपोर्ट में अपवादस्वरूप पाए जाने वाले बुजुर्गों में से एक हैं] उनकी उम्र 40 साल है । सामान्यतः एक्सपोर्ट में 18 &28 साल के लड़के&लड़कियाँ काम करते हैं। इसके बाद उनकी प्रोडक्शन की उम्र खत्म हो चुकी होती है और वे निकाल दिए जाते हैं। यह दीगर बात है कि 18 साल के नौजवान जब 28 साल की उम्र तक काम करने के बाद रिटायर किए जाते हैं तो वे काम के बोझ से निचुड़ कर रिटायरमेंट वाली उम्र के दिखते हैं। ग्रैच्युटी के रूप में वे कोई बीमारी ही पा सकते हैं। पर तिवारी जी अभी हफ्ते भर तक रोज सुबह साढ़े नौ बजे से रात के दो बजे तक खड़े रह कर अपने फिनिशिंग डिपार्टमेट की मेज पर कपड़ों और इंचटेप के साथ धींगामुश्ती कर सकते हैं। इसके बाद उन्हें आराम करने के लिए एक दिन छुट्टी की जरूरत होती है] यह छुट्टी ऐसी होती है कि उन्हें रात दो बजे के बदले शाम छः बजे ही छुट्टी मिल जाती है और अगले दिन सुबह 9 बजे वे फिर हाजिर हो जाते हैं। लगता है कि उनका शरीर अचानक ही जवाब देगा। उनके दिमाग-जवान से हनुमान चालीसा से अशलील बड़बड़ाहट तक दोनो समान भाव व राग से पैदा होते हैं । उनकी मंजिल उनके 8 वीं में पढ़ने वाले होशियार बकौल तिवारी जी बेटे जिसे वे 300 रूपये प्रतिमाह खर्च कर ट्यूशन भी पढ़वाते हैं को पढ़ा लिखाकर बड़ा नौकर बनाने तक है उसके बाद वे कुछ नहीं करेंगे आराम करेंगे। मालूम नहीं यह एक्सपोर्ट-बस उन्हें उनकी मंजिल तक पहुँचा पाएगी कि नहीं।
एक्सपोर्ट कंपनियों में भारी तादाद में महिलाएं काम करती हैं। अधिकांश कंपनियों में नियुक्ति घोषित तौर पर ही छः माह के लिए ठेकेदारी पर होती है । अन्यथा कभी भी काम कम या खत्म होने पर तुरंत भारी तादाद में श्रमिकों को हिसाब पकड़ा दिया जाता है। तब उनका जीवन तात्कालिक हफ्तों या महीनों के लिए अधर में लटक जाता है। हर नई जगह भर्ती काम की परीक्षा लेकर की जाती है। परीक्षा उतनी कठिन होती जाती है जितने कम मजदूरों की जरूरत होती है।
जब कंपनी के पास काम होता है तो ओवरटाइम इलास्टिक की तरह असीमित रूप से बढ़ जाता है और ऐसा भी सुनने में आता है कि कुछ मजदूरों को महीने-महीने भर फैक्टरी में रहने की व्यवस्था भी मालिक कर देता है। नहीं तो 16 घंटे की ड्यूटी तो सामान्य हो ही जाती है। यह ओवरटाइम किसी भी तरह से स्वैच्छिक नहीं होता है। प्रशासन इस पर अपना नैतिक अधिकार समझता है और यह मजदूरों से जबरदस्ती करवाया जाता है। ओवरटाइम के दौरान इक्का&दुक्का फ़ैक्टरियों में ही चाय मट्ठी की व्यवस्था होती है। अक्सर 16 घंटे की ड्यूटी होने पर 12 रूपये से 22 रूपये तक रात्रि भोजन के लिए अलग से दिया जाता है। काम में कोई भी त्रुटि मिलने पर चार दिन गेट बंद से लेकर निष्कासन तक कोई भी सजा मजदूर को मिल सकती है। मालिकों मैनेजरों का मजदूरों के प्रति व्यवहार भी मशीन या कम्प्यूटर की तरह होता हैं जिसमें अक्सर कुत्ते की भौं&भौं फीड रहती है। जब यह कहा जाता है कि एक्सपोर्ट में पैसा ज्यादा है तो उसका तात्पर्य ओवरटाइम की संभावना से होता है। दो&चार फीसदी कंपनियों में ही ओवरटाइम का डबल भुगतान होता है और इतने ही में स्थायी रोजगार होता है अन्यथा अधिकतम छह महीने की ठेकेदारी के तहत नियुक्ति होती है।
एक्सपोर्ट फ़ैक्टरियों मजदूरों को अल्प समय में ही निचोड़ लेती हैं। ओवरटाइम का लालच मजदूरों को शीघ्र ही बुढ़ापे में धकेल देता है। ये नंगे पूंजीवाद का एक स्पष्ट उदाहरण हैं। मौजूदा श्रम कानूनों को बदलना पूरे मजदूर वर्ग को भी ऐसे ही नंगे हालातों की ओर ले जाएगा । दूसरे राष्ट्रीय श्रम आयोग की रिपोर्ट केन्द्र सरकार की आँखों में नाच रही है।
एक्सपोर्ट का मतलब निर्यात होता है। इन फैक्टरियों के उत्पाद विविध तरह से कपड़े निर्यात किए जाते हैं जो भारी मुनाफे के बावजूद विदेशियों के लिए शायद सस्ते होते हैं। मुनाफे का अंदाजा 300 मजदूरों वाली फरीदाबाद की एक एक्सपोर्ट कंपनी वैसे अन्य कंपनियां 500&1000 या 5000 तक मजदूरों वाली भी हैं के पैकिंग विभाग के एक मजदूर की सूचना से लगाया जा सकता है । बच्चों के कपड़े बनाने वाली इस एक्सपोर्ट कंपनी के कपड़ों पर पैकिंग विभाग प्रति कपड़ा 150 अमरीकी डालर लगभग 7000 रू0 अंकित करता है। ये कपड़ा 300 मजदूर प्रति दिन हजारों की तादाद में पैदा करते हैं। गौर करें कि ये कपड़े बच्चों के हैं बड़ों के कपड़ों के दाम और अधिक होंगे। मुनाफे के फलस्वरूप एक्सपोर्ट कंपनियों की शाखाएं नए-नए शहरों में खुलती जाती हैं। पिछले 10 सालों में तेजी से विकसित होने वाले एक्सपोर्ट उद्योग पूंजीपति वर्ग के बीच एक नया आकर्शक क्षेत्र है।
श्रम कानूनों को ताक पर रखने वाले एक्सपोर्ट उद्योग क्षेत्र में किसी एक फैक्टरी में यूनियन बनने के हालात बहुत दुश्कर हैं । फैक्टरी-दर-फैक्टरी भटकने वाले मजदूरों की पहचान एक्सपोर्ट मजदूर के रूप में होती है] किसी फैक्टरी के मजदूर के रूप में नहीं। अपनी इस वृहत्तर पहचान को अपनाकर ही एक्सपोर्ट क्षेत्र के मजदूर संगठन की सार्थक दिशा में बढ़ सकते हैं । अर्थात समग्र एक्सपोर्ट क्षेत्र के मजदूरों का एक बैनर के तले संगठनबद्ध होना पूंजीपति वर्ग के खिलाफ संघर्ष में उनकी विजय और मुक्ति के रास्ते का पहला पग हो सकता है। आगे के कदम अन्य क्षेत्रों के मजदूरों के हाथों को दृढ़तापूर्वक पकड़कर के ही उठाये जा सकते हैं। मजदूर साथियों की नौकरी की सुरक्षा की दृष्टि से उनके नाम बदल दिये गये हैं।
- फरीदाबाद संवाददाता
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